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शनिवार, 7 जुलाई 2012

“ईमाँ मुझे खैंचे है तो रोके है मुझे कुफ्र”



(‘मरंगगोड़ा...‘ को पढ़ते हुए)

रणेन्द्र 

महुआ माजी के बहुप्रतीक्षित उपन्यास ‘मरंगगोड़ा नीलकंठ हुआ‘ ने कई कारणों से अत्यधिक उत्सुकता जगा दी थी । एक तो स्थानीय अखबारों में इस उपन्यास के प्रकाशन के एक-दो महीने पूर्व से ही महुआ जी के आधे-आधे पेज के साक्षात्कारों ने उत्प्रेरक का काम किया था । उन साक्षात्कारों की विशेषता यह होती थी कि सारंडा के सघन वन, ‘हो‘ जनजाति, माओवाद एवं अथक शोध की चर्चा तो खूब होती थी किन्तु उपन्यास के मूल विषय जादूगोड़ा के यूरेनियम खनन, विकिरण और उससे दुष्प्रभावित होने वाली पीढि़यों की थीम पर रहस्य का पर्दा रखा जाता था । दूसरी ओर विश्व पुस्तक मेले में लोकार्पण के पहले ही राजकमल प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड द्वारा इस उपन्यास की पांडुलिपि को मैला आंचल-फणीश्वरनाथ रेणु कृति सम्मान प्रदान किये जाने ने उत्सुकता को चरम पर पहुँचा दिया। एक बड़े स्टार की बड़े बजट की भव्य फिल्म के सफलतम प्रदर्शन जैसा माहौल बनाने में दोनों सफल रहे ।

कल्पना का अन्त और यथार्थ की भयावहता
मई, 1998 राजस्थान के पोखरण में एटमी विस्फोट के जरिए जो अतिराष्ट्रवाद का बवंडर खड़ा किया जा रहा था, उसके राजनीतिक निहितार्थ स्पष्ट थे । किन्तु पूरा माहौल, पूरी मीडिया, प्रिन्ट-विजुअल सब राष्ट्रीयता में ‘उब-डूब‘ कर रहे थे । इसके खिलाफ बोलना देशद्रोही होना था । निजाम और नाभिकीय ऊर्जा के पीछे खड़ी पूंजी का यह बहुत ही पुराना और आजमाया हुआ टोटका था जो समय के साथ और धारदार होता गया ।

पोखरण की विकिरणयुक्त धूल अभी बैठी भी नहीं थी कि 14 अगस्त, 1998 के फ्रन्टलाइन में अरून्धति राय के आलेख ‘द एन्ड ऑफ इमेजिनेशन‘ ने ‘भारीजल‘ के बौछार का काम किया। सब साफ हो रहा था, राष्ट्रवाद का गुबार भी ।

अगले ही वर्ष 1999 में श्री प्रकाश (उपन्यास में आदित्य श्री) का वृत्तचित्र ‘बुद्धा विप्स इन जादूगोड़ा‘ प्रदर्शित हुआ, देखने का मौका मिला । विकिरण प्रभावित पीढि़यों की विकलांगता, फेफड़े के कैंसर, बाँझपन, आदि की भयावहता ने राष्ट्र-राज्य के आन्तरिक उपनिवेशवाद के घिनौने चेहरे को आईना दिखाया । जोआर (झारखण्डी ऑर्गनाजेशन अगेंस्ट रेडिएशन) के जादूगोड़ा स्थित कार्यालय में घनश्याम बिरूली (सगेन) एवं जेवियर डॉयस (जॉन डायस) से भेंट और ‘पीली खल्ली-काली करतूत‘ जैसे जेवियर के आलेखों ने यूरेनियम कॉरपोरेशन ऑफ इन्डिया लिमिटेड (यूसीआईएल) के पदाधिकारियों के सफेद झूठ पर से न केवल पर्दा उठाया बल्कि सर्ववंचितों की दबी-कुचली, पीड़ा-दुख, संत्रास-कराह को लगातार बुलन्द आवाज प्रदान की ।
साफ-सुथरी, कार्बन और ग्रीन गैसों से मुक्त वैकल्पिक ऊर्जा के रूप में नाभिकीय ऊर्जा की अपरिहार्यता को गोयबल्स के सिद्धान्त के तहत इतनी बार दुहराया गया कि भारतीय मध्यवर्ग ने इसे सहज स्वीकार कर लिया। इस स्वीकार्यता की पृष्ठभूमि में पंडित नेहरू एवं होमी जहांगीर भाभा का आभा-मंडल भी काम कर रहा था । 2020 ईस्वी तक 20,000 मेगावाट बिजली नाभिकीय ऊर्जा से उत्पन्न करने का लक्ष्य हमने स्वीकार कर लिया है । अप्रैल 2011 में फुकुशिमा के तीन परमाणु संयत्रों में विस्फोट की त्रासदी के बाद भी देश छह नये परमाणु रिएक्टर लगाने की जल्दी में है । तमिलनाडु के कुडनकुलम और महाराष्ट्र के जैतापुर में हो रहे जनविरोध के पीछे देशद्रोही ताकतें और विदेशी पैसा नजर आ रहा है । ऐसे धुँधलके भरे समय में ‘मरंगगोड़ा नीलकंठ हुआ‘ का प्रकाशन हिन्दी जगत के लिए अत्यन्त ही महत्वपूर्ण परिघटना है । विषय के चयन, जनपक्षधरता की विकलता, अछूते-वैज्ञानिक विषय के लगभग हर आयाम पर लेखिका की पकड़ की जितनी प्रशंसा की जाए वह कम होगी । उग्रराष्ट्रवाद, गोपनीयता, कार्बनमुक्त ऊर्जा के तिलिस्म और प्रतिष्ठित वैज्ञानिक संस्थानों के गहन झूठ के खिलाफ हिन्दी में ऐसी कोई कृति मेरी जानकारी में पहले प्रकाशित नहीं हुई ।

