यूपीसी की सेवा का इस्तेमाल देश में करोड़ों लोग करते हैं लेकिन उसके इस्तेमाल करने वाले लोगों से इस संबंध में कोई बात करने की जरूरत नहीं समझी गई। आखिर इस सेवा से किसे नुकसान हो रहा था? क्या डाकघरों पर इससे कोई अतिरिक्त वित्तीय या कर्मचारियों का बोझ बढ़ रहा था ? डाक विभाग के नौकरशाहों के पास इसका कोई जवाब नहीं है निजीकरण का अर्थ केवल यह नहीं है कि सार्वजनिक क्षेत्र की किसी सेवा को निजी कंपनी को दे दिया जाए। शासन में निजीकरण की प्रक्रिया कई स्तरों पर चलती है और व्यवस्था की नीति जब निजीकरण की है तो उससे कोई भी क्षेत्र अछूता नहीं हो सकता है। देश भर में भारतीय डाक व्यवस्था का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि मार्च 2010 तक शहरी इलाकों में डाकघरों की संख्या 15797 एवं ग्रामीण इलाकों में एक लाख 39 हजार 182 थी। भारतीय डाकघरों से सरकार को तीन वित्तीय वर्षो 2007-08 से 2010 तक 18 हजार करोड़ से ज्यादा का लाभ हुआ है। देश में डाकघरों के पूरे ढांचे के निजीकरण के प्रयास कई स्तरों पर चल रहे हैं। कूरियर कंपनियों का व्यवसाय बढ़ाने के उद्देश्य से रजिस्र्टड पत्र और पार्सलों की सेवा दर बेतहाशा बढ़ा दी गई थी। निजीकरण की एक प्रक्रिया को और समझने की जरूरत है। वह है भरोसे को खंडित करने की प्रक्रिया तैयार होना। सार्वजनिक क्षेत्र पर लोगों को ज्यादा भरोसा होता है क्योंकि इसकी पृष्ठभूमि में लोगों के राजनीतिक आंदोलन होते हैं। इस भरोसे को दो तरह से तोड़ा जाता है। एक तो गैर जिम्मेदार होने का एहसास कराकर और दूसरे लोगों की क्षमता से ज्यादा सेवा दरों को बढ़ाकर। डाकघरों में दोनों ही तरह के प्रयास चल रहे हैं। डाकघरों में कई तरह की सेवाएं दी जाती हैं। उनमें गरीबों और मध्यम वर्गों के लिए एक जैसी लेकिन अलग अलग सेवाओं का एक ढांचा बना हुआ है। इसके उदाहरण के लिए रजिस्र्टड और डाक के लिए प्रमाण पत्र जैसी दो सेवाओं को लिया जा सकता है। रजिस्र्टड डाक में 20 रुपये से ज्यादा का भुगतान करना होता है तो डाक के लिए प्रमाण पत्र की सेवा ज्यादा से ज्यादा आठ रुपये खर्च करके ली जा सकती है। डाक के लिए प्रमाण पत्र की सेवा के तहत जो पत्र लेटर बॉक्स में डाला जाता है, उसे पोस्ट मास्टर के हाथों में दे दिया जाता है। पत्र लेते समय पोस्ट मास्टर एक कागज पर पत्र प्राप्ति की मुहर लगा देता है। उस कागज पर पत्र भेजने वाले को जिस पते पर पत्र भेजा रहा है वह पता लिखना होता है और उस पर तीन रुपये का टिकट लगाना होता है। इन तीन रुपयों में पत्र भेजने वाला एक साथ तीन पतों पर पत्र भेजने का प्रमाण पत्र हासिल कर सकता है। डाकघरों और कूरियर कंपनियों के महंगे होने के साथ डाक के लिए प्रमाण पत्र सेवा का चलन तेजी से बढ़ा है। सूचना का अधिकार कानून 2005 के बनने के बाद सूचना के अधिकार कार्यकर्ता व जागरूक नागरिकों द्वारा भी इसका इस्तेमाल बढ़ा है। सूचना के अधिकार कानून में थोड़ा पैसा खर्च करने की क्षमता रखने वालों के लिए दस रुपये की फीस तय की गई तो गरीबी रेखा के नीचे के लोगों के लिए दस रुपये दिए बिना ही सूचनाएं लेने का अधिकार दिया गया। लेकिन सरकार ने अब एक तीर से दो निशाने किए। भारतीय डाक से डाक का प्रमाण पत्र यानी यूपीसी की सेवा समाप्त कर दी गई। मजे की बात यह है कि यह सेवा इतने गुपचुप तरीके से समाप्त की गई कि महीनों पता ही नहीं चला। जबकि इस सेवा को समाप्त करने की प्रक्रिया के तहत पहले डाक विभाग की नौकरशाही ने प्रस्ताव तैयार किया। उसके बाद इसके लिए मंत्री कपिल सिब्बल की स्वीकृति ली और बाद में इसे