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बुधवार, 29 अक्तूबर 2014

हिन्दुत्व की पुनर्स्थापना का मकसद



वरुण शैलेश
निरूपमा पाठक को अपनी जान गवां कर जातीय दायरे से बाहर जाकर प्रेम करने की कीमत चुकानी पड़ी थी। निरूपमा झारखंड के कोडरमा की रहने वाली थीं। दिल्ली के भारतीय जनसंचार संस्थान में पत्रकारिता के प्रशिक्षण के दौरान निरूपमा को प्रेम हो गया। लेकिन एक कायस्थ लड़के से प्रेम निरूपमा के ब्राह्मण परिवार को मंजूर नहीं था, और नतीजे के रूप में उनको मौत मिली।
तमिलनाडु में पलाइयार जाति के दलित युवक इलावरसन और पिछड़ी वन्नियार जाति की युवती दिव्या के प्रेमविवाह का अन्त युवक की अस्वाभाविक मौत के रूप में हुआ। 7 नवम्बर, 2012 को राज्य के धरमपुरी जिले के नाथम, कोंडमपट्टी और अण्णानगर की दलित बस्ती पर वन्नियार जाति के लोगों ने सुनियोजित तरीके से हमला कर 268 घरों को जला डाला था। दिव्या के घर वाले इस रिश्ते को किसी भी सूरत में स्वीकार करने को राजी नहीं थे। दिव्या और इलावरसन ने शादी की। लेकिन यह शादी वन्नियार जाति के लोगों को नागवार लगी। वन्नियारों ने पंचायत करके दिव्या को वापस करने का फरमान सुनाया। दिव्या ने इसे नकारते हुए अपने पिता के घर जाने से इनकार कर दिया। इस सामाजिक दबाव के चलते दिव्या के पिता नागराजन को शायद खुदकुशी करनी पड़ी थी। नागराजन की खुदकुशी के बाद वन्नियारों की करीब 25,00 लोगों की भारी भीड़ नाथम, अन्ना नगर और कोंडोपट्टी गांव में घुस कर 268 दलितों के घरों में आग लगा दी। इस हमले के बाद वन्नियार संघम ने पिछड़ी जातियों का एक दलित विरोधी गठबंधन बनाने की कोशिश की। प्रचार किया गया था कि किस तरह दलित युवक पिछड़ी जाति की लड़कियों को बहलाते फुसलाते हैं। यहां तक कि अनुसूचित जाति-जनजाति निवारण अधिनियम (1989) के कथित दुरुपयोग के मद्देनजर उसे कमजोर करने की मांग भी की गई थी। अंतत: दिव्या ने मां के घर लौटने का निर्णय लिया और उसके दो दिन बाद ही इलावरसन को 4 जुलाई 2013 को धरमपुरी में रेलवे पटरी पर मृत पाया गया था। जाहिर है प्रेम की कीमत के रूप में इलावरसन को अपनी जान गंवानी पड़ी थी।
दरअसल, यह साफ साफ समझना होगा कि हिन्दुत्व को बनाए रखने के पीछे का मकसद हिन्दू समाज की संरचनागत, वर्णवादी और जातिवादी ढांचे को बनाए रखना है। इस ढांचे का अर्थ ब्राह्मणवाद में निहित है। लेकिन सत्ता हस्तांतरण के बाद बाबा साहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर ने जो संविधान देश को दिया वह सामाजिक समरता और समानता की पुरजोर वकालत करता है। इससे मनुवादी व्यवस्था का किला ध्वस्त हो रहा है। ऐसे में हिन्दुत्वादी ताकतें तिलमिलाईं हुईं हैं औऱ वो वर्णवादी व्यवस्था को पुनर्स्थापित करने को लेकर तमाम साजिशें रच रही हैं। 16वीं लोकसभा चुनाव में अपने आप को पिछड़ी जाति का सदस्य घोषित कर एक घोर हिन्दूवादी व्यक्ति का प्रधानमंत्री बन जाना एक खास दिशा की तरफ इशारा करता है। महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने दिवंगत पार्टी नेता गोपीनाथ मुंडे की बेटी पंकजा मुंडे की अगुवाई में राज्य के अन्य पिछड़ी जातियों (ओबीसी) से एकजुट होने और न्याय हासिल करने का आह्वान किया तथा भाजपा को सत्ता में लाने को कहा। इस एकजुट होने और न्याय