यूरेनियम खनन, नाभिकीय ऊर्जा उत्पादन, परमाणु बम एवं विकिरणयुक्त कचरे की आदिवासी इलाकों में डपिंग यूरेनियम विकिरण से जुड़े ये चार यक्ष प्रश्न हैं जिनका आदिवासी जीवन पर पड़नेवाले संहारात्मक कुप्रभाव, पर्यावरण विध्वंस एवं परमाणु निःशस्त्रीकरण जैसे तीन तीक्ष्ण कोणों से पड़ताल किए जाने की आवश्यकता ही मुख्यधारा ने महसूस नहीं की । जबकि ये न केवल झारखण्ड के जादूगोड़ा, मेघालय के खासी हिल्स जिले की समस्या है बल्कि कजाकस्तान, आस्ट्रेलिया, कनाडा, अमेरिका, लैटिन अमेरिका, रूस, उजबेकिस्तान, अफ्रीकी देशों आदि की भी कहानी यही है । हर कहीं पीढि़यों को धीमी-घिनौनी मौत देती जनसंहार की ये अमानुषिक गतिविधियाँ जनजातीय इलाकों में सत्ता प्रतिष्ठानों द्वारा निर्लज्ज भाव से संचालित हो रही हैं । किन्तु हिन्दी के साहित्यकारों की तो छोडि़ए टोही पत्रकारों का भी ध्यान इस ओर कम ही गया है ।

झारखण्डी ऑर्गनाइजेशन अगेन्स्ट रेडिएशन (जोआर) के संस्थापक घनश्याम बिरूली, (उपन्यास में सगेन), फिल्मकार श्री प्रकाश (उपन्यास में आदित्यश्री) एवं चाईबासा में आदिवासियों द्वारा संचालित एक गैर सरकारी संस्था ‘विन्दराई इन्स्टीच्यूट फॉर रिसर्च स्टडी एण्ड एक्शन (बिरसा) के जेवियर डायस (उपन्यास में जॉन डायस) इस उपन्यास के मुख्य पात्र हैं। यथार्थ में इन्ही तीन लोगों के प्रयास से जादूगोड़ा के विकिरण पीडि़त आवाम की लड़ाई न केवल शुरू हुई बल्कि राष्ट्रीय अन्तर्राष्ट्रीय मंचों तक पहुँची एवं यूसीआईएल को कई निरोधात्मक उपाय अपनाने पर मजबूर होना पड़ा।

जादूगोड़ा (उपन्यास में मरंगगोड़ा) हावड़ा-मुम्बई रेल लाइन पर टाटा नगर (जमशेदपुर) रेलवे स्टेशन से 24 किलोमीटर की दूरी पर है । 1967 ईस्वी से यूरेनियम कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड यहाँ की खदानों से यूरेनियम का खनन करवा रहा है जिसका शोधन भी जादूगोड़ा में ही होता है । प्रतिवर्ष तीन लाख रेडियोधर्मी कचरे की डम्पिंग भी इसी इलाके में होती है । खदान से निकलनेवाला कचरा इससे दस गुना ज्यादा यानी तीस लाख टन प्रतिवर्ष होता है ।

सगेन तीन पीढि़यों से इस धीमे जनसंहार का साक्षी है । उसके दादा (ततंग) जम्बीरा, उसके अपा (पिता) रेकोण्डा ने तो बजाप्ता खनिक (माइनर) के तौर पर कार्य किया है । परमाणु ऊर्जा विभाग द्वारा नियंत्रित यूसीआईएल बिना सुरक्षात्मक उपाय जैसे दस्ताने-विशेष ड्रेस आदि के अपने खनिकों को खदानों में उतारता रहा। यूरेनियम की पीली धूल कपड़ों - जूतों पर लिए बेपरवाह - गैर जानकार खनिक घर जाता रहा । पत्नियाँ उन यूरेनियम धूल भरे कपड़ों को नंगे हाथों धोती रहीं । नतीजन सगेन का दादा (ततंग) जम्बीरा और दादी (जियंग) सुकुरमनी पीब-लहू से बजबजाते घाव और कैंसर से मृत्यु के शिकार हुए ।

“खदान के मिल से लगातार निकलने वाले गीले कचरे, जिन्हें बड़े-बड़े पाइपों द्वारा लाकर बनाए गए डैम में डाला जाता, सूख कर सफेद मैदान का शक्ल लेते जा रहे थे । सगेन और उसके साथियों को खेलने की नयी जगह मिल गयी थी ।” (पृ. 91) यह है वैज्ञानिक संस्था की अक्षम्य लापरवाही का एक नमूना जो इलाके में विकलांगता की महामारी लाता रहा ।

सगेन के पिता रेकोण्डा ने कम्पनी के खिलाफ लड़ाई शुरू की, स्थानीय मजदूरों की बहाली की लड़ाई । नतीजन यूरेनियम चोरी-स्मगलिंग के अपराध, देशद्रोह के संगीन आरोप के साथ जेल में भेज दिए गए ।

सगेन अपने ताऊ के यहाँ भेज दिया जाता है जहाँ उसकी फिर से पढ़ाई शुरू होती है । कॉलेज के दिनों में सगेन झारखण्डी आन्दोलनकारी संगठनों के साथ जुड़ता है । सगेन जादूगोड़ा के इलाके में ‘बेरोजगार विस्थापित संघ‘ की स्थापना कर पिता की लड़ाई को आगे बढ़ाता है । बिरसा संगठन का जॉन डायस 1992 के द वल्र्ड यूरेनियम हियरिंग, श्लेजवर्ग, आस्ट्रिया में भाग ले कर लौटा है । उसे यूरेनियम विकिरण की भयावहता का अहसास हो चुका है । कम्पनी की नौकरी के प्रशिक्षण के दौरान सगेन भी यूरेनियम, विकिरण, अल्फा, बिटा, गामा किरणें, ऊतकों को भेदने की क्षमता की गहन जानकारी प्राप्त करता है । सगेन के साथ पाठक भी इस वैज्ञानिक विषय से परिचित होते हैं ।