संसद के गजट में प्रकाशति भी किया गया। दरअसल इस दौर में तमाम लोक प्रतिनिधित्व वाली संस्थाएं कई तरह के बड़े-बड़े फैसले चुपचाप कर लेने की इजाजत देने के सबसे ज्यादा काम आ रही हैं। यूपीसी की सेवा का इस्तेमाल देश में करोड़ों लोग करते हैं लेकिन उसके इस्तेमाल करने वाले लोगों से इस संबंध में कोई बात करने की जरूरत नहीं समझी गई। आखिर इस सेवा से किसे नुकसान हो रहा था? क्या डाकघरों पर इससे कोई अतिरिक्त वित्तीय या कर्मचारियों का बोझ बढ़ रहा था ? डाक विभाग के नौकरशाहों के पास इसका कोई जवाब नहीं है। जबकि यह सेवा कितनी पुरानी है, इसका अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि इसकी भारतीय डाक अधिनियम 1935 में भी र्चचा है। सवाल है कि जिस सेवा से डाकघरों को लाभ ही लाभ हो रहा हो और उसका इस्तेमाल भी लगातार बढ़ रहा हो तो यह आदर्श स्थिति कैसे लोगों को खटक सकती है लेकिन इससे निजीकरण की प्रक्रिया तेज होती है। जो लोग यूपीसी सेवा का इस्तेमाल करते रहे हैं, उसके बंद हो जाने के बाद वे क्या करेंगे। उनके पास एक ही विकल्प है कि वे डाक का प्रमाण पत्र हासिल करने के लिए डाक घरों में रजिस्र्टड कराने के लिए लंबी लाइन में लगें। लंबी लाइन इसीलिए होती है क्योंकि वहां कर्मचारियों पर पहले ही काम का बोझ ज्यादा है। जाहिर है कि तब अपने डाक का प्रमाण पत्र लेने के लिए कूरियर के बाजार की तरफ जाना होगा। इस सेवा के बंद करने के साथ दो और मजेदार बातें सरकार के मुंह से सुन लेनी चाहिए। सरकार ने संसद में नौ अगस्त 2010 को यह मानने से इंकार किया कि लोगों में डाकघरों की जरूरत कम हो रही है। यानी तमाम तरह की सूचना प्रद्योगिकी के बावजूद डाक घरों की जरूरत बढ़ रही है। दूसरी बात सरकार ने 15 नवम्बर 2010 को लोकसभा में ही कहा कि ग्रामीण इलाकों की बदतर सामाजिक और आर्थिक हालत देखते हुए ग्रामीण इलाको में डाकघरों के खोलने के संबंध में जो वित्तीय व आबादी के मानक तय किए गए हैं, उसके प्रति सरकार ने अपना रुख लचीला किया है। इन बातों के बावजूद डाक का प्रमाण पत्र जैसी सेवा को समाप्त करने का क्या मकसद हो सकता है? दरअसल, पूंजीवादी लॉबी की सरकार के भीतर बुरी तरह पैठ हो चुकी है। वह बेहद निडरता और निर्लज्जता से वैसे फैसले कर रही है जिससे आम आदमी का सीधा सीधा रिश्ता है। दूसरी तरफ यह एक विपरीत स्थिति हो गई है कि बड़ी आबादी को प्रभावित करने वाले फैसलों को महज पैसे के आकार के कारण छोटा मानकर उसके विरोध में कोई बोलने को तैार नहीं दिखता है। देश में जो राजनीतिक सोच की धारा परिवर्तनगामी थी, वह पूरी तरह से मध्यवर्गीय चरित्र में ढल चुकी है। संसद में ही डाकघरों से संबंधित सवालों पर एक नजर डालें तो दिखाई देगा कि सांसदों का सरोकार डाकघरों की उन सेवाओं से नहीं है जिसका इस्तेमाल गरीब-गुरबा करता है। संसद के बाहर गरीब गुरबों की बात करने वाला भी इस तरफ नहीं सोच पाता। इस तरह का रुख तब भी देखने को मिला था जब सरकार ने देश के सभी लोगों को आयोडीनयुक्त नमक खाना अनिवार्य कर दिया और आयोडीन युक्त नमक के ब्रांड पैकेटों की मनमानी कीमत रखने की छूट दे दी गयी। तब से दो तीन रूपये किलों का नमक पांच छह गुना ज्यादा दाम से बिकता आ रहा है और कंपनियां करोड़ों कमा रही है। सरकार ने एक फार्मूला सा बना लिया है कि इस तरह के फैसले लो ताकि विरोध भी न हो और पूंजीवाद का विस्तार भी किया जा सके। |
शनिवार, 4 जून 2011
डाकघरों में निजीकरण का बढ़ता दायरा
अनिल चमड़िया
साभार : राष्ट्रीय सहारा
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