Powered By Blogger

शनिवार, 6 दिसंबर 2014

तहजीब मर जाने की कहानी है अयोध्या


कहते हैं अयोध्या में राम जन्मे. वहीं खेले कूदे बड़े हुए. बनवास भेजे गए. लौट कर आए तो वहां राज भी किया. उनकी जिंदगी के हर पल को याद करने के लिए एक मंदिर बनाया गया. जहां खेले, वहां गुलेला मंदिर है.
जहां पढ़ाई की वहां वशिष्ठ मंदिर हैं. जहां बैठकर राज किया वहां मंदिर है. जहां खाना खाया वहां सीता रसोई है. जहां भरत रहे वहां मंदिर है. हनुमान मंदिर है. कोप भवन है. सुमित्रा मंदिर है. दशरथ भवन है. ऐसे बीसीयों मंदिर हैं. और इन सबकी उम्र 400-500 साल है.

यानी ये मंदिर तब बने जब हिंदुस्तान पर मुगल या मुसलमानों का राज रहा.
अजीब है न! कैसे बनने दिए होंगे मुसलमानों ने ये मंदिर! 

उन्हें तो मंदिर तोड़ने के लिए याद किया जाता है. उनके रहते एक पूरा शहर मंदिरों में तब्दील होता रहा और उन्होंने कुछ नहीं किया! 

कैसे अताताई थे वे, जो मंदिरों के लिए जमीन दे रहे थे. शायद वे लोग झूठे होंगे जो बताते हैं कि जहां गुलेला मंदिर बनना था उसके लिए जमीन मुसलमान शासकों ने ही दी. 

दिगंबर अखाड़े में रखा वह दस्तावेज भी गलत ही होगा जिसमें लिखा है कि मुसलमान राजाओं ने मंदिरों के बनाने के लिए 500 बीघा जमीन दी. निर्मोही अखाड़े के लिए नवाब सिराजुदौला के जमीन देने की बात भी सच नहीं ही होगी.
सच तो बस बाबर है और उसकी बनवाई बाबरी मस्जिद! 

अब तो तुलसी भी गलत लगने लगे हैं जो 1528 के आसपास ही जन्मे थे. लोग कहते हैं कि 1528 में ही बाबर ने राम मंदिर तोड़कर बाबरी मस्जिद बनवाई. 

तुलसी ने तो देखा या सुना होगा उस बात को. बाबर राम के जन्म स्थल को तोड़ रहा था और तुलसी लिख रहे थे मांग के खाइबो मसीत में सोइबो. और फिर उन्होंने रामायण लिखा डाली. राम मंदिर के टूटने का और बाबरी मस्जिद बनने क्या तुलसी को जरा भी अफसोस न रहा होगा! कहीं लिखा क्यों नहीं!
अयोध्या में सच और झूठ अपने मायने खो चुके हैं. मुसलमान पांच पीढ़ी से वहां फूलों की खेती कर रहे हैं. उनके फूल सब मंदिरों पर उनमें बसे देवताओं पर.. राम पर चढ़ते रहे. 

मुसलमान वहां खड़ाऊं बनाने के पेशे में जाने कब से हैं. ऋषि मुनि, संन्यासी, राम भक्त सब मुसलमानों की बनाई खड़ाऊं पहनते रहे. 

सुंदर भवन मंदिर का सारा प्रबंध चार दशक तक एक मुसलमान के हाथों में रहा. 1949 में इसकी कमान संभालने वाले मुन्नू मियां 23 दिसंबर 1992 तक इसके मैनेजर रहे. जब कभी लोग कम होते और आरती के वक्त मुन्नू मियां खुद खड़ताल बजाने खड़े हो जाते तब क्या वह सोचते होंगे कि अयोध्या का सच क्या है और झूठ क्या?
अग्रवालों के बनवाए एक मंदिर की हर ईंट पर 786 लिखा है. उसके लिए सारी ईंटें राजा हुसैन अली खां ने दीं. किसे सच मानें? क्या मंदिर बनवाने वाले वे अग्रवाल सनकी थे या दीवाना था वह हुसैन अली खां जो मंदिर के लिए ईंटें दे रहा था? इस मंदिर में दुआ के लिए उठने वाले हाथ हिंदू या मुसलमान किसके हों, पहचाना ही नहीं जाता. सब आते हैं. एक नंबर 786 ने इस मंदिर को सबका बना दिया. क्या बस छह दिसंबर 1992 ही सच है! जाने कौन.
छह दिसंबर 1992 के बाद सरकार ने अयोध्या के ज्यादातर मंदिरों को अधिग्रहण में ले लिया. वहां ताले पड़ गए. आरती बंद हो गई. लोगों का आना जाना बंद हो गया. बंद दरवाजों के पीछे बैठे देवी देवता क्या कोसते होंगे कभी उन्हें जो एक गुंबद पर चढ़कर राम को छू लेने की कोशिश कर रहे थे? सूने पड़े हनुमान मंदिर या सीता रसोई में उस खून की गंध नहीं आती होगी जो राम के नाम पर अयोध्या और भारत में बहाया गया?
अयोध्या एक शहर के मसले में बदल जाने की कहानी है.
 अयोध्या एक तहजीब के मर जाने की कहानी है
साभारः http://www.twitlonger.com/show/n_1sj08iu

गुरुवार, 13 नवंबर 2014

नसबंदी, मौत और आदिवासी

यह टिप्पणी कहानीकार और उपन्यासकार उदय प्रकाश के फेसबुक वॉल से ली है ताकि देश में संघर्षरत तथा सबसे संकटग्रस्त आदिवासी समाज की स्थिति की एक तस्वीर दिख सके। यह इसलिए भी जरूरी लगा, क्योंकि छत्तीसगढ़ में नसबंदी के कारण जितनी महिलाएं मौत के गाल में समा गईं वह शायद देश में विमर्श का विषय नहीं बनेंगी। आदिवासी समाज को सरकार अपने 'विकास' में बाधक मानती है औऱ उसके लिए उनकी मौत कोई मायने नहीं रखती है। खुद को मुख्यधारा का बताने वाले समाज के मायने सरकार के मायने से तय होते हैं। देखिए!!!

उदय प्रकाश
बिलासपुर मेरे गांव से बमुश्किल दो घंटे की दूरी पर है और पेंड्रा, गौरेला, मरवाही तो लगभग लगे हुए हैं. राजनीतिक तकनीक के लिहाज से मेरा गांव सीतापुर मध्य प्रदेश के सीमांत पर है, उसी तरह, जैसे जहां अब मैं रहता हूं फ़िलहाल- वैशाली, वह उत्तर प्रदेश के सीमांत पर है. 
जिस तरह मेरे गांव और कस्बे के लोग अपने-अपने वाहनों में पेट्रोल डीज़ल भराने पेंड्रा या किसी दूसरे ऐसे कस्बे के पेट्रोल पंप में जाते हैं क्योंकि छत्तीसगढ़ एक आदिवासी राज्य है और यहां ईंधन ३ से ४ रुपये प्रति लीटर सस्ता है, वह भी वैसा ही है जैसे मेरे समेत वैशाली के अन्य वाशिंदे अपने-अपने वाहनों में ईंधन भराने के लिए आनंद विहार की ओर जाते हैं, क्योंकि वह राजधानी दिल्ली में है और वहां प्रति लीटर पेट्रोल-डीज़ल सस्ता है.
जब मेरे गांव में कोई बीमार पड़ता है तो अपना इलाज कराने वह बिलासपुर उसी तरह जाता है जैसे वैशाली-गाज़ियाबाद में कोई बीमार दिल्ली के किसी अस्पताल की शरण लेता है.
यही वह बिलासपुर और यही वे गांव हैं जहां गरीब महिलाओं की निशुल्क नसबंदी शिविर में इन पंक्तियों के लिखे जाने तक १३ महिलाओं की मृत्यु हो चुकी है और ५० की हालत गंभीर है. छह घंटे में ८३ आपरेशन कर डालने वाले डाक्टर को इसी साल के गणतंत्र दिवस पर १००.००० (एक लाख) नसबंदी सर्जरी का रिकार्ड बनाने के लिए सरकार पुरस्कृत कर चुकी है., उसी तरह, जिस तरह सोनी सोरी के गुप्तांग में गिट्टी-पत्थर भरने वाले पुलिस अफ़सर को किसी और गणतंत्र दिवस पर शौर्य-सम्मान दिया जा चुका है.
लेकिन आप-हम सब देखेंगे, बल्कि देखते ही रहिये, कि छत्तीसगढ़ की यह घटना राष्ट्रीय स्तर पर किसी बड़ी चिंता या बौद्धिक विमर्श का मसला नहीं बनेगी. यह तो शासकीय स्वास्थ्य सेवा की एक मामूली 'भूल' या 'लापरवाही' भर है.
स्त्री के अपमान की जो घटना दिन रात टीवी चैनलों से लेकर अखबारों के पन्नों पर विचारोत्तेजक बहस का मुद्दा कुछ दिनों तक बनेगी, वह है अली गढ़ मुस्लिम वि.वि. के वाइस चांसलर का एक बयान.
वाइस चांसलर का एक वाक्य इसी देश की १३ महिलाओं की मौत से बहुत बड़ा बौद्धिक विषय है, क्योंकि वह वाक्य ही अकेला 'स्त्री' के प्रति अपमानजनक है.
बाकी और कुछ भी नहीं.