जॉन डायस और सगेन कुछ मित्र डॉक्टरों की मदद से मरंगगोड़ा (जादूगोड़ा) के आसपास के गाँव-टोले में स्वास्थ्य सर्वेक्षण करवाते हैं । परिणाम के आधार पर लड़ाई आगे बढ़ती है । लड़ाई को और प्रामाणिक बनाने के लिए आन्दोलनों पर वृत्तचित्र बनाने वाले आदित्यश्री को मरंगगोड़ा आमंत्रित किया जाता है । कथा आदित्यश्री, उसके वृत्तचित्र ‘बुद्धा विप्स इन जादूगोड़ा‘ के निर्माण, जापान के विभिन्न शहरों में उसके प्रदर्शन, उसकी जापानी प्रेमिका मोमोका, सारंडा के माओवाद पर अध्ययन के लिए लन्दन से आई प्रज्ञा आदि के सहारे आगे बढ़ती है और अब तक उपेक्षित, अनदेखे नरक का द्वार झटके से खोल देती है । अन्तर्राष्ट्रीय मंचों-कार्यक्रमों में आदित्यश्री तथा सगेन की भागीदारी के बहाने पाठक पूरी दुनिया के जनजातीय इलाकों में सत्ता और पूँजी प्रतिष्ठानों द्वारा जबरन पैदा किए जा रहे नरक के कई संस्करणों से परिचित होता है । वह शिद्दत से महसूस करता है कि जापान का हिरोशिमा-नागासाकी अमेरिका का थ्री माइल आइलैंड न्यूक्लियर पावर प्लान्ट एक्सीडेंट, चेरनोबिल, फुकुशिमा के रास्ते मानवता और उसकी  माता पृथ्वी को नष्ट करने की कोशिशें निरन्तर जारी हैं।

महुआ माजी की यह सशक्त वैचारिक रचना अपनी सघनता और बहुआयामी विस्तार के साथ विषय की आतंककारी भयावहता एवं वैश्विकता से सुपरिचित करवाती, उद्वेलित करती है । यही इसकी सफलता है और लेखिका की परिश्रमी लेखनी का सुफल भी ।

यूनानी काव्यशास्त्री लोंजाइनस ने कहा था कि “पूर्ण निर्दोषता टुच्ची रचना का गुण है, उदात्त रचना का नहीं।” स्पष्ट है कि श्रेष्ठतम रचनाएँ भी निर्दोष नहीं हुआ करती । एक पाठक के नजरिए से ‘मरंगगोड़ा नीलकंठ हुआ‘ के पाठ में जो बातें खटकती हैं उनका उल्लेख भी जरूरी लगता है ।

‘पैचवर्क‘ भी एक कला है

कई सुधीजनों को फॉर्मेट-शिल्प के ख्याल से इसे उपन्यास मानने में कठिनाई हो सकती है । निबंधात्मकता इस पुस्तक की सबसे बड़ी समस्या है या सबसे बड़ा गुण, इसे तय करना कठिन है । विषय इतना जटिल, इतना संश्लिष्ट और वैज्ञानिक सूचनाओं से जुड़ा है कि इसे कथात्मकता में बाँधना एक दुष्कर कार्य था । घनश्याम बिरूली और श्रीप्रकाश के पास लगभग डेढ़ दशक से काम करते-करते पुस्तकालय भर सामग्री एकत्रित हो गई है। इंटरनेट पर तो इस विषय पर हजार पृष्ठों की सामग्री उपलब्ध है । लेखिका इनमें से अधिकतम का उपयोग करने का लोभ संवरण नहीं कर पाईं हैं । साथ ही विषय की विशिष्टता और महत्ता का लेखिका को इतना जबरदस्त अहसास है कि वे बिंदास तरीके से अखबारी कतरनों का भी सीधे-सीधे उपयोग करते दिखती हैं। उदाहरणार्थ पृ. 201 पर संदीप पाण्डेय की पदयात्रा का विवरण नाम-तिथि सहित। सुनीता नारायण का प्रेस वक्तव्य पृ. 364 । शैलेन्द्र महतो की पुस्तक ‘झारखण्ड की समरगाथा‘ में ‘जंगल आन्दोलन‘ (पृ 263-270), चांडिल गोलीकांड (पृ. 262) गुवा गोलीकांड आदि सविस्तार वर्णित है । वरीय पत्रकार अनुज कुमार सिन्हा भी प्रभात खबर में इन पर श्रृंखलाबद्ध आलेख प्रकाशित करते रहे हैं। इनका भी अधिकतम उपयोग लेखिका ने कर लिया है । डॉ बी. वीरोत्तम के ‘झारखण्ड: इतिहास और संस्कृति‘ एवं दमयन्ती सिंकु की पुस्तक ‘सिंहभूम के शहीद लड़ाका हो‘ से ‘हो इतिहास के उद्धरण, इतिहासकार डॉ अशोक कुमार सेन का आलेख तो पात्रों के संवादों में सीधे उद्धृत हैं आदि । हालाँकि लेखिका ने पुस्तक के अन्त में इन उद्धरणों के लिए लेखकों-सम्पादकों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित की है किन्तु ये सारे उपक्रम इसकी निबंधात्मकता को ही सघन करते हैं ।

इन निबंधों का पैचवर्क इतना ज्यादा हो गया है कि जम्बीरा-मन्जारी, सगेन-चारिबा, आदित्यश्री-मोमोका, आदित्यश्री-प्रज्ञा की कथाएँ ही पुस्तक की वैचारिकता का रसभंग करती नजर आती हैं । सच तो यह है कि भयावह यथार्थ से जुड़ी सूचनाओं की डपिंग का भार इतना ज्यादा हो गया है कि संवेदना उसे झेल नहीं पाती, कराहती दिखती हैं । कथा साहित्य में संवेदना और सूचना का संतुलन साधना एक अत्यन्त दुष्कर कार्य है जो कठिन श्रम और समय की माँग करता है । इस मोर्चे पर लेखिका थोड़ी सी चूकती हुई लगती हैं ।

उत्तर आधुनिकता के इस कठिन दौर में संश्लिष्ट यथार्थ को कलात्मक रचना में ढालने का बखूबी अंजाम कई वरिष्ठ, समकालीन एवं नये रचनाकार देते रहे हैं । सूची बहुत लम्बी हो सकती है किन्तु इस सन्दर्भ में संजीव का ‘जंगल जहाँ शुरू होता है‘, मैत्रेयी पुष्पा की अल्मा कबूतरी‘ राजू शर्मा का ‘विसर्जन‘, उदयप्रकाश का ‘मैंगोसिल‘, गीत चतुर्वेदी की ‘पिंक स्लिप डैडी‘, मनोज रूपड़ा के ‘प्रतिसंसार‘, कुणाल सिंह के ‘आदिग्राम उपाख्यान‘ आदि को देखे जा सकते हैं । ये सारे रचनाकार सूचनाओं को अपने मानस के ‘मेल्टिंग पॉट‘ में पहले पिघलने देते हैं । सच है कि इसमें कई वर्ष लगते हैं । किन्तु उसके बाद जो ढल कर निकलता है वह मुकम्मल रचना होती है, जिसमें ढूँढे भी ‘पैच वर्क‘ नहीं मिलते ।

