यह टिप्पणी कहानीकार और उपन्यासकार उदय प्रकाश के फेसबुक वॉल से ली है ताकि देश में संघर्षरत तथा सबसे संकटग्रस्त आदिवासी समाज की स्थिति की एक तस्वीर दिख सके। यह इसलिए भी जरूरी लगा, क्योंकि छत्तीसगढ़ में नसबंदी के कारण जितनी महिलाएं मौत के गाल में समा गईं वह शायद देश में विमर्श का विषय नहीं बनेंगी। आदिवासी समाज को सरकार अपने 'विकास' में बाधक मानती है औऱ उसके लिए उनकी मौत कोई मायने नहीं रखती है। खुद को मुख्यधारा का बताने वाले समाज के मायने सरकार के मायने से तय होते हैं। देखिए!!!
उदय प्रकाश
बिलासपुर मेरे गांव से बमुश्किल दो घंटे की दूरी पर है और पेंड्रा, गौरेला, मरवाही तो लगभग लगे हुए हैं. राजनीतिक तकनीक के लिहाज से मेरा गांव सीतापुर मध्य प्रदेश के सीमांत पर है, उसी तरह, जैसे जहां अब मैं रहता हूं फ़िलहाल- वैशाली, वह उत्तर प्रदेश के सीमांत पर है.
जिस तरह मेरे गांव और कस्बे के लोग अपने-अपने वाहनों में पेट्रोल डीज़ल भराने पेंड्रा या किसी दूसरे ऐसे कस्बे के पेट्रोल पंप में जाते हैं क्योंकि छत्तीसगढ़ एक आदिवासी राज्य है और यहां ईंधन ३ से ४ रुपये प्रति लीटर सस्ता है, वह भी वैसा ही है जैसे मेरे समेत वैशाली के अन्य वाशिंदे अपने-अपने वाहनों में ईंधन भराने के लिए आनंद विहार की ओर जाते हैं, क्योंकि वह राजधानी दिल्ली में है और वहां प्रति लीटर पेट्रोल-डीज़ल सस्ता है.
जब मेरे गांव में कोई बीमार पड़ता है तो अपना इलाज कराने वह बिलासपुर उसी तरह जाता है जैसे वैशाली-गाज़ियाबाद में कोई बीमार दिल्ली के किसी अस्पताल की शरण लेता है.
यही वह बिलासपुर और यही वे गांव हैं जहां गरीब महिलाओं की निशुल्क नसबंदी शिविर में इन पंक्तियों के लिखे जाने तक १३ महिलाओं की मृत्यु हो चुकी है और ५० की हालत गंभीर है. छह घंटे में ८३ आपरेशन कर डालने वाले डाक्टर को इसी साल के गणतंत्र दिवस पर १००.००० (एक लाख) नसबंदी सर्जरी का रिकार्ड बनाने के लिए सरकार पुरस्कृत कर चुकी है., उसी तरह, जिस तरह सोनी सोरी के गुप्तांग में गिट्टी-पत्थर भरने वाले पुलिस अफ़सर को किसी और गणतंत्र दिवस पर शौर्य-सम्मान दिया जा चुका है.
लेकिन आप-हम सब देखेंगे, बल्कि देखते ही रहिये, कि छत्तीसगढ़ की यह घटना राष्ट्रीय स्तर पर किसी बड़ी चिंता या बौद्धिक विमर्श का मसला नहीं बनेगी. यह तो शासकीय स्वास्थ्य सेवा की एक मामूली 'भूल' या 'लापरवाही' भर है.
स्त्री के अपमान की जो घटना दिन रात टीवी चैनलों से लेकर अखबारों के पन्नों पर विचारोत्तेजक बहस का मुद्दा कुछ दिनों तक बनेगी, वह है अली गढ़ मुस्लिम वि.वि. के वाइस चांसलर का एक बयान.
वाइस चांसलर का एक वाक्य इसी देश की १३ महिलाओं की मौत से बहुत बड़ा बौद्धिक विषय है, क्योंकि वह वाक्य ही अकेला 'स्त्री' के प्रति अपमानजनक है.
बाकी और कुछ भी नहीं.
कुछ शब्द और ...
इस भयावह सर्जरी की शिकार हुई गरीब महिलाओं में कुछ उस आदिवासी बैगा जनजाति की हैं, जो विलुप्ति की ओर बढ़ रही हैं और जो 'संरक्षण' की श्रेणी में उसी तरह रखी जा चुकी हैं, जिस तरह अंडमान-निकोबार की जारवा जैसे आदिवासी समुदाय. क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि कोई सरकार जारवा या बैगा की नसबंदी का आयोजन करे, जो उनके पहले से ही खतरे की हद तक गिरे हुए जन्म-दर को अब भविष्य के लिए भी असंभव बना दे ? विडंबना है कि इसी बैगा जनजाति पर , ८० के दशक में, अविभाजित मध्य प्रदेश (तब तक छत्तीसगढ़ का पृथक राज्य निर्मित नहीं किया गया था) के फ़िल्म और सूचना विभाग ने 'बैगा चक' के नाम से अविस्मरणीय वृत्तचित्र का निर्माण किया था. बैगा आदिवासियों के ओझा (चिकित्सक या मेडिकेंट्स) माने जाते हैं. एलियोपैथी, आयुर्वेद, होम्योपैथी से बिल्कुल भिन्न उनकी बनैली वनस्पतियों से चिकित्सा का महत्वपूर्ण ज्ञान है, जिसे अब तक पूरी तरह खंगाला-खोज़ा नहीं गया है. दो साल पहले, जब मैं कुछ समय के लिए इंदिरा गांधी राष्ट्रीय जनजाति विश्व विद्यालय में था उसी दौरान दिल्ली विश्व विद्यालय के एंथ्रोपोलाजिकल विभाग के छात्रों-अध्यापकों ने अमरकंटक/ राजेंद्रग्राम के आसपास के आदिवासियों का सर्वेक्षण किया था. किसी तरह अब तक बचे खुचे बैगाओं की स्त्रियों का बाडी मास इंडेक्स (BMI) संभवत: मध्य प्रदेश-छत्तीसगढ़ ही नहीं, देश के अन्य पिछड़े इलाकों में रहने वाले आदिवासियों से भी नीचे था. हीमोग्लोबिन का स्तर खतरे की सूचना दे रहा था और उनके नवजात शिशुओं का मृत्यु दर (Child Moratality Rate) इस कदर चिंताजनक था कि किसी भी सोचने-समझने वाले मनुष्य की चेतना आक्रांत हो सकती थी.
कैसा लगता है यह जान कर कि उन्हीं बैगाओं की महिलाओं की नसबंदी की गयी और उन्हें मार डाला गया इसलिए कि अब वे भविष्य में इस विकास की होड़ में उन्मादी हो चुकी सभ्यता में अपनी संतानें न पैदा कर सकें ?