कुछ शब्द और ...
इस भयावह सर्जरी की शिकार हुई गरीब महिलाओं में कुछ उस आदिवासी बैगा जनजाति की हैं, जो विलुप्ति की ओर बढ़ रही हैं और जो 'संरक्षण' की श्रेणी में उसी तरह रखी जा चुकी हैं, जिस तरह अंडमान-निकोबार की जारवा जैसे आदिवासी समुदाय. क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि कोई सरकार जारवा या बैगा की नसबंदी का आयोजन करे, जो उनके पहले से ही खतरे की हद तक गिरे हुए जन्म-दर को अब भविष्य के लिए भी असंभव बना दे ? विडंबना है कि इसी बैगा जनजाति पर , ८० के दशक में, अविभाजित मध्य प्रदेश (तब तक छत्तीसगढ़ का पृथक राज्य निर्मित नहीं किया गया था) के फ़िल्म और सूचना विभाग ने 'बैगा चक' के नाम से अविस्मरणीय वृत्तचित्र का निर्माण किया था. बैगा आदिवासियों के ओझा (चिकित्सक या मेडिकेंट्स) माने जाते हैं. एलियोपैथी, आयुर्वेद, होम्योपैथी से बिल्कुल भिन्न उनकी बनैली वनस्पतियों से चिकित्सा का महत्वपूर्ण ज्ञान है, जिसे अब तक पूरी तरह खंगाला-खोज़ा नहीं गया है. दो साल पहले, जब मैं कुछ समय के लिए इंदिरा गांधी राष्ट्रीय जनजाति विश्व विद्यालय में था उसी दौरान दिल्ली विश्व विद्यालय के एंथ्रोपोलाजिकल विभाग के छात्रों-अध्यापकों ने अमरकंटक/ राजेंद्रग्राम के आसपास के आदिवासियों का सर्वेक्षण किया था. किसी तरह अब तक बचे खुचे बैगाओं की स्त्रियों का बाडी मास इंडेक्स (BMI) संभवत: मध्य प्रदेश-छत्तीसगढ़ ही नहीं, देश के अन्य पिछड़े इलाकों में रहने वाले आदिवासियों से भी नीचे था. हीमोग्लोबिन का स्तर खतरे की सूचना दे रहा था और उनके नवजात शिशुओं का मृत्यु दर (Child Moratality Rate) इस कदर चिंताजनक था कि किसी भी सोचने-समझने वाले मनुष्य की चेतना आक्रांत हो सकती थी.
कैसा लगता है यह जान कर कि उन्हीं बैगाओं की महिलाओं की नसबंदी की गयी और उन्हें मार डाला गया इसलिए कि अब वे भविष्य में इस विकास की होड़ में उन्मादी हो चुकी सभ्यता में अपनी संतानें न पैदा कर सकें ?

बुधवार, 29 अक्तूबर 2014

हिन्दुत्व की पुनर्स्थापना का मकसद



वरुण शैलेश
निरूपमा पाठक को अपनी जान गवां कर जातीय दायरे से बाहर जाकर प्रेम करने की कीमत चुकानी पड़ी थी। निरूपमा झारखंड के कोडरमा की रहने वाली थीं। दिल्ली के भारतीय जनसंचार संस्थान में पत्रकारिता के प्रशिक्षण के दौरान निरूपमा को प्रेम हो गया। लेकिन एक कायस्थ लड़के से प्रेम निरूपमा के ब्राह्मण परिवार को मंजूर नहीं था, और नतीजे के रूप में उनको मौत मिली।
तमिलनाडु में पलाइयार जाति के दलित युवक इलावरसन और पिछड़ी वन्नियार जाति की युवती दिव्या के प्रेमविवाह का अन्त युवक की अस्वाभाविक मौत के रूप में हुआ। 7 नवम्बर, 2012 को राज्य के धरमपुरी जिले के नाथम, कोंडमपट्टी और अण्णानगर की दलित बस्ती पर वन्नियार जाति के लोगों ने सुनियोजित तरीके से हमला कर 268 घरों को जला डाला था। दिव्या के घर वाले इस रिश्ते को किसी भी सूरत में स्वीकार करने को राजी नहीं थे। दिव्या और इलावरसन ने शादी की। लेकिन यह शादी वन्नियार जाति के लोगों को नागवार लगी। वन्नियारों ने पंचायत करके दिव्या को वापस करने का फरमान सुनाया। दिव्या ने इसे नकारते हुए अपने पिता के घर जाने से इनकार कर दिया। इस सामाजिक दबाव के चलते दिव्या के पिता नागराजन को शायद खुदकुशी करनी पड़ी थी। नागराजन की खुदकुशी के बाद वन्नियारों की करीब 25,00 लोगों की भारी भीड़ नाथम, अन्ना नगर और कोंडोपट्टी गांव में घुस कर 268 दलितों के घरों में आग लगा दी। इस हमले के बाद वन्नियार संघम ने पिछड़ी जातियों का एक दलित विरोधी गठबंधन बनाने की कोशिश की। प्रचार किया गया था कि किस तरह दलित युवक पिछड़ी जाति की लड़कियों को बहलाते फुसलाते हैं। यहां तक कि अनुसूचित जाति-जनजाति निवारण अधिनियम (1989) के कथित दुरुपयोग के मद्देनजर उसे कमजोर करने की मांग भी की गई थी। अंतत: दिव्या ने मां के घर लौटने का निर्णय लिया और उसके दो दिन बाद ही इलावरसन को 4 जुलाई 2013 को धरमपुरी में रेलवे पटरी पर मृत पाया गया था। जाहिर है प्रेम की कीमत के रूप में इलावरसन को अपनी जान गंवानी पड़ी थी।
दरअसल, यह साफ साफ समझना होगा कि हिन्दुत्व को बनाए रखने के पीछे का मकसद हिन्दू समाज की संरचनागत, वर्णवादी और जातिवादी ढांचे को बनाए रखना है। इस ढांचे का अर्थ ब्राह्मणवाद में निहित है। लेकिन सत्ता हस्तांतरण के बाद बाबा साहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर ने जो संविधान देश को दिया वह सामाजिक समरता और समानता की पुरजोर वकालत करता है। इससे मनुवादी व्यवस्था का किला ध्वस्त हो रहा है। ऐसे में हिन्दुत्वादी ताकतें तिलमिलाईं हुईं हैं औऱ वो वर्णवादी व्यवस्था को पुनर्स्थापित करने को लेकर तमाम साजिशें रच रही हैं। 16वीं लोकसभा चुनाव में अपने आप को पिछड़ी जाति का सदस्य घोषित कर एक घोर हिन्दूवादी व्यक्ति का प्रधानमंत्री बन जाना एक खास दिशा की तरफ इशारा करता है। महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने दिवंगत पार्टी नेता गोपीनाथ मुंडे की बेटी पंकजा मुंडे की अगुवाई में राज्य के अन्य पिछड़ी जातियों (ओबीसी) से एकजुट होने और न्याय हासिल करने का आह्वान किया तथा भाजपा को सत्ता में लाने को कहा। इस एकजुट होने और न्याय हासिल करने में हिन्दूत्व के स्वार्थ निहित हैं। भाजपा कहती है कि हिन्दुत्व उसके आस्था का सवाल है। मगर असल में, आस्था की आड़ में जातिगत वर्चस्व को मजबूत करने और उसे कायम रखने का हिन्दुत्व जरिया है। इसके स्तम्भों को बनाए रखने के लिए जाति, धर्म और स्त्री की देह को युद्ध के मैदान के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है। तमिलानाडु की घटना इसकी बानगी है। भगवा पार्टी द्वारा ओबीसी जातियों को एकजुट करने का उद्देश्य सिर्फ जातीय ढांचे को कायम रखना है। ओबीसी जातियों का प्रेम जैसे मामलों में दलित समाज के खिलाफ लामबंद होना सवर्ण जातियों लिए सुरक्षा कवच तैयार करता है। इस देश में दलित आदिवासी महिलाओं से होने वाले बलात्कार के ज्यादातर मामलों में सवर्ण अपराधी होते हैं। लेकिन पिछड़ी जातियों में हिन्दुत्व के तत्व को जिंदा कर दलितों आदिवासियों के खिलाफ खड़ा कर दिया जाता है औऱ यही ब्राह्मणवादी समाज को मजबूती देता है। वरना होना तो यह चाहिए की पिछड़ी और दलित जातियां एकजुट होकर न्याय हासिल करने का अपना रास्ता तय करें। लेकिन जब हिन्दूत्व न्याय की परिभाषा तय करेगा तब इसका परिणाम कोडरमा की निरूपमा पाठक और तमिलनाडु में इलावरसन के हत्स के रूप में देखने को मिलेगा। और इससे आगे बढ़कर लव जेहाद का भ्रम खड़ा होगा और दो धर्मों के बीच विलगाव की स्थिति पैदा होगी। यही हिन्दुत्व का असली मकसद है। हिन्दूवादी संगठनों द्वारा लव जेहाद का भ्रम खड़ा करना उसी साजिश का एक हिस्सा है। हिन्दू समाज अपने वर्णवादी चरित्र के चलते अंतरजातीय प्रेम तक को बर्खास्त करता है और हिन्दुत्व के इसी ब्राह्मणवादी चरित्र के कारण निरूपमा को अपनी जान गंवानी पड़ी थी।
दूसरी बात, प्रेम के खिलाफ हिन्दूत्व की भाषा एक है चाहे वह गैर हिन्दू जाति के खिलाफ हो या अल्पसंख्यकों के खिलाफ। उसमें कोई अंतर देखने को नहीं मिलेगा। पिछले कुछ महीनों में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में यह प्रचार किया गया कि मुस्लिम लड़के हिन्दू लड़कियों पर डोरे डालने के लिए सज-धज्जकर कॉलेजों के आसपास घुमते-फिरते हैं। ठीक इसी तरह के बयान तमिलनाडु में इलावरसन के प्रेम के मामले में राजनीतिक पार्टियों के बयान देखने को मिले थे। तमिलानाडु में उस समय पूरे घटना पर पट्टाली मक्कल काची (पीएमके) के अध्यक्ष और पूर्व स्वास्थ्य मंत्री अंबुमणि रामदास के पिता एस. रामदास का बयान गौरतलब था। रामदास का कहना था कि दलिय युवक जींस टी-शर्ट और फैंसी सन-ग्लास लगाकर वन्नियार जाति की युवतियों को बहलाते फुसलाते औऱ प्रेम जाल में फंसाते हैं। हिन्दूत्ववादी संगठव लव जेहाद का भ्रम खड़ा कर महिलाओं पर भी काबू करना चाहते हैं। महिलाओं की आजादी पर अंकुश लगाकर मर्दवादी समाज उसे अपने कब्जे में रखना चाहता है। हिन्दूत्व को पुर्नस्थापित करने के लिए जातिय वर्चस्व औऱ महिलाओं पर काबू किया जा रहा है। इसे रोकने के लिए दलितों, महिलाओं और अल्पसंख्यक समाज को सशक्त करना होगा।