भाषा का तमाशा

इस रचना की दूसरी बड़ी समस्या संवादों का तत्सम प्रधान होना है । संवाद सगेन के दादा जी (ततंग) बोल रहे हों या दादी बोल रही हों, चारिबा बोल रही हो या लन्दन से शोध करने आई प्रज्ञा सबके-सब, बोल-चाल में तत्सम प्रधान हिन्दी का प्रयोग करते हैं ।

सगेन के दादा जी जम्बीरा, दादी सुकुरमनी, मेन्जारी, साथी चारिबा, जब त्यागी-महात्मा, किंवदन्ती पुरूष, वीर, स्वाभिमानी, उदारता, प्राणियों, उल्लंघन, कुकृत्य आदि शब्दों का प्रयोग करते हैं तो असहजता उभरती है। लन्दन से आई ‘प्रज्ञा‘ जो बताती है उसकी हिन्दी अच्छी नहीं है लेकिन उसके संवाद में भी कोई सावधानी नहीं बरती गई है । प्रज्ञा तो कभी-कभी ऐसी प्राञ्जल हिन्दी बोलती दिखती है कि जयशंकर प्रसाद भी शरमा जायें। किसी पात्र के उच्चारण वैशिष्ट्य की झलक पूरी पुस्तक में कहीं भी नहीं मिलती ।

वीर भारत तलवार ने अपनी युवावस्था के कई महत्वपूर्ण वर्ष सिंहभूम-खूँटी-पंचपरगना के इलाकों में घूमते-संघर्ष करते बिताई है । अपनी पुस्तक ‘झारखण्ड के आदिवासियों के बीच‘ में उन्होंने एक पूरा अध्याय ‘आदिवासियों के हिन्दी के कुछ विशिष्ट प्रयोग‘ पर लिखा है । जिसमें उनकी हिन्दी शब्द-उच्चारण के खास लहजे एवं विशिष्ट वाक्य विन्यास को खोला गया है ।

आदिवासी पात्रों के संवाद, खास अन्दाजे बयां, कहन की खूबसूरती देखनी हो तो रोज केरकेट्टा के संग्रह ‘पगहा जोरी-जोरी रे घाटो‘ की कहानियों को पढ़ना चाहिए । नई पीढ़ी के कथाकारों के सिरमौर पंकज मित्र की कहानियों में उत्तरी छोटानागपुर की बोली खोरठा के उच्चारण, शब्दों के खास बलाघात, उससे उभरी ध्वनि की खूबसूरती को परखा जा सकता है जो उनकी कहानियों की खास पहचान, सिगनेचर ट्यून बन गयी हैं ।

इस पुस्तक के संवादों के तत्सम प्रधान होने के दो कारण समझ में आ रहे हैं । लेखिका की मातृभाषा बांग्ला में तत्सम शब्द घुले मिले हैं । वहाँ वे सहज रूप से समाहित हैं। अतएव उन्हें झारखण्ड-सिंहभूम के पात्रों के संवाद में भी वे कहीं से अटपटे नहीं लगते । दूसरी बात उपन्यास के लिए शोध के दौरान पुस्तकाकार रूप में या इन्टरनेट से प्रिन्ट के रूप में जो सामग्री लेखिका को मिली वह अंग्रेजी में थी । शब्दकोश से आई अनुवाद की भाषा स्वाभाविक रूप से तत्सम ही होगी। लेकिन इसी पुस्तक की पांडुलिपि को ‘फणीश्वरनाथ रेणु कृति सम्मान‘ से सम्मानित किया गया है । शायद जन्नतनशीन शख्सीयतों के साथ मजाक की नयी रिवायत चल पड़ी है ।

‘हो‘ समुदाय का मानवशास्त्र

न जाने क्यों ऐसा लगा कि पुस्तक के प्रारम्भ के लगभग डेढ़ सौ पृष्ठों में लेखिका ‘हो‘ समाज की एक-एक प्रथा-परम्परा के बारे में बताने के लिए आतुर हैं । ऐसा भान होता है कि इन प्रथाओं से परिचित करवाने के लिए ही कहानी गढ़ी जा रही है । पृष्ठ 34 से 37 तक सगेन के दादाजी जम्बीरा के विवाह की एक-एक रस्म पृष्ठ- 38 से 39 तक बच्चे के जन्म की रस्म, पृष्ठ 41 में एकसिया संस्कार और पृष्ठ 50 से 51 मृत्यु और अन्तिम संस्कार के विवरण ।  यहाँ साफ तौर पर पाठक को जबरन एंथ्रोपोलॉजी पढ़ाने का कार्य-व्यापार का अहसास होता है ।

महुआ माजी अपनी ‘हो‘ शब्दावली ज्ञान से इतनी अभिभूत हैं कि प्रथम पृष्ठ में ही उसकी बौछार पाठक को सचेत कर देती है । पृष्ठ 11 पर प्रयुक्त शब्द ‘मोतायेन‘ के लिए मैंने दमयन्ती सिंकु की कजि-बुरू: हो-हिन्दी शब्दकोश की शरण ली । वहाँ भी उसका अर्थ नहीं मिला तो मुण्डारी टुड कोठारि (मुण्डारी शब्दकोश) की शरण में गया लेकिन वहाँ से भी कोई सहारा नहीं मिला ।    लेकिन एक सवाल मन में यह भी है कि अगर जादूगोड़ा (मरंगगोड़ा) के मुख्य निवासी संताल हैं तो उनकी संस्कृति पर लेखिका की लेखनी ने कृपणता क्यों बरती है ? भूमिज एवं अन्य समुदाय भी सिरे से गायब हैं । गैर-आदिवासी भी महरूम है चर्चा से । सिंहभूम के पूर्व निवासी सराक और भूईयाँ का तो केवल उल्लेख करके छोड़ दिया गया है ।