हासिल करने में हिन्दूत्व के स्वार्थ निहित हैं। भाजपा कहती है कि हिन्दुत्व उसके आस्था का सवाल है। मगर असल में, आस्था की आड़ में जातिगत वर्चस्व को मजबूत करने और उसे कायम रखने का हिन्दुत्व जरिया है। इसके स्तम्भों को बनाए रखने के लिए जाति, धर्म और स्त्री की देह को युद्ध के मैदान के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है। तमिलानाडु की घटना इसकी बानगी है। भगवा पार्टी द्वारा ओबीसी जातियों को एकजुट करने का उद्देश्य सिर्फ जातीय ढांचे को कायम रखना है। ओबीसी जातियों का प्रेम जैसे मामलों में दलित समाज के खिलाफ लामबंद होना सवर्ण जातियों लिए सुरक्षा कवच तैयार करता है। इस देश में दलित आदिवासी महिलाओं से होने वाले बलात्कार के ज्यादातर मामलों में सवर्ण अपराधी होते हैं। लेकिन पिछड़ी जातियों में हिन्दुत्व के तत्व को जिंदा कर दलितों आदिवासियों के खिलाफ खड़ा कर दिया जाता है औऱ यही ब्राह्मणवादी समाज को मजबूती देता है। वरना होना तो यह चाहिए की पिछड़ी और दलित जातियां एकजुट होकर न्याय हासिल करने का अपना रास्ता तय करें। लेकिन जब हिन्दूत्व न्याय की परिभाषा तय करेगा तब इसका परिणाम कोडरमा की निरूपमा पाठक और तमिलनाडु में इलावरसन के हत्स के रूप में देखने को मिलेगा। और इससे आगे बढ़कर लव जेहाद का भ्रम खड़ा होगा और दो धर्मों के बीच विलगाव की स्थिति पैदा होगी। यही हिन्दुत्व का असली मकसद है। हिन्दूवादी संगठनों द्वारा लव जेहाद का भ्रम खड़ा करना उसी साजिश का एक हिस्सा है। हिन्दू समाज अपने वर्णवादी चरित्र के चलते अंतरजातीय प्रेम तक को बर्खास्त करता है और हिन्दुत्व के इसी ब्राह्मणवादी चरित्र के कारण निरूपमा को अपनी जान गंवानी पड़ी थी।
दूसरी बात, प्रेम के खिलाफ हिन्दूत्व की भाषा एक है चाहे वह गैर हिन्दू जाति के खिलाफ हो या अल्पसंख्यकों के खिलाफ। उसमें कोई अंतर देखने को नहीं मिलेगा। पिछले कुछ महीनों में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में यह प्रचार किया गया कि मुस्लिम लड़के हिन्दू लड़कियों पर डोरे डालने के लिए सज-धज्जकर कॉलेजों के आसपास घुमते-फिरते हैं। ठीक इसी तरह के बयान तमिलनाडु में इलावरसन के प्रेम के मामले में राजनीतिक पार्टियों के बयान देखने को मिले थे। तमिलानाडु में उस समय पूरे घटना पर पट्टाली मक्कल काची (पीएमके) के अध्यक्ष और पूर्व स्वास्थ्य मंत्री अंबुमणि रामदास के पिता एस. रामदास का बयान गौरतलब था। रामदास का कहना था कि दलिय युवक जींस टी-शर्ट और फैंसी सन-ग्लास लगाकर वन्नियार जाति की युवतियों को बहलाते फुसलाते औऱ प्रेम जाल में फंसाते हैं। हिन्दूत्ववादी संगठव लव जेहाद का भ्रम खड़ा कर महिलाओं पर भी काबू करना चाहते हैं। महिलाओं की आजादी पर अंकुश लगाकर मर्दवादी समाज उसे अपने कब्जे में रखना चाहता है। हिन्दूत्व को पुर्नस्थापित करने के लिए जातिय वर्चस्व औऱ महिलाओं पर काबू किया जा रहा है। इसे रोकने के लिए दलितों, महिलाओं और अल्पसंख्यक समाज को सशक्त करना होगा।

बुधवार, 15 अक्तूबर 2014

रास्ते और वर्चस्व का ढांचा

वरुण शैलेश