बुधवार, 15 अक्तूबर 2014

रास्ते और वर्चस्व का ढांचा

वरुण शैलेश
आराम तलब की दिल्ली में रहने वाले हम अयप्पन की तकलीफ को महसूस नहीं कर सकते। अगर आने जाने के रास्ते की सुविधा होती तो शायद वह अपने बच्चे को जीवित बचा पाने में कामयाब होते। सड़क और आवागमन के अभाव के कारण वह दूर उपलब्ध चिकित्सा सुविधा तक अपनी पत्नी सुधा को वक्त से नहीं पहुंचा सके। यह घटना पिछले साल जून की केरल के पथनामथिट्टा जिले की है। नोमाडिक आदिवासी अयप्पन की पत्नी सुधा बीमार थीं। लेकिन परिवहन व्यवस्था न होने की वजह से गर्भवती पत्नी को पीठ पर लादकर उन्होंने चालीस किलोमीटर का लंबा सफर तय किया। अपने भारी पेट की पीड़ा के साथ पति की पीठ पर लदने वाली पत्नी का दर्द घने जंगलों से कहीं ज्यादा गहरा रहा होगा। भारी बारिश के बीच कोन्नी के जंगलों को पार करते हुए अयप्पन सुबह पत्नी को लेकर पथनामथिट्टा के ज़िला अस्पताल पहुंचे। बाद में सुधा को कोटट्यम मेडिकल कॉलेज भेजा गया। उनकी जान तो बच गई मगर बच्चा नहीं।
पत्नी सुधा के पास बैठे अयप्पन
इसी तरह रास्ते के बाबत दशरथ मांझी के कड़े परिश्रम को तौलना नामुमकिन है। बिहार में गया जिले के गहलौर गांव के दशरथ की पत्नी फगुनी देवी को पहाड़ पारकर पानी लेने जाना पड़ता था। एक दिन वह फिसलकर गिर गईं। मटका टूट गया और उन्हें गहरी चोट आई। फगुनी देवी को लगी यह चोट दशरथ बाबा को एक संकल्प दे गई। उन्होंने अपनी मजबूत इच्छा शक्ति और छिन्नी-हथौड़ी की बदौलत 27 फुट ऊंचा पहाड़ काटकर 365 फुट लंबा एवं 30 फुट चौड़ा रास्ता बना दिया। उनकी मेहनत ने पहाड़ी को 80 किलोमीटर घुमकर जाने के रास्ते को तीन किलोमीटर में समेट दिया। हालांकि तैयार रास्ता को फगुनी नहीं देख सकीं। अलबत्ता रास्ता बनने से पहले ही वह बीमार पड़ गईं। उन्हें अस्पताल पहुंचाने में पूरा दिन लग गया और यही दूरी फगुनी देवी के मौत का कारण बनी। लेकिन दशरथ के इस अद्यम साहस को मापने का पैमाना हमारी सरकार के पास नहीं है। इस रास्ते को पक्की सड़क में तब्दील करने का नीतीश सरकार के आश्वासन का आज भी बाबा की आत्मा इंतजार कर रही है। एक जैसी इन घटनाओं को बताने का उद्देश्य आने-जाने की सुविधा मुहैया कराने वाली सड़क और कमजोर  समाज को उसकी जरूरत तथा वर्चश्वशाली समूह के हित को समझने का है।
अब हम एक दूसरी तस्वीर देखते हैं। भारत में सड़कों का जाल बिछाने और राजमार्गों के निर्माण के पीछे अंग्रेजों का एजेंडा देश के प्राकृतिक संसाधनों के दोहन का बताया जाता है। उस दौरान उन इलाकों तक रेल पटरियों को विस्तार दिया गया जहां से ब्रिटिश उग्योग के लिए कच्चा माल हासिल किया जा सके। इस बाबत ब्रिटिश काल में रेल व सड़क मार्गों को वैसे दुरुह क्षेत्रों तक पहुंचा दिया गया जिस तरह के हिस्सों में भारत सरकार अपने दोहनकारी ढांचे को अभी तक विकसित नहीं कर पाई है। इन मार्गों और रेल पटरियों को संरचनात्मक रूप से जटिल मगर प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर इलाकों तक विकसित करने का उद्देश्य महज शोषण के सिवाय कुछ और नहीं था। अवलोकन करें तो मिलेगा कि दक्षिण, पश्चिम या पूर्वोत्तर भारत के अलावा देश के उन चुनिंदा पहाड़ी क्षेत्रों में सड़कों या रेल मार्गों का विकास प्राथमिकता के तौर पर किया गया जहां से अंग्रेज व्यापारी ब्रिटेन स्थित अपने कारखानों की जरूरत को पूरा करा सकें। इसमें आवागमन जैसी मानवीय सुविधाओं का तत्व कहीं नहीं था।
मगर 1947 के बाद के भारत में मार्गों को विकसित करने के मकसद में क्या किसी तरह का बदलाव आया ? आधुनिक भारत में भारतीय शासकों ने सत्ता संचालन को लेकर अंग्रेजों के नक्शेकदम को ही अपनाया। ऐसा न केवल कानून व्यवस्था के मामले में हुआ बल्कि शोषण की जितनी तरकीब अंग्रेज शासकों ने गढ़ी थी उसे आत्मसात करने में भारतीय हुक्मरानों ने किसी तरह की हिचकिचाहट महसूस नहीं की। कई मामलों में तो भारत के नीति निर्माता अंग्रेजों से ज्यादा शोषक की भूमिका में दिखते हैं। भारत में आज भी सड़क निर्माण के पीछे का दृष्टीकोण अंग्रेज शासकों के बरक्स ही होकर गुजरता है। यानी देश के जिस हिस्से से आर्थिक लाभ ज्यादा से ज्यादा अर्जित किया जा सकता है उन क्षेत्रों में सड़कों का विस्तार किया गया। आम नागरिकों के सरल आवागमन की व्यवस्था नदारद दिखती है। विकास के नाम पर निर्मित राष्ट्रीय राजमार्ग सुविधा के बजाय शक्तिशाली समूहों के वित्त अर्जन में बढ़ोतरी का जरिया बन रहे हैं। कोयला खदानों का उद्योगपतियों और राजनेताओं को अवैध आवंटन इसकी तस्दीक करती है।