वैचित्र्य का आग्रह

वीर भारत तलवार अपने लेखन और व्याख्यानों में भी आदिवासी इलाकों में ट्रिप लगा कर लिखने वालों के खिलाफ कड़ी टिप्पणियाँ करते रहे हैं । अपनी पुस्तक ‘झारखण्ड के आदिवासियों के बीच‘ के पृ. 437 पर तो वे महाश्वेता देवी की इस प्रवृति के विरूद्ध ही कड़ी टिप्पणी करते हैं।

स्वाभाविक है कि सोद्देश्य घूमना भी हमारे भीतर पर्यटकीय भाव जगाता है और वैचित्र्य के प्रति आकर्षण जगाता है । वही आकर्षण अनायास इस रचना में भी आया है । उदाहरण के तौर पर भोजन में भात के साथ ‘लाल चीटों की चटनी‘ (पृ. 24), भुने पंखहीन फतिंगे के साथ भुना भात (पृ. 128) आदि । यह आदिवासी समाज का दैनंदिन का भोजन नहीं है । यह समय-परिस्थिति विशेष का, कभी-कभार का भोजन है । यह लेखिका भी जानती हैं किन्तु वैचित्र्य के आग्रह के कारण यह विवरण पुस्तक में इस रूप में आया है मानो यह आदिवासियों का रोजमर्रा का भोजन हो । आखिर आदिवासी हमसे अलग जो ठहरे ।

उसी प्रकार आदिम एवं अल्प संख्यक बिरहोड़ों के प्रति जो बड़े आदिवासी-गैर आदिवासी समुदायों की हिकारत भरी किंवदन्तियाँ-अफवाहें हैं वे यथार्थ-वर्णन के रूप में आई हैं । सच तो यह है कि बन्दर खाते या अपने बुजुर्गों को मार कर खाते न सुना गया न देखा गया । यह धिक्कार-घृणाभाव समाज के स्तरीकरण का परिणाम भर है इसे समाजशास्त्री लेखिका से बेहतर कौन जान सकता है ।

असुर इस इलाके के सबसे प्राचीनतम अधिवासी हैं, जिन्हें पहले मुण्डाओं ने पराजित किया फिर उराँवों ने । पराजित कौमों को खल-राक्षस साबित करना हर वर्चस्वशील संस्कृति की खासियत रही है यही मुण्डाओं के सोसोबोंगा गीतिकथा का सत्य है । लेखिका इस विश्लेषण में नहीं जाती । नयेपन के आकर्षण में सुनी-सुनाई बातों, किंवदन्तियों, घृणा-धिक्कार भाव को हुबहू प्रस्तुत कर देती हैं ।

नाजुकी उनके दामन की क्या कहिए

यूरेनियम के खनन, नाभिकीय ऊर्जा, परमाणु बम एवं विकिरणयुक्त कचरा का निपटान इतने वृहद् और इतने मानवीय विषय हैं कि ईमानदार विश्लेषण के क्रम में पूरी दुनिया का सत्ता तंत्र और पूंजी तंत्र नंगा नजर आता है । कल्याणकारी राज्य, समता-आजादी-भ्रातृत्व पर आधारित जनतंत्र, हाशियाकृत समुदायों के मानवाधिकार हनन के विलाप से दिगन्त गूँजाती मीडिया, प्राण और देह की आजादी, हरेक को गरिमा पूर्ण जीवन जीने का हक आदि-आदि सबके सब प्राणहीन खोखले शब्द मात्र हैं, बस बातें हैं और बातों का क्या ? केवल जादूगोड़ा ही क्यों दुनिया के हर यूरेनियम उत्पादक देशों का आदिवासी इलाका ‘बलि दिया हुआ क्षेत्र‘ में बदल दिया गया है जहाँ उपर्युक्त चारों गतिविधियाँ अनवरत चल रही हैं ।

जादूगोड़ा (मरंगगोड़ा) में न केवल वहाँ के यूरेनियम खानों और मिल के विकिरण युक्त कचरे की डम्पिंग होती है बल्कि यूरेनियम की पीली खल्ली जादूगोड़ा से ‘न्यूक्लियर फ्यूल कॉम्पलेक्स‘, हैदराबाद पहुँचती है । प्रसंस्करण के बाद हैदराबाद से भी विकिरण युक्त कचरा लाकर पुनः जादूगोड़ा में ही डम्प होता है । इसके अलावे बी.आर.सी. रेफर मटेरियल्स प्लान्ट, मुम्बई एवं देशभर के चिकित्सा केन्द्रों के विकिरणयुक्त कचरे भी यहीं आ कर डम्प होते हैं । यह होता है खालिस ‘बलि दिया हुआ क्षेत्र‘ । मुख्यधारा के नागरिकों के स्वास्थ्य के साथ क्यों खिलवाड़ किया जाए उसके लिए आदिवासी तो हैं ही । जेवियर डायस, घनश्याम बिरूली इसे जेनोसायड मानते हैं जो कथित ‘राष्ट्रीय‘ नाभिकीय नीति का अन्तरंग हिस्सा है । यह तथ्य एक अलग तरह की तीक्ष्णता, टकराव, तनाव, संवेदना की माँग कर रहा था । स्वाभाविक है इसके बाद निजाम से सीधे टकराहट होती । ऐसे अप्रिय सवालों के अति तीक्ष्ण नोकों को ढ़ंका नहीं जा सकता । यह रचना ऐसे टकराहटों विवादों से बचने की कोशिश करती जान पड़ती है ।

मेघालय के खासी हिल्स जिले के छात्र-युवाओं-एक्टिविस्टों ने अनवरत संघर्ष कर 1990 में अपने यहाँ के यूरेनियम खानों को बन्द करवा दिया जबकि उस खनन के पक्ष में स्वयं पूर्व राष्ट्रपति एवं न्यूक्लियर वैज्ञानिक श्री ए.पी.जे अबुल कलाम खड़े थे । अतः इस प्रसंग से भी यह रचना किनारा करती है । विवादों में कौन पड़े ?