आराम तलब की दिल्ली में रहने वाले हम अयप्पन की तकलीफ को महसूस नहीं कर सकते। अगर आने जाने के रास्ते की सुविधा होती तो शायद वह अपने बच्चे को जीवित बचा पाने में कामयाब होते। सड़क और आवागमन के अभाव के कारण वह दूर उपलब्ध चिकित्सा सुविधा तक अपनी पत्नी सुधा को वक्त से नहीं पहुंचा सके। यह घटना पिछले साल जून की केरल के पथनामथिट्टा जिले की है। नोमाडिक आदिवासी अयप्पन की पत्नी सुधा बीमार थीं। लेकिन परिवहन व्यवस्था न होने की वजह से गर्भवती पत्नी को पीठ पर लादकर उन्होंने चालीस किलोमीटर का लंबा सफर तय किया। अपने भारी पेट की पीड़ा के साथ पति की पीठ पर लदने वाली पत्नी का दर्द घने जंगलों से कहीं ज्यादा गहरा रहा होगा। भारी बारिश के बीच कोन्नी के जंगलों को पार करते हुए अयप्पन सुबह पत्नी को लेकर पथनामथिट्टा के ज़िला अस्पताल पहुंचे। बाद में सुधा को कोटट्यम मेडिकल कॉलेज भेजा गया। उनकी जान तो बच गई मगर बच्चा नहीं।
पत्नी सुधा के पास बैठे अयप्पन
इसी तरह रास्ते के बाबत दशरथ मांझी के कड़े परिश्रम को तौलना नामुमकिन है। बिहार में गया जिले के गहलौर गांव के दशरथ की पत्नी फगुनी देवी को पहाड़ पारकर पानी लेने जाना पड़ता था। एक दिन वह फिसलकर गिर गईं। मटका टूट गया और उन्हें गहरी चोट आई। फगुनी देवी को लगी यह चोट दशरथ बाबा को एक संकल्प दे गई। उन्होंने अपनी मजबूत इच्छा शक्ति और छिन्नी-हथौड़ी की बदौलत 27 फुट ऊंचा पहाड़ काटकर 365 फुट लंबा एवं 30 फुट चौड़ा रास्ता बना दिया। उनकी मेहनत ने पहाड़ी को 80 किलोमीटर घुमकर जाने के रास्ते को तीन किलोमीटर में समेट दिया। हालांकि तैयार रास्ता को फगुनी नहीं देख सकीं। अलबत्ता रास्ता बनने से पहले ही वह बीमार पड़ गईं। उन्हें अस्पताल पहुंचाने में पूरा दिन लग गया और यही दूरी फगुनी देवी के मौत का कारण बनी। लेकिन दशरथ के इस अद्यम साहस को मापने का पैमाना हमारी सरकार के पास नहीं है। इस रास्ते को पक्की सड़क में तब्दील करने का नीतीश सरकार के आश्वासन का आज भी बाबा की आत्मा इंतजार कर रही है। एक जैसी इन घटनाओं को बताने का उद्देश्य आने-जाने की सुविधा मुहैया कराने वाली सड़क और कमजोर  समाज को उसकी जरूरत तथा वर्चश्वशाली समूह के हित को समझने का है।
अब हम एक दूसरी तस्वीर देखते हैं। भारत में सड़कों का जाल बिछाने और राजमार्गों के निर्माण के पीछे अंग्रेजों का एजेंडा देश के प्राकृतिक संसाधनों के दोहन का बताया जाता है। उस दौरान उन इलाकों तक रेल पटरियों को विस्तार दिया गया जहां से ब्रिटिश उग्योग के लिए कच्चा माल हासिल किया जा सके। इस बाबत ब्रिटिश काल में रेल व सड़क मार्गों को वैसे दुरुह क्षेत्रों तक पहुंचा दिया गया जिस तरह के हिस्सों में भारत सरकार अपने दोहनकारी ढांचे को अभी तक विकसित नहीं कर पाई है। इन मार्गों और रेल पटरियों को संरचनात्मक रूप से जटिल मगर प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर इलाकों तक विकसित करने का उद्देश्य महज शोषण के सिवाय कुछ और नहीं था। अवलोकन करें तो मिलेगा कि दक्षिण, पश्चिम या पूर्वोत्तर भारत के अलावा देश के उन चुनिंदा पहाड़ी क्षेत्रों में सड़कों या रेल मार्गों का विकास प्राथमिकता के तौर पर किया गया जहां से अंग्रेज व्यापारी ब्रिटेन स्थित अपने कारखानों की जरूरत को पूरा करा सकें। इसमें आवागमन जैसी मानवीय सुविधाओं का तत्व कहीं नहीं था।