भारत सरकार नक्सल प्रभावित इलाकों में माओवादियों से निपटने की दिशा में विकास को अपना हथियार बताती और इसे अपनाती भी है। इस विकास में सड़कों का निर्माण मुख्य है। जितने क्षेत्रों को माओवाद प्रभावित बताया जाता है वो दरअसल बहुमूल्य प्राकृतिक संपदा से समृद्ध हैं। इन हिस्सों में उद्योगपतियों व्दारा खनिज पदार्थों से लेकर आदिवासियों के जल, जंगल औऱ जमीन तक की लूट खसोट जारी है। इसमें सरकारी मशीनरी मददगार बन रही हैं। आदिवासी आबादी वाले इलाकों में मार्गों को भारी पैमाने पर विकसित करना यही दर्शा रहा है। इसमें राजनीतिक और आर्थिक हित सर्वोपरि है। जाहिर तौर पर इन रास्तों का निर्माण आने जाने का माध्यम नहीं बल्कि वर्चस्वशाली समूह के हित को साधना है। इसमें आम आदमी की सुविधा का सरोकार नहीं है।
जब सवाल सरकार के मंसूबों पर उठने लगे तो फिर उसके ढांचे की पड़ताल अनिवार्य हो जाती है। असल में, सरकार एक विचार की संरचना है। संसदीय लोकतंत्र में इसे समाज का प्रतिनिधि बताया जाता है। मगर सत्ता के इस निर्माण में ऊपर और नीचे के ताकतवर हिस्से की भूमिका हावी रहती है। इसीलिए सत्ता का शीर्ष इन शक्तिशाली समूहों के हितों का ख्याल रखता है। साथ ही अपने लोक कल्याणकारी छवि को बचाने के लिए भी उसे कुछ योजनाओं पर अमल करना पड़ता है। लेकिन इनमें कुछ योजनाएं सत्ता संचालित करने वाले प्राथमिक समूहों यानी गांवों में मौजूद सामंती तत्वों की ताकत को कमजोर करती हैं। लिहाजा यह समूह समाज के कमजोर वर्ग के लिए खड़े होने वाले विकास में अड़ेगे डालता है। विचार की इस संरचना को इस तरह समझा जा सकता है कि एक तरफ सरकार नाम की संस्था ऊपर के वर्चस्वशाली वर्ग को खुशामंद करती है तो दूसरी ओर उसकी संरचना का निचला हिस्सा कमजोर तबके के विकास को रोकने का कुचक्र रचता है। इस सिद्धांत की पुष्टी मेरे गांव के ग्रामीणों का संघर्ष कर रहा है।गांव के लिए सड़क की क्या भूमिका हो सकती है। बेरोकटोक आने-जाने की सुविधा। अथवा आज के संदर्भ को देखते हुए सीधा सा जवाब होगा कि सड़क विकास को पहुंचाने का माध्यम है। मगर पूर्वी उत्तर प्रदेश में देवरिया जिले के खड़ेसर और बिहार में वैशाली जिले के दौलतपुर चांदी गांव के लोगों के लिए सड़क का महत्व इसके रास्ते आने वाले विकास से कहीं ज्यादा आत्मसम्मान की डगर है।
आजादी के साथ वादा किया गया था कि सभी को समान अधिकार हैं, लेकिन छह दशक बाद देश में भले ही तमाम क्षेत्रों में प्रगति के दावे हों, चांद से लेकर मंगल तक की उड़ान की परियोजनाएं कल्पित हों, लेकिन एक अदद हकीकत यह है कि खड़ेसर जैसे हजारों गांवों तक की आवाजाही के रास्ते दबंगों के कब्जे में हैं। गांव के लोग आने-जाने के रास्ते के लिए संघर्ष कर रहे हैं। ऐसा नहीं है कि जनसंघर्ष को देखते हुए किसी जनप्रतिनिधि ने सड़क बनवाने का आश्वासन नहीं दिया है। लेकिन स्थानीय लोगों को आश्चर्य इस बात का है कि कोई अपने वादे पर खरा नहीं उतर पाया है। जबकि ग्रामीणों के आग्रह पर ग्रामसभा की तरफ से सड़क बनी थी, मगर गांव के दबंग उसे भी सुरक्षित नहीं रहने दे रहे हैं। सड़क के बीच से नाली खोद दी है, जिससे सड़क की मिट्टी पानी के साथ बह जा रही है। लोगों की आवागमन के रास्ते को रोकने या उसे नुकसान पहुंचाने का सीधा अर्थ है कि नागरिकों की आजादी को बाधित करना, क्योंकि संविधान अनुच्छेद-19 के तहत सभी नागरिकों को निर्बाध आवागमन का अधिकार देता है।
खड़ेसर गांव में सड़क के सहारे किसी के दरवाजे पर किसी साधन से पहुंचना संभव नहीं रह गया है। गांव में दिक्कत तब बढ़ जाती है, जब कोई बीमार हो जाता है। चूंकि कोई साधन दरवाजे तक नहीं पहुंच पाते हैं, इसलिए मरीजों को अस्पताल पहुंचाने में वे तमाम उपाय अपनाने पड़ते हैं, जो विकास का दावा करने वालों को शर्मिंदा कर दे। माता-पिता अपनी बेटी की विदाई दरवाजे से नहीं कर पाते हैं, लेकिन सार्वजनिक संपत्ति के नुकसान पहुंचाने की इस घटना पर सभी मौना बाबा बने हुए है।
खड़ेसर की तरह बिहार में वैशाली जिले के दौलतपुर चांदी गांव की स्थिति है। बिहार सरकार की संपर्क सड़क योजना के तहत पिछले दस साल से मार्ग निर्माण का काम अटका हुआ है। काफी मशक्कत के बाद थोड़ी सी सड़क बन पायी तो दबंगों ने रात में मशीन लगाकर उसे खोद दिया। दलित बाहुल्य गांव की आबादी के पास निकलने के रास्ते के नाम पर सवर्ण जातियों के खेत किनारे बनी पगडंडी है। इन दोनों मामलों से दो बातें स्पष्ट तौर पर उभरती हैं। पहला, गरीब और दलित जैसे वंचित तबके के लिए विकसित होने वाली सुविधाओं में बाधा खड़ी करते हुए सामंती व्यवस्था को बचाए रखना है। दलित व अन्य वंचित तबके के पास आने-जाने का रास्ता नहीं होगा, तो निश्चित तौर पर सवर्ण या संपन्न तबके के खेत या अन्य संपत्ति से गुजरने की मजबूरी बनी रहेगी। शक्तिविहीन वर्ग में यही मजबूरी वर्चस्वशाली वर्ग के ताकतवर बने रहने का फार्मूला है। यह गरीबों और कमजोरों के खिलाफ एक तरह की नाकाबंदी है, जो संपन्न सवर्ण तबके को दुस्साहसिक बढ़त देती है। यह नाकाबंदी प्रशासन के रूप में पूरी जातिवादी संरचना की तस्वीर को नंगा करती है।