यूरेनियम या रेडियोधर्मी धातुओं से जुड़ी तीन लड़ाइयाँ दशकों से लड़ी जा रही हैं । पहली लड़ाई तो यूरेनियम के खनन को ही बन्द करने के सवाल को लेकर है, दूसरी लड़ाई खनन, कचरे, डम्पिंग का आदिवासी समुदायों के संहार और पर्यावरण विनाश से जुड़ी है । अन्तिम और तीसरी लड़ाई परमाणु निरस्त्रीकरण को लेकर है जिससे शोवेनिज्म, निजाम और पूँजी ज्यादा गहराई से जुड़ी है । यह रचना इस तीसरे सवाल पर सायास चुप्प सी रहती है ।

झारखण्डी ऑर्गनाइजेशन अगेंस्ट रेडिएशन (जोआर, उपन्यास में मोआर) 24 फरवरी 2004 को टूट गया । जेवियर डायस (जॉन डायस) वापस बिरसा संस्था में लौट गये । इन्टरनेट पर जेवियर डायस बनाम घनश्याम बिरूली एवं श्रीप्रकाश के टकराव पर कई सामग्री, आरोप-प्रत्यारोप सप्रमाण उपलब्ध हैं । दरअसल इन्हीं मानवीय टकरावों-अन्तद्र्वन्द्वों में, ईष्र्या-द्वेष, लोभ-लालच के बीच जिन्दगानी धड़कती है । यहीं कथा के सच्चे सूत्रों से भेंट होती है । कथारस का सोता इन्हीं द्वन्द्वों-तनावों से फूट कर निकलता है । किन्तु लेखिका यहाँ भी दामन बचा कर निकल लेती हैं।

घनश्याम बिरूली (सगेन) और उनके साथियों के सक्रिय होने के दशकों पहले 1979 में नक्सली नेता सत्यनारायण सिंह ने इस इलाके में ‘इन्डियन फेडरेशन ऑफ ट्रेड यूनियन‘ को सक्रिय किया था । सबसे पहले इसी संगठन ने ‘राखा कॉपर माईन्स‘ में खनिकों के लिए ‘रेडिएशन भत्ता‘ की माँग की थी । किन्तु नक्सल सहानुभूति के ठप्पे से बचने के लिए इस घटना का उल्लेख तक इस रचना में कहीं नही है ।

कामरेड सत्यनारायण सिंह की तो छोडि़ए लेखिका को अरून्धति राय के नाम लेने से भी परहेज है । केवल संकेत से काम चलाया गया है । (पृ. 200)

वामपंथी फिल्मकार आनन्द पटवर्द्धन यहाँ अनूप पटवर्द्धन के रूप में प्रकट होते हैं (पृ. 201) । जबकि सेलीब्रिटी एक्टिविस्ट सुनीता नारायण, रमन मैग्ससे पुरस्कार विजेता संदीप पाण्डेय क्रमशः पृ. 364 एवं पृ. 201 पर अपने सही नाम-धाम-काम के साथ मौजूद हैं ।

मेघा पाटेकर को सुमेधा पाणिकर क्यों बनना पड़ा ? (पृष्ठ 181) राँची की प्रतिष्ठित- जझारू पत्रकार-लेखिका वासवी किड़ो क्यों पल्लवी में तब्दील हुई ? जबकि शैलेन्द्र महतो, स्व. देवेन्द्र माँझी, मचुआ गगराई, सुले पूर्ति, निरल इनेम होरो, स्व. विनोद बिहारी महतो, दिशम गुरू शिबू सोरेन जैसे ढेरों लोग अपने सही नाम-काम के साथ रचना में यत्र-तत्र उपस्थित हैं। इस कृति में ‘नाम‘ उल्लेख भी सुचिन्तित, योजनाबद्ध, राजनीति-रणनीति के तहत लगता है । जिनका भविष्य में अब उपयोग नहीं होना उनका नाम परिवर्तित कर दिया गया है । जिनसे भविष्य में लाभ होना है वे अपने पूरे नाम-धाम के साथ मौजूद हैं । जिनसे विवादास्पद होने का भय है उनके नाम लेने से भी परहेज किया गया है ।

प्रज्ञा की दुविधा या लेखिका की

लन्दन से माओवाद पर समाजशास्त्रीय शोध करने आई प्रज्ञा सारंडा का पर्यटकीय भ्रमण कर ही सब कुछ जानना चाहती हैं । सारंडा भ्रमण के क्रम में चारिबा, हत्या आदि कुछ घटनाओं का उल्लेख करती है और बातचीत में ग्रामीणों के शोषण उनकी नक्सलियों के प्रति सहानुभूति, नक्सली नेताओं की गिरफ्तारी आदि की सूचना भी सामने आती है । (पृ. 286)

उसके बाद एक अध्याय ‘फायर ऑफ द फॉरेस्ट‘ में सारंडा की अशान्ति पर चिन्ता जताते हुए अखबारी कतरनों की सूची-विवरण प्रस्तुत किया जाता है । अब तक शोधार्थी माओवाद से फिसलकर उग्रवाद पर पहुँच चुकी है । एक नक्सली नेता का इनकाउटंर, पुलिसकर्मियों का जीप उड़ाया जाना, कुछ सैद्धान्तिक-सूचनात्मक बातें बस। माओवाद, नहीं उग्रवाद पर शोध खत्म।

माओवाद पर प्रोजेक्ट करने की दुविधा बस यही है कि यहाँ कोई बीच का रास्ता नहीं हो सकता । दामन की नजाकत नहीं बचाई जा सकती । अगर आप जनपक्षधर होंगे, ‘पोलिटिकली करेक्ट‘ होना चाहेंगे तो निजाम की आँखों की किरकिरी हो जायेंगे । दूसरी ओर सत्ता-प्रतिष्ठान और कॉरपोरेट नियंत्रित मीडिया की सुनेंगे तो उग्रवाद और हिंसा के अलावा कुछ और दिखेगा ही नहीं । साथ ही जनपक्षधरता की छवि भंग होने का खतरा अलग । खतरे दोनों हालत में हैं। अतः बेहतर यही है कि माओवाद के बदले मरंगगोड़ा की महिलाओं की सामाजिक स्थिति पर प्रोजेक्ट किया जाए।