मगर 1947 के बाद के भारत में मार्गों को विकसित करने के मकसद में क्या किसी तरह का बदलाव आया ? आधुनिक भारत में भारतीय शासकों ने सत्ता संचालन को लेकर अंग्रेजों के नक्शेकदम को ही अपनाया। ऐसा न केवल कानून व्यवस्था के मामले में हुआ बल्कि शोषण की जितनी तरकीब अंग्रेज शासकों ने गढ़ी थी उसे आत्मसात करने में भारतीय हुक्मरानों ने किसी तरह की हिचकिचाहट महसूस नहीं की। कई मामलों में तो भारत के नीति निर्माता अंग्रेजों से ज्यादा शोषक की भूमिका में दिखते हैं। भारत में आज भी सड़क निर्माण के पीछे का दृष्टीकोण अंग्रेज शासकों के बरक्स ही होकर गुजरता है। यानी देश के जिस हिस्से से आर्थिक लाभ ज्यादा से ज्यादा अर्जित किया जा सकता है उन क्षेत्रों में सड़कों का विस्तार किया गया। आम नागरिकों के सरल आवागमन की व्यवस्था नदारद दिखती है। विकास के नाम पर निर्मित राष्ट्रीय राजमार्ग सुविधा के बजाय शक्तिशाली समूहों के वित्त अर्जन में बढ़ोतरी का जरिया बन रहे हैं। कोयला खदानों का उद्योगपतियों और राजनेताओं को अवैध आवंटन इसकी तस्दीक करती है।
भारत सरकार नक्सल प्रभावित इलाकों में माओवादियों से निपटने की दिशा में विकास को अपना हथियार बताती और इसे अपनाती भी है। इस विकास में सड़कों का निर्माण मुख्य है। जितने क्षेत्रों को माओवाद प्रभावित बताया जाता है वो दरअसल बहुमूल्य प्राकृतिक संपदा से समृद्ध हैं। इन हिस्सों में उद्योगपतियों व्दारा खनिज पदार्थों से लेकर आदिवासियों के जल, जंगल औऱ जमीन तक की लूट खसोट जारी है। इसमें सरकारी मशीनरी मददगार बन रही हैं। आदिवासी आबादी वाले इलाकों में मार्गों को भारी पैमाने पर विकसित करना यही दर्शा रहा है। इसमें राजनीतिक और आर्थिक हित सर्वोपरि है। जाहिर तौर पर इन रास्तों का निर्माण आने जाने का माध्यम नहीं बल्कि वर्चस्वशाली समूह के हित को साधना है। इसमें आम आदमी की सुविधा का सरोकार नहीं है।
जब सवाल सरकार के मंसूबों पर उठने लगे तो फिर उसके ढांचे की पड़ताल अनिवार्य हो जाती है। असल में, सरकार एक विचार की संरचना है। संसदीय लोकतंत्र में इसे समाज का प्रतिनिधि बताया जाता है। मगर सत्ता के इस निर्माण में ऊपर और नीचे के ताकतवर हिस्से की भूमिका हावी रहती है। इसीलिए सत्ता का शीर्ष इन शक्तिशाली समूहों के हितों का ख्याल रखता है। साथ ही अपने लोक कल्याणकारी छवि को बचाने के लिए भी उसे कुछ योजनाओं पर अमल करना पड़ता है। लेकिन इनमें कुछ योजनाएं सत्ता संचालित करने वाले प्राथमिक समूहों यानी गांवों में मौजूद सामंती तत्वों की ताकत को कमजोर करती हैं। लिहाजा यह समूह समाज के कमजोर वर्ग के लिए खड़े होने वाले विकास में अड़ेगे डालता है। विचार की इस संरचना को इस तरह समझा जा सकता है कि एक तरफ सरकार नाम की संस्था ऊपर के वर्चस्वशाली वर्ग को खुशामंद करती है तो दूसरी ओर उसकी संरचना का निचला हिस्सा कमजोर तबके के विकास को रोकने का कुचक्र रचता है। इस सिद्धांत की पुष्टी मेरे गांव के ग्रामीणों का संघर्ष कर रहा है।गांव के लिए सड़क की क्या भूमिका हो सकती है। बेरोकटोक आने-जाने की सुविधा। अथवा आज के संदर्भ को देखते हुए सीधा सा जवाब होगा कि सड़क विकास को पहुंचाने का माध्यम है। मगर पूर्वी उत्तर प्रदेश में देवरिया जिले के खड़ेसर और बिहार में वैशाली जिले के दौलतपुर चांदी गांव के लोगों के लिए सड़क का महत्व इसके रास्ते आने वाले विकास से कहीं ज्यादा आत्मसम्मान की डगर है।