ग्रामीणों के रास्ते पर कब्जे की शिकायत पर कार्रवाई न होना बताता है कि संविधान निर्माताओं की तरफ से देश को सामंती जकड़न से निकालने की कोशिश प्रभावी नहीं हो पा रही है। आजादी का लंबा समय बीतने के बाद आज भी देश में ऐसे कई मौके व जगहें हैं, जहां पहुंचते-पहुंचते संविधान के प्रावधान हांफने लगते हैं और सामंती व्यवस्था पूरी ताकत से जी उठती है। वहीं अयप्पन और दशरथ मांझी का संघर्ष केरल, बिहार और उत्तर प्रदेश के मार्फत बुनियादी सुविधाओं के बंटवारे को लेकर देश को आइना दिखा रहा है। 

साभारः सबलोग 

रविवार, 4 मई 2014

लोकतंत्र के रास्ते में बाधा डाल रहे हैं दबंग


कीर्ति अनामिका
संसदीय राजनीति में चुनाव, लोकतंत्र की प्रक्रिया में जनता की भादीदारी का एक मात्र मौका मुहैया कराता है। इसके जरिये मतदाता को अपनी राजनीतिक आकांक्षाओं को प्राप्त करने और सामाजिक तथा आर्थिक आजादी को कायम रखने वाले प्रतिनिधि को चुनने का अधिकार होता है। लोकतंत्र की नींव मजबूत करने और चुनाव में मतदाताओं की हिस्सेदारी बढ़ाने के मकसद से निर्वाचन आयोग ने लोकसभा चुनाव-2014 में भारी पैमाने पर मुहिम चलाई। आयोग का यह अभियान काफी हद तक सफल भी रहा। आजादी और सुरक्षा को लेकर देश के दलित समाज के लिए चुनाव अहम पड़ाव होता है। इसलिए वंचित समाज का चुनाव में अपनी सुरक्षा और तरक्की का रास्ता मुहैया कराने वाले दलों के प्रति झुकाव बढ़ा है तथा वे बड़े उत्साह से मतदान प्रक्रिया में वोट डालने के लिए उत्सुक होते हैं। लेकिन दलितों का यही उत्साह वर्चस्वशाली समाज को खटकता है। अपने ढांचा और रूढ़िवादी प्रतिमान के चलते ताकतवर समाज दलितों को वोट डालने से रोकने के लिए तमाम साजिशें रचता है।
चुनाव प्रक्रिया संख्याओं का खेल है। जिसके पाले में जितना वोट होगा वह समाज उतना ही सशक्त होगा। संविधान निर्माता बाबासाहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर लिखते हैं कि भारत में किसी समय जनगणना एक सरल और सहज प्रक्रिया हुआ करती थी। जिसमें केवल जनसंख्याविदों को ही रूचि रहती थी। बाकी किसी कोई इसमें दिलचस्पी नहीं होती थी। आज जनगणना पर सभी का अत्यधिक ध्यान जा रहा है। सिर्फ राजनीतिज्ञ को ही नहीं, बल्कि जनसामान्य को भी इसकी चिंता रहती है। इसका कारण ये है कि भारत की राजनीति आज संख्या का खेल बन गई है। संख्या ही वह तत्व है जो एक समुदाय को दूसरे से अधिक राजनैतिक महत्व देती है। ऐसा दुनिया के किसी देश में नहीं होता है। इसका परिणाम है कि जनगणना में इस प्रकार की गड़बड़ी की जाती है, जिससे संख्या के आधार पर राजनीतिक लाभ बटोरा जा सके। जनसंख्या की इसी गड़बड़ी में हिन्दू, मुसलमान और सिखों ने अपनी अपनी भूमिका रसोई घर के मुख्य रसोइये की निभाई है। इसमें अछूत और इसाई भी रुचि ले रहे हैं जिनका जनगणना की कारीगरी में कोई हाथ नहीं है। क्योंकि देश के प्रशासन में उनका कोई स्थान नहीं है जो जनगणना का काम देखता है बल्कि इसके विपरीत हिन्दू, मुसलामन और सिख अछूतों के समूह को जनगणना के आधार पर काटछांट कर अपने साथ गिन रहे हैं। 1940 की जनगणना में खासतौर पर ऐसा हुआ। पंजाब के कुछ विशेष भागों में सिखों ने अछूतों को योजनाबद्ध तरीके से धमाकाया और सताया। उनका इरादा था कि अछूतों को विवश किया जाए कि वे सिख न होते हुए भी जनगणना में अपने को सिख लिखवाएं। इससे अछूतों की संख्या सिकुड़ गई और सिखों की बढ़ गई। हिन्दुओं ने एक अलग से अभियान चलाया कि जनगणना में कोई अपनी जाति न लिखवाए। अछूतों से अपील की गई। उन्हें बताया गया कि जाति का नाम ही यह प्रकट करता है कि वे अछूत हैं। वे अपनी जाति का उल्लेख न करके केवल यही लिखाए की वे हिन्दू हैं तो उनके साथ अन्य हिन्दुओं की तरह बर्ताव किया जाएगा और किसकी को यह पता भी नहीं चलेगा कि वे अछूत हैं। अछूत इस झांसे में आ गए औऱ उन्होंने तय किया कि वे जनगणना में खुद को अछूत न लिखवाएंगे। केवल हिन्दू बताएंगे। नतीजा साफ था कि अछूतों की संख्या घट गई और हिन्दुओं की बढ़ गई।
अब दलित समाज अपनी ताकत को लेकर जागरूक हो चुका है और बड़े पैमाने पर वोट कर रहा है। इससे समाज का सामंतवादी तत्व घबरा गया है औऱ वह हिंसा पर उतारु हो गया जिसके लिए समाज में कोई जगह नहीं है। 17 अप्रैल को बरेली जिले के देवचरा नई बस्ती निवासी हरि सिंह को आम चुनाव में मतदान करने से रोका गया जिसके चलते उन्होंने आत्मदाह कर लिया। हरि सिंह दलित थे और उस दिन उन्हें मतदान केंद्र पर अपमानित किया गया। पत्रकार संगठन जर्नलिस्ट यूनियन फॉर सिविल सोसायटी ने अपनी जांच में पाया कि मतदान केंद्र पर प्रशासन द्वारा जानबूझ कर दलित समुदाय के लोगों को वोट देने से रोकने के लिए एक साजिश के तहत उनके इलाके में मतदाता पर्ची नहीं बांटी गई। ताकि किसी खास प्रत्याशी को चुनाव में लाभ पहुंचाया जा सके। संगठन ने इस मामले की न्यायिक जांच की मांग की है।
इसी तरह झांसी उत्तर प्रदेश में झांसी-ललितपुर लोकसभा क्षेत्र के बजाना गांव में 80 साल के बुजुर्ग की हत्या केवल इसलिए कर दी गई क्योंकि उसने दबंगों को यह नहीं बताया कि वोट किसे दिया है। 30 अप्रैल को दबंगों के वार से घायल जंगी लाल ने 1 मई की देर रात दम तोड़ दिया। उनसे दंबग जानना चाह रहे थे कि उन्हों ने वोट किसे दिया था। उन्हें  मंदिर ले जा कर भगवान की मूर्ति छू कर जवाब देने के लिए कहा गया। जवाब नहीं मिलने पर उन पर हमला किया गया था। मृतक के बेटे रमेश का कहना है कि पहले से ही उनपर एक पार्टी विशेष को वोट देने के लिए दबाव डाला जा रहा था। बाजना में अधिकतर दलित रहते हैं। उसने बताया कि उन पर दबाव बनाया जा रहा था, जो लोग उनकी बात नहीं मान रहे थे, उन्हें बूथ तक पहुंचने ही नहीं दिया गया। 