बदशक्ल और बदअक्ल लोग ब्रान्ड एम्बेस्डर नहीं हुआ करते

एशिया का सबसे सघन वनों में एक ‘सारंडा‘ वैसे सैलानियों के लिए जिन्हें थोड़ा सा ऐडवेंचर, थोड़ी सी खतरे से खेलने की चाह रही हो उनके लिए दुर्दम्य आकर्षण केन्द्र रहा है। प्रज्ञा, आदित्यश्री, चारिब और अभिषेक के साथ पाठक पृष्ठ 225 से 326 तक लगभग सौ पृष्ठ तक सारंडा की यात्रा करता रहता है । एक ही यात्रा में मयूर, हिरण, हाथी, जंगली भैंसे सबसे भेंट होती है । पलाश के नारंगी और सखुआ फूलों के श्वेताभ सौन्दर्य से मदमाता जंगल, झरने का अलौकिक संगीत और प्रकृति की लुका छिपी । बीच-बीच में ‘हो‘ लोक कथा, इतिहास, लको बोदरा की वारड्चिति लिपि से भेंट, यही तो है झारखण्ड पर्यटन विभाग का अतुल्य-अद्वितीय झारखण्ड, रूमानी निगाहों से फील गुड करवाता, आमंत्रण देता, लुभाता । 

उफ यह नशा: भाग डी के बोस

यह रचना कथारस को गति देने के लिए जापानी युवती मोमोका-आदित्यश्री और प्रज्ञा-आदित्यश्री के प्रेम-प्रसंगों को पतवार बनाती है । मोमोका-आदित्यश्री और जापान में उतरा हुआ वसंत, सकुरा फूल की खूबसूरती एक बेहतरीन रूमानी परिवेश रचते हैं । किन्तु प्रज्ञा की मुखर यौनिकता अखरती है ? यहाँ कहन में घुली-मिली नहीं अलग से रेखांकित होती हुई यौनिकता मौजूद है यथाः “बंजर कहाँ ? देखकर तो लगता है अभी अभी जागी है अलसाई नींद से ! ”प्रज्ञा सोचती है,“ जरूर किसी के इन्तजार में अपनी देह बिछाए तैयार पड़ी होगी ।” प्रज्ञा के होठों पर शरारती मुस्कुराहट उभरती है ।” कौन हो सकता है वह शख्स ? अच्छा, अच्छा समझी ! हल ! हल का स्पर्श पाने को ही बेचैन होगी इसकी कामुक देह ! ... और उसका कोमल स्पर्श पाते ही अथवा उसके द्वारा क्रूरता से रौंदे जाते ही पैदा करेगी फसल !” (पृष्ठ 262)

प्रज्ञा-आदित्य के सेन्सुअस संवाद के क्रम में हवा कुछ ज्यादा ही हल्की ज्यादा स्तरहीन हो गई लगती है:
“जी नहीं । फिलहाल मुझे न तो किसी पाइप लाइन से नीचे उतरना पसन्द है और न ही किसी पाइप लाइन के सहारे किसी के अन्दर !” वाक्य के अन्तिम शब्दों को कुछ ज्यादा ही चबा चबा कर बोला आदित्यश्री । (पृ. 387)

नाम में क्या रखा है 

मरंगगोड़ा (मरंग: बड़ा, गोड़ा: समतल मैदान) ‘हो - संताल‘ समुदायों के इलाके का नाम है। दोनों संस्कृतियाँ अत्यन्त समृद्ध एवं विशिष्ट धार्मिक, आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से सम्पन्न हैं। अतएव मंरगगोड़ा के साथ शीर्षक के लिए ‘हो‘ या ‘संताल‘ मिथकों से ही किसी शब्द का चयन किया जाना चाहिए था । वैसे ‘नीलकंठ‘ का मिथक समुद्र मंथन से निकले हलाहल का पान कर पूरी सृष्टि को उसके संहार से बचाने का है । किन्तु मरंगगोड़ा या जादूगोड़ा अपने यूरेनियम खनन, प्रसंस्करण, परिवहन और कचरेपन के हलाहल से मानवता के संहार में लगा है। इस रेडियोधर्मी तत्व की विनाशलीला यहीं तक नहीं रूकती । मई 1998, पोखरन विस्फोट के चार साल बाद मुख्य भूमिका निभाने वाले न्यूक्लियर वैज्ञानिक महामहिम हो गये, राष्ट्र के प्रथम नागरिक किन्तु पोखरन के आस-पास के उन गाँव वालों का क्या हुआ जिन्हें विस्फोट के मात्र तीन घंटे पहले घर खाली करने को कहा गया । विस्फोट के बाद उनके खेत-घर सब रेडियोधर्मी धूल से भर गए । उनके देह-प्राण के संकट, धीमी मौत पर सब मौन हैं । (इकोनॉमिक एण्ड पोलिटिकल वीकली, अगस्त 22, 2009 पृ. 47) यानी यूरेनियम जैसा रेडियाधर्मी तत्व अपने हर रूप में जनसंहारक है । यह चरित्र तो ‘भष्मासुर‘ का है नीलकंठ महादेव शिवशंकर का नहीं । तो ‘मरंगगोड़ा नीलकंठ कैसे हुआ ?‘

आवरण-चित्र: आदिवासी ऐसे ही होते हैं

आवरण पर बैसन नृत्य के लिए तैयार बस्तर का आदिवासी युवा, चिन्ता की मुद्रा में दिख रहा है । चिन्ता आँखों में बाद में झलकती है उसके मुरैठे में सजा हुआ सींग पहले दिखता है जबकि पूरी पुस्तक में न बस्तर का जिक्र हुआ है, न बैसन नृत्य का और न मुरिया आदिवासियों का । तो फिर यह सींग सजा चित्र क्यों ? क्या यह मुख्य धारा की रूढ़ अवधारणा को और मजबूत नहीं करेगा जिसमें आदिवासी ‘अन्य‘ हैं, कुछ अलग जैसे, उत्सुकता जगाने वाले, थोड़े दया के पात्र, थोड़े डरावने भी ।