आजादी के साथ वादा किया गया था कि सभी को समान अधिकार हैं, लेकिन छह दशक बाद देश में भले ही तमाम क्षेत्रों में प्रगति के दावे हों, चांद से लेकर मंगल तक की उड़ान की परियोजनाएं कल्पित हों, लेकिन एक अदद हकीकत यह है कि खड़ेसर जैसे हजारों गांवों तक की आवाजाही के रास्ते दबंगों के कब्जे में हैं। गांव के लोग आने-जाने के रास्ते के लिए संघर्ष कर रहे हैं। ऐसा नहीं है कि जनसंघर्ष को देखते हुए किसी जनप्रतिनिधि ने सड़क बनवाने का आश्वासन नहीं दिया है। लेकिन स्थानीय लोगों को आश्चर्य इस बात का है कि कोई अपने वादे पर खरा नहीं उतर पाया है। जबकि ग्रामीणों के आग्रह पर ग्रामसभा की तरफ से सड़क बनी थी, मगर गांव के दबंग उसे भी सुरक्षित नहीं रहने दे रहे हैं। सड़क के बीच से नाली खोद दी है, जिससे सड़क की मिट्टी पानी के साथ बह जा रही है। लोगों की आवागमन के रास्ते को रोकने या उसे नुकसान पहुंचाने का सीधा अर्थ है कि नागरिकों की आजादी को बाधित करना, क्योंकि संविधान अनुच्छेद-19 के तहत सभी नागरिकों को निर्बाध आवागमन का अधिकार देता है।
खड़ेसर गांव में सड़क के सहारे किसी के दरवाजे पर किसी साधन से पहुंचना संभव नहीं रह गया है। गांव में दिक्कत तब बढ़ जाती है, जब कोई बीमार हो जाता है। चूंकि कोई साधन दरवाजे तक नहीं पहुंच पाते हैं, इसलिए मरीजों को अस्पताल पहुंचाने में वे तमाम उपाय अपनाने पड़ते हैं, जो विकास का दावा करने वालों को शर्मिंदा कर दे। माता-पिता अपनी बेटी की विदाई दरवाजे से नहीं कर पाते हैं, लेकिन सार्वजनिक संपत्ति के नुकसान पहुंचाने की इस घटना पर सभी मौना बाबा बने हुए है।
खड़ेसर की तरह बिहार में वैशाली जिले के दौलतपुर चांदी गांव की स्थिति है। बिहार सरकार की संपर्क सड़क योजना के तहत पिछले दस साल से मार्ग निर्माण का काम अटका हुआ है। काफी मशक्कत के बाद थोड़ी सी सड़क बन पायी तो दबंगों ने रात में मशीन लगाकर उसे खोद दिया। दलित बाहुल्य गांव की आबादी के पास निकलने के रास्ते के नाम पर सवर्ण जातियों के खेत किनारे बनी पगडंडी है। इन दोनों मामलों से दो बातें स्पष्ट तौर पर उभरती हैं। पहला, गरीब और दलित जैसे वंचित तबके के लिए विकसित होने वाली सुविधाओं में बाधा खड़ी करते हुए सामंती व्यवस्था को बचाए रखना है। दलित व अन्य वंचित तबके के पास आने-जाने का रास्ता नहीं होगा, तो निश्चित तौर पर सवर्ण या संपन्न तबके के खेत या अन्य संपत्ति से गुजरने की मजबूरी बनी रहेगी। शक्तिविहीन वर्ग में यही मजबूरी वर्चस्वशाली वर्ग के ताकतवर बने रहने का फार्मूला है। यह गरीबों और कमजोरों के खिलाफ एक तरह की नाकाबंदी है, जो संपन्न सवर्ण तबके को दुस्साहसिक बढ़त देती है। यह नाकाबंदी प्रशासन के रूप में पूरी जातिवादी संरचना की तस्वीर को नंगा करती है।

ग्रामीणों के रास्ते पर कब्जे की शिकायत पर कार्रवाई न होना बताता है कि संविधान निर्माताओं की तरफ से देश को सामंती जकड़न से निकालने की कोशिश प्रभावी नहीं हो पा रही है। आजादी का लंबा समय बीतने के बाद आज भी देश में ऐसे कई मौके व जगहें हैं, जहां पहुंचते-पहुंचते संविधान के प्रावधान हांफने लगते हैं और सामंती व्यवस्था पूरी ताकत से जी उठती है। वहीं अयप्पन और दशरथ मांझी का संघर्ष केरल, बिहार और उत्तर प्रदेश के मार्फत बुनियादी सुविधाओं के बंटवारे को लेकर देश को आइना दिखा रहा है। 

साभारः सबलोग