एक तरफ सरकार सबको वोट देने के लिए प्रोत्साहित करने के नाम पर लोगों से जहां जरूर मतदान करने की अपील करती है। वहीं बूथ लेवल अफसर दलित समुदाय के लोगों को किसी भी तरह वोट नहीं डालने देने के लिए प्रतिबद्ध दिखते हैं। यह एक जातिवादी और गैर लोकतांत्रिक मानसिकता है,  जो लोकतंत्र को कमजोर करती है। 16वीं लोकसभा के चुनाव में अपने मताधिकार का प्रयोग न कर पाने की वजह से हरि सिंह का आत्मदाह करना यह साबित करता है कि चुनाव आयोग सिर्फ अमीर और मध्यवर्गीय तबकों के लिए ही चुनाव बूथ तक पहुंचने का रास्ता सुगम बनाने के लिए अरबों रुपये प्रचार में फूंक रहा है और उसके अधीन काम करने वाले कर्मचारी दलित बस्तियों में मतदात पत्र बनाने के लिए पैसों की उगाही कर रहे हैं। संसदीय राजनीति में चुनाव प्रक्रिया को लोकतांत्रिक तत्वों को स्थापित करने की दलील दी जाती है लेकिन वर्स्वशाली समाज की ये करतूतें लोकतंत्र को कमजोर बना रही हैं। निर्वाचन आय़ोग को यह सब रोकने के लिए उपाय करने होंगे वरना लोकतंत्र कमजोर हो जाएगा।

* लेखिका इतिहास की शोधार्थी हैं।

गुरुवार, 24 अप्रैल 2014

मिशन से गुमराह आकाशवाणी

वरुण शैलेश

पिछले कुछ वर्षों में रेडियो के क्षेत्र में निजी एफएम चैनलों का विस्तार हुआ है। लेकिन इनका अपना श्रोता वर्ग है जो शहरों में रहता है। इन एफएम चैनलों के दायरे में ग्रामीण आबादी नहीं आती। ऐसे में देश की वह 70 फीसदी जनसंख्या जो गांवों में रहती है उसकी सूचना को लेकर निर्भरता आकाशवाणी पर बढ़ जाती है। इस लिहाज से राष्ट्रीय लोक प्रसारक के रूप में आकाशवाणी सभी वर्ग के लोगों को सशक्त बनाने को वचनबध्द है। लेकिन यह तभी मुमकिन है जब सामाजिक दायित्व को ध्यान में रखकर आकाशवाणी प्रसारित किए जाने वाले अपने कार्यक्रमों को तैयार करे। चूंकि इसकी पहुंच देश की अधिकतम आबादी तक है। ऐसे में ऑल इंडिया रेडियो की तस्वीर अपने कार्यक्रमों के जरिए देशभर में मौजूद सभी समुदायों, समूहों, जातियों एवं वर्गीय स्तर पर विभाजित समाज के अभिव्यक्ति की बननी चाहिए। लेकिन मीडिया स्टडीज ग्रुप ने अपने सर्वेक्षण में पाया कि ‘बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय’ के तहत आकाशवाणी जो कार्यक्रम प्रसारित कर रहा है वह उसके तयशुदा लक्ष्यों को हासिल करने के लिए नाकाफी हैं।

देश में आकाशवाणी की होम सर्विस में 299 चैनल हैं जो 23 भाषाओं और 146 बोलियों में कार्यक्रम प्रसारित करते हैं। आकाशवाणी की पहुंच देश के 92 फीसदी क्षेत्र और कुल जनसंख्या के 99.18 फीसदी आबादी तक है। सर्वेक्षण के दौरान आकाशवाणी के समाचार प्रभाग का लिया गया जायजा बताता है कि वह जिन विषय वस्तुओं पर कार्यक्रम तैयार कर रहा है उससे लोकतांत्रिक उद्देश्यों को पूरा कर पाना नामुमकिन है। समाचार सेवा प्रभाग का अंग्रेजी एकांश समाचार प्रसारण के अलावा समसामायिक विषयों पर चर्चा के तमाम कार्यक्रम तैयार करता है। लेकिन प्रसारण के लिए कार्यक्रम तैयार करने के लिए जिस तरह के विषयों का चुनाव किया जाता है वह आकाशवाणी के बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय के एजेंडे पर सवाल खड़ा करता है। दूसरा सवाल- किसान, दलित, आदिवासी, पिछड़े और अल्पसंख्यक जैसे वंचित समाजों के मसलों पर कितने कार्यक्रम बनते और प्रसारित होते हैं। जवाब सिफऱ है। जनता की अभिव्यक्ति बनने के दायित्व को समझने के लिए आकाशवाणी के नागरिक घोषणा और 2011 के दौरान प्रसारिता अंग्रेजी भाषा के कार्यक्रमों की बानगी बदरंग तस्वीर पेश करती है। जाहिर है एआईआर देश की  99.18 फीसदी जनता को धोखा के सिवा कुछ नहीं दे रही है।

निजी मीडिया संस्थानों में वंचित समाज की समस्याएं और कार्यक्रम नदारद रहते हैं लेकिन सरकारी जनसंचार माध्यम की तस्वीर तो उससे भी बदरंग है। सामाजिक तौर पर वंचित समाज को किनारे रखने की रणनीति को आकाशवाणी ने भी बखूबी कायम रखा है।

बहरहाल, ऑल इंडिया रेडियो ने 2011 के दौरान सामयिकी, स्पॉटलाइट, न्यूज एनालिसिस, मनी टॉक, समाचार चर्चा, कंट्रीवाइड और करेंट अफेयर्स के तहत 527 कार्यक्रम प्रसारित किए। मगर इनमें अनुसूचित जाति के मुद्दे पर सात नवंबर, 2011 को सिर्फ एक कार्यक्रम ‘सरकारी नौकरियों में बढ़ती दलित आदिवासी अधिकारियों की संख्या’ को प्रस्तुत किया गया। मतलब इस वर्ग को औसतन 0.19 तरजीह के लायक समझा गया। हालांकि इसे केवल अनुसूचित जाति का मुद्दा कहना भी ठीक नहीं होगा क्योंकि इसके साथ आदिवासी शब्द थी जुड़ा हुआ है जिनकी जनसंख्या आठ फीसदी से ऊपर है। वहीं देश की कुल आबादी में अनुसूचित जातियों की हिस्सेदारी 15 फीसदी से ज्यादा है। इसी तरह आकाशवाणी के कार्यक्रम तैयार करने वालों को आदिवासी सवाल नहीं सुझे या उसे समझा नहीं गया, जबकि यह समाज देश में सबसे संकटग्रस्त समाज है जो अपने अस्तित्व पर चौतरफा हमले का सामना कर रहा है।

इसके अलावा महिलाओं के उत्थान की चिंताओं को लेकर वर्ष 2011 के दौरान महज आठ कार्यक्रम प्रस्तुत किए गए। यानी महिलाओं से संबंधित औसतन 1.52 फीसदी कार्यक्रम प्रसारित किए गए। सामाजिक न्याय और शोषण से संबंधित 2.28 फीसदी कार्यक्रम मतलब सालभर में 12 प्रोग्राम पेश किए गए। खेतिहर मजदूर और श्रमिक वर्ग के कार्यक्रमों को एक श्रेणी में रखा जिसे 1.32 फीसदी महत्व दिया गया और उनके लिए सात कार्यक्रम पेश किए किए गए। ये कार्यक्रम सीधे श्रमिकों पर केंद्रित न होकर सरकारी योजनाओं के इर्द-गिर्द नजर आते हैं। वहीं खेल में क्रिकेट छाया हुआ है जबकि अन्य खेल पर आकाशवाणी का ढुलमुल रुख रहा है। आकाशवाणी ने कम से कम राजनीतिक मगर सत्ता के लिहाज से 89 कार्यक्रम दिए जो औसतन 16.88 प्रतिशत है। विष्लेषण के दौरान अन्य में 15 कार्यक्रम रखें जिसमें सांकृतिक या भाषा आधारित कार्यक्रम हैं।