और अन्त में 

वीर भारत तलवार से क्षमायाचना के साथ कि ट्रिप लगा कर ही रामशरण जोशी ने ‘आदमी, बैल और सपने‘ जैसी महत्वपूर्ण कृति रची थी वैसी ही महत्वपूर्ण-स्मरणीय कृति महुआ जी ने भी रची है । ‘मरंगगोड़ा नीलकंठ हुआ‘ ने साफ-सुथरी ऊर्जा और अतिराष्ट्रवाद के घने घटाटोप से ढंके ‘बलि दिए हुए क्षेत्रों‘ के आतंककारी यथार्थ और मौन संहार के हाहाकार को जिस प्रतिबद्धता और जुनून के साथ आवाज दी गई है उसके लिए महुआ माजी लाख-लाख बार बधाई की पात्र हैं । यह सघन वैचारिक कृति सविस्तार, बहुआयामी प्रमाणों के साथ दुनिया भर के सत्ता प्रतिष्ठानों का मुखौटा उतारती है । लेखिका की प्रतिभा, परिश्रम और प्रतिबद्धता के प्रति सम्मान हमारे मन में बढ़ा है । एक बार पुनः लेखिका के जुनून को सलाम । अपने अछूते-अनूठे विषय और बहुआयामी प्रस्तुति के लिए यह कृति संसार के बड़े से बड़े पुरस्कार की हकदार है । यही हमारी सात्विक कामना भी है ।

हाशिया से साभार

गुरुवार, 28 जून 2012

" उस लड़के का नाम रमेश था "

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आप इस आभामंडल में खोए रहते हैं कि हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में रहते हैं। मगर खुद को कल्याणकारी राज्य  के तौर विज्ञापित करने वाले भारत का स्याह चेहरा भी देखा जाना चाहिए। दंतेवाणा के आदिवासी युवक रमेश की कहानी हिमांशु कुमार के फेसबुक पेज से लिया गया है, जिसमें निर्मतता के साथ आम आदमी के साथ किया जाने वाला राज्य का अत्याचार साफ  झलकता है। इसे आपसे साझा कर रहे हैं। 




     ल रात कुछ पुरानी फाईलें पलट रहा था! मेरे हाथ में एक फाइल आयी और मेरी आँखों के सामने सारी घटनाएं फिर से घूमने लगी ! ये उसी समय की बात है जब 2009 मे लिंगा कोड़ोपी नाम के आदिवासी युवक को पुलिस ने जबरन पकड़ कर गैर कानूनी तौर पर कैद किया हुआ था और छत्तीसगढ़ पुलिस उसे थाने में एस पी ओ बनने के लिए लगातार यातनाये दे रही थी ! लिंगा कोडोपी को तो बाद में अदालत के मार्फ़त छुड़ा लिया गया लेकिन पुलिस ने एक और आदिवासी युवक की ज़िंदगी लगभग तबाह कर दी ! ये फाइल उसी युवक की थी ! 
    उस लड़के का नाम रमेश था ! एक आम आदिवासी युवक ! दंतेवाडा के पास एक गांव में पूरा परिवार रहता था ! पिता एक सरकारी शिक्षक ! माँ गाँव की सरपंच! रमेश ने बीए पास किया, किस्मत ने साथ दिया और पिता ने जीवन की कमाई बेटे के भविष्य के लिए लगा दी ! रमेश को सरकारी कंपनी एन एम् डी सी में नौकरी मिल गयी! पूरे गाँव में वो सबका दुलारा हमेशा सब से सर झुका कर बात करने वाला सीधा सादा युवक था ! कुछ समय बीतने पर परिवार ने रमेश का विवाह एक पढ़ी लिखी आदिवासी लडकी से करा दिया ! कुछ समय बाद रमेश ने एक मोटर साईकिल भी खरीद ली !
यहीं से रमेश की ज़िंदगी की बर्बादी का सिलसिला शुरू हो गया ! ये उस समय की बात है जब दंतेवाडा में डी आई जी कल्लूरी और एस पी अमरेश मिश्रा थे ! सरकार आदिवासियों के गावों को खाली कराने के लिए अपनी पूरी ताकत लगा रही थी ! हर गावों के पढ़े लिखे आदिवासी युवक को जबरन सरकार और पुलिस का मुखबिर बना कर गावों में ज़मीन छीनने का विरोध करने वालों के बारे में जानकारी ली जाती थी! बाद में उन सभावित विस्थापन विरोधी आदिवासी नेताओं को नक्सली कह कर जेलों में डाल दिया जाता था ! आज भी छत्तीसगढ़ की जेलें ऐसे ही निर्दोष आदिवासियों से भरी पडी हैं और सरकार आदिवासियों की ज़मीनों को विदेशी कंपनियों को बेच रहा है! 
      रमेश को पुलिस ने उसके घर से उठाया और थाने ले गए ! माता पिता और गांव के कुछ लोग थाने गए ! पूछा की हमारे बेटे ने क्या अपराध किया है ? थानेदार ने कहा अपराध तो मुझे नहीं मालूम हम तो ऊपर के साहब लोगों का हुकुम बजाते हैं! थानेदार ने सलाह दी कि आप लोग डी आई जी साहब से मिल लीजिये वो बोल देंगे तो हम तुरंत छोड़ देंगे ! परिवार वाले एस पी अमरेश मिश्रा और डी आई जी कल्लूरी से मिले वो बोले कुछ दिनों में छोड़ देंगे ! परिवार के लोग मदद मांगने हमारी संस्था में आये ! हमने वकील से बात की ! एक पत्र बनाया और एस पी अमरेश मिश्रा और डी आई जी कल्लूरी समेत राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को भी भेजा गया ! कहीं से कई सहायता मिलना तो दूर जवाब भी नहीं आया ! लेकिन एस पी अमरेश मिश्रा और डी आई जी कल्लूरी सतर्क हो गए और उन्होंने आनन् फानन में एक पत्रकार सम्मलेन बुलाया और कहा की कल पुलिस ने जंगल में नक्सलियों के साथ एक वीरतापूर्ण मुकाबले में एक नक्सली कमांडर को गिरफ्तार करने में सफलता पायी है जिसका नाम रमेश है ! और उसके बाद पुलिस ने रमेश को पत्रकारों के सामने पेश कर दिया और जेल में डाल दिया ! इसके कुछ समय के बाद मुझे भी दंतेवाडा छोड़ना पड़ा! 
   कल रमेश की फ़ाइल पढने के बाद मैंने लिंगा कोडोपी से पूछा की अब रमेश की क्या खबर है? उसने बताया की पुलिस ने उसे आपके दिल्ली आने के बाद छ महीने होने पर छोड़ दिया ! इस बीच उसकी पत्नी ने सदमे से आत्महत्या कर ली ! जेल जाने के कारण रमेश की नौकरी भी चली गयी ! परिवार के पास जो ज़मीन थी