आकाशवाणी से होने वाले प्रसारणों से आम जनजीवन प्रभावित होता है। देश में रहने वाले सभी धर्मों, समुदायों, समूहों, जातियों एवं वर्गीय स्तर पर विभाजित समाज का जीवन भी उससे जुड़ा हुआ है। इसलिए पूरा देश आकाशवाणी को अपनी अभिव्यक्ति के तौर पर देखता है। साथ ही सार्वजनिक क्षेत्र का लोक प्रसारक होने के नाते उसके राष्ट्रीय कार्यक्रमों का स्वरूप लोकतांत्रिक होना चाहिए। लेकिन कार्यक्रमों का विषय चयन और उसके लिए आमंत्रित मेहमानों की सूची लोक प्रसारक के लोकातांत्रिक होने पर सीधा सवाल खड़ा करते हैं और सर्वे से स्पष्ट होता है कि अपने लोकतांत्रिक होने की घोषणा की आकाशवाणी खुद ही उल्लंघन कर रही है। अगर आदिवासी समस्याओं समेत इन सभी सवालों को दरकिनार कर भी दें तो यह बात दिगर है कि आकाशवाणी के सबसे अधिक ग्रामीण स्रोता हैं लेकिन उनके लिए कोई कार्यक्रम नहीं है। शायद कार्यक्रमों को लेकर नीति तैयार करने वाले लोगों की प्राथमिकता ग्रामीण नहीं हैं।

शुक्रवार, 11 अप्रैल 2014

इन बेबस जानवरों की बलि क्यों?


                                                                                                                                                                                                   योगेंद्र सिंह


छत्तीसगढ़ में राजनंद जिले के छुरिया इलाके में गांव वालों ने जंगल के अफसर की मौजूदगी में एक बाघिन को बड़ी बेरहमी से पत्थर मार - मार कर मौत के घाट उतार दिया। गांव वालों ने ये सब अंधविश्वास के चलते किया। ग्रामीणों का मानना है कि मन में किसी कार्य की इच्छा रखकर किसी जानवर की  पत्थर मार - मार कर बलि देने से मन की इच्छानुसार कार्य पूर्ण होता है। इस प्रकार के और भी कई अंधविश्वासी नज़ारे हमें जगह- जगह देखने को मिल जायेंगे।

हमारे देश में सुकमा, कांकेर, तुमगांव, दंतेवाड़ा, बलौदाबाज़ार, बिलासपुर, नारायणपुर, गरियाबंद, धमतरी, सरईपाली वगैरह कई ऐसे इलाके है, जहाँ अंधविश्वास के नाम पर अत्यधिक लोगो को ठगा जाता है। भूत भगाने या टोनही से छुटकारा पाने के लिए मुर्गा, बकरी, जंगली बिल्ली, सियार जैसे कई जानवरों की बालि दी जाती है। बाघ के खाल, उसके बाल, नाखून, तेंदुएं के दांत वगैरह जिसके पास रहते है, उसके पास भूत, जिन्न भटकते नहीं है। ऐसा अधिकतर लोगों का मानना है। इस अंधविश्वास के कारण न जाने कितने बाघों कि हत्या होती  है और न जाने कितने तेंदुओं को मार गिराया जाता है।
अंधविश्वास फ़ैलाने वाली ज्योतिष की जानकार डॉ. सुनीता द्विवेदी कहती हैं कि तंत्र- मंत्र की साधना के लिए अमावस्य की रात सबसे अच्छा समय होता है। तंत्र साधना में पशु- पक्षियों की बलि अति आवश्यक होती है, क्योकि तंत्र साधना बलि के बगैर अधूरी मानी जाती है। शेर, बाघ, भालू तो आसानी से मिलते नहीं, लेकिन उल्लू आसानी से मिल जाते हैं। वैसे भी तंत्र साधन में उल्लू को विशेष अहमियत दी गई है। तंत्र क्रिया के दौरान उल्लू को मारने के बाद उसका हर अंग अत्यंत कीमती व फलदायी होता है। उल्लू के नाखून ताबीज बनाने के काम आते है। उल्लू कि आँखें विभिन्न बीमारियों की दवा बनाने में प्रयोग होती है और उल्लू के बाल को तिजोरी में रखने से वह कभी खाली नहीं होती है। ऐसे और भी कई अन्य विचार लोगों में चर्चित है।
छत्तीसगढ़ वाइल्ड लाइफ बोर्ड के सदस्य प्राण चड्ढा कहते हैं कि राज्य में बाघों के सरकारी आंकड़े सही नहीं हैं। पिछली बार की अपेक्षा राज्य में 22 से 28 बाघ हैं। लेकिन इस रिपोर्ट पर शक है, क्योंकि इसमें बारनवारा सेंचुरी में 8 बाघों के मौजूद होने के दावे किए गए हैं  जबकि वहाँ मुश्किल से 2 या 3  बाघों के होने की  बात सामने आ रही है। चौकाने वाली बात तो यह है कि पिछले चार वर्षों में टाइगर प्रोजेक्ट के तहत केंद्र सरकार ने तकरीबन 32 करोड़ रुपये दिए हैं, जबकि राज्य का 30 करोड़ का बजट था। इसके बावजूद भी राज्य में बाघों को बचाने के लिए कुछ नहीं किया गया है।

मध्य प्रदेश के बाघों की  हालत बहुत अच्छी नहीं है। पन्ना टाइगर रिजर्व के निदेशक श्रीनिवास मूर्ति ने राज्य सरकार के जंगल महकमे को एक रिपोर्ट भेजी, जिसमे उन्होंने बताया था कि वर्ष 1990 से वर्ष 2011 तक तकरीबन 19 बाघों का शिकार किया जा चूका है। वही मुख्य वन  संरक्षक डॉ. एच. एस. पाबला कि रिपोर्ट श्रीनिवास मूर्ति की रिपोर्ट से अलग है। उनकी रिपोर्ट के मुताबिक़, पन्ना टाइगर रिजर्व में नर बाघों कि तादाद ज्यादा थी, जिससे दबदबे कि लड़ाई के चलते बाघ आपस में लड़कर  घायल हो गए और उनकी मौत हो गई। पन्ना के लोगों का कहना है कि टाइगर रिजर्व से अब तक 36 बाघ गायब हो चुके है। जहां सरकार एक तरफ वन्य जीव व जानवरों के लिए तरह- तरह के प्रयास कर रही है, लेकिन अंधविश्वास के चलते जानवरो की जो हत्या हो रही है। इसकी रोकथाम के लिए सरकार कोई कदम नहीं उठा रही है। जानवरों को बचाने के लिए जरूरी है कि उसकी दहाड़ के दुश्मन बने अंधविश्वास पर रोक लगाने की  दिशा में ठोस कदम उठाये जाएं। केवल एक- दूसरे पर आरोप लगाकर जवाबदेही की नीति न अपनाए। आदिवासी व आस-पास के गांव में जंगली जानवरों को मारने की जो परम्परा है, उसमें जागरूकता लाई जाए।  नहीं तो ढुलमुल रवैये के चलते एक दिन बाघ के साथ- साथ और भी कई पशु- पक्षी व जानवर देखने को नहीं मिलेंगे।

गुरुवार, 6 फ़रवरी 2014

संरक्षण के दायरे से बाहर आदिवासी


                                                                  वरुण शैलेश

देश के विभिन्न हिस्सों में आदिवासी अपने जल, जंगल और जमीन की लड़ाई लड़ रहा है। सत्याग्रह जैसे अहिंसक आंदोलन को लोकप्रिय बनाने वाले महात्मा गांधी के रास्ते पर चलकर भी वह अपनी जमीन बचा पाने में नाकाम है। ध्यान देना होगा कि संसदीय लोकतंत्र में सरकार देशवासियों के अधिकारों की रक्षक होती है। लेकिन सरकार ही अधिकारों की अनदेखी करे या खुद ही शोषणकर्ता की भूमिका में आ जाए, तो नागरिक के लिए सरकार जैसी संस्था पर भरोसा कैसे कायम रह सकता है। भारतीय गणतंत्र में सरकार के सामने इस विश्वास को कायम करने की चुनौती होनी चाहिए, मगर तस्वीर इसके विपरीत बनती दिखाई दे रही है।
देशभर में आदिवासियों को उनकी जमीन से बेदखल करने की नीति को इस बानगी के तौर पर देखा जा सकता है। मध्य प्रदेश में होने वाले सत्याग्रहों की कड़ी में अब पट्टा सत्याग्रह भी जुड़ गया है। यह सत्याग्रह खेती के लिए जमीन का पट्टा हासिल करने के लिए समाज के सबसे कमजोर हिस्से के बैगा आदिवासी कर रहे हैं। डेढ़ साल बीत चुका है, लेकिन सत्याग्रही आदिवासियों को अब तक राज्य सरकार से सिर्फ निराशा ही मिली है। गौर करें तो बैगा, देश के आदिवासियों में सबसे पुरानी जनजाति में से एक है। जनजाति के अस्तित्व को खतरे में जानकर केंद्र सरकार ने इनकी सुरक्षा के लिए अनेक योजनाएं चलाई हैं। इसी के तहत बैंगा जनजाति के लोगों को राष्ट्रीय मानव घोषित किया गया है।
ऐसी घोषणाएं व संरक्षण अभियान खोखले नहीं हैं तो और क्या हैं?   कारण साफ है कि मध्य प्रदेश के मंडला जिले में रहने वाले इन आदिवासियों को वन भूमि पर खेती करने की इजाजत नहीं मिल रही है। बताते चलें कि बैगा आदिवासी वन भूमि पर अलग तरह से खेती करते हैं। वे जमीन को जोतने के लिए हल इत्यादि का इस्तेमाल नहीं करते, क्योंकि वे धरती को मां मानते हैं और उनकी नजर में हल चलाना मां के सीने पर चाकू चलाने जैसा है। लिहाजा, हर वर्ष उनकी खेती का क्षेत्र बदलता रहता है। मंडला में वन विभाग ने आदिवासियों के लिए जंगल में खेती करने पर रोक लगा दी। इसके चलते ये परिवार अपनी परंपरागत खेती से वंचित हो गए हैं। वन विभाग की इस कार्रवाई के विरोध में और भूमि अधिकार की मांग को लेकर मथना गांव के लगभग 40 परिवारों के 140 लोग अगस्त 2012 से ही पट्टा सत्याग्रह कर रहे हैं। सत्याग्रह में महिलाएं व बच्चे भी शामिल हैं। पट्टा सत्याग्रह में शामिल सुशीला बाई का कहना है कि प्रशासन ने न केवल उन्हें वन भूमि पर खेती करने से रोका,  बल्कि उनकी खड़ी फसल को पूरी तरह नष्ट कर दिया है। उनका आरोप है कि वन विभाग ने  कुछ रसूखदार लोगों के इशारे पर जानवरों के जरिए उनकी फसल नष्ट कराई है। सत्याग्रह कर रहे परिवार दिन में एक बार भोजन करते हैं और न्याय हासिल करने जंगल की उसी जमीन पर रातें बिता रहे हैं, जहां पर उनकी उगी हुई फसल को नष्ट किया गया है। आंदोलनकारियों का कहना है कि उन्होंने प्रशासन से जमीन का पट्टा मांगा है, ताकि वे खेती कर अपना भरण-पोषण कर सकें, लेकिन उनकी नहीं सुनी जा रही है। बैगा जनजाति के मुखिया कारेलाल का कहना है कि ग्रामसभा ने उन्हें पट्टा देने का प्रस्ताव पारित किया है। इसके बावजूद उनकी मांग अनसुनी की जा रही है। वे अपनी मांग से मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को भी अवगत करा चुके हैं, मगर इसका भी कोई फायदा नहीं हुआ है। कारेलाल का आरोप है कि वन अधिकार कानून लागू होने के बाद भी उन्हें पट्टा नहीं दिया जा रहा है और उन्हें घरों से बाहर कर दिया गया है। इस स्थिति में उनका जीवन ही संकट में पड़ गया है। ऐसी स्थिति में उनके लिए सत्याग्रह करने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा है। जब तक न्याय नहीं मिलेगा तब तक उनका सत्याग्रह जारी रहेगा। महत्वपूर्ण बात यह है कि बैगा आदिवासी जंगल में रहते हैं और उनका समाज के अन्य वर्गों के साथ कोई सीधा जुड़ाव नहीं है। लिहाजा उनकी आवाज में साथ आने के लिए कोई तैयार नहीं है। सत्याग्रह कर रही राधा बाई कहती हैं कि वे जंगल से बाहर नहीं जाएंगी, भले ही मर जाएं। मंडला के जिलाधिकारी लोकेश जाटव का कहना है कि प्रशासन ने बैगा जनजाति को सामुदायिक भूमि अधिकार दे दिया है, इसमें उन्हें कोई दिक्कत नहीं है। जिला प्रशासन के फैसले को सत्याग्रही परिवार नाकाफी मान रहे हैं। हालांकि पट्टा सत्याग्रह करने वाले आदिवासी जिस साहस का परिचय दे रहे हैं, उससे स्पष्ट है कि वे संघर्ष का मन बना चुके हैं। यदि सत्याग्रह आंदोलन लंबा चला तो राज्य में हक की लड़ाई के लिए अब तक हुए सभी सत्याग्रहों जैसे- जल सत्याग्रह, चिता सत्याग्रह राज्य सरकार को नई चुनौती पेश कर सकता है।
सुनिया बाई मध्य प्रदेश में कटनी जिले के बुजबुजा और डोकरिया गांव के किसानों के लिए चिता सत्याग्रह कर रही थीं। मध्य प्रदेश सरकार से 24 नवंबर, 2009 को हुए समझौते के आधार पर वेलस्पन नाम की कंपनी को इन गांवों में 1980 मेगावाट क्षमता की ग्रीनफील्ड ताप विद्युत परियोजना लगाने की मंजूरी दी गई थी। सरकार दो हजार एकड़ जमीन देने के लिए राजी थी, जिसमें 1400 एकड़ जमीन का बंदोबस्त हो पाया है। इसमें 800 एकड़ सरकारी जमीन शामिल है। बाकी 600 एकड़ जमीन किसानों से अधिग्रहित की जा रही है। किसान इसी का विरोध कर रहे हैं। जमीन अधिग्रहण का विरोध करने की वजह से सुनिया बाई प्रशासन के निशानें पर आ गई और प्रशासन के उत्पीड़न से तंग आकर उन्होंने खुदकुशी कर ली।
सुनिया बाई की खुदकुशी बताती है कि इस लोकतांत्रिक देश में नागरिक को सर्वोच्च बताने का नारा कोरा है। यह उस प्रचारकों के मुंह पर तमाचा है, जो भारत को दुनिया का सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश के रूप में प्रचारित करते हैं।
अखिल भारतीय सेवा के अधिकारी रहे डॉ. ब्रह्मदेव शर्मा अपनी नियुक्ति के दौरान आदिवासियों की तमाम समस्याओं को जाना। डॉ. ब्रह्मदेव शर्मा ने इन्हीं अनुभवों को टूटे वायदों का अटूटा इतिहास के नाम से किताबों की शक्ल दी। यह किताब आजादी के बाद आदिवासियों के सवालों को सामने रखती है। वे लिखते हैं कि आदिवासी इलाकों में विकास के संदर्भ में छोटी-छोटी बातों पर व्यापक दृष्टिकोण व समझ जरूरी है, ताकि प्रत्येक समुदाय की विशिष्ट जरूरतों व समस्याओं को ध्यान रखते हुए विकास कार्यों को लागू किए जा सके। विविधता को खारिज कर सबके लिए एक समान नजरिया ठीक नहीं होगा। आदिवासी समाज किसी विशिष्ट क्षेत्र या रहवास से भावनात्मक तौर पर जुड़ा होता है। यह सोच राज्य की सार्वभौम सत्ता की मान्यता के ठीक विपरीत है। आदिवासी सोच में जमीन संपत्ति नहीं है। उसका प्रबंधन आमतौर पर सामूहिक स्वामित्व और व्यक्तिगत उपयोग की पारम्परिक मान्यता के आधार पर होता है। देश की कानून व्यवस्था से उसे निकाल देने और सामान्य कानूनों को जैसा का तैसा लाद देने की व्यवस्था से आदिवासी समाज कमजोर बना दिया गया है। शासन के स्तर पर जिस बाजारवादी व्यवस्था को तरजीह दी जा रही है, उसमें सीधा सच्चा आदिवासी पूरी तरह संरक्षणविहिन हो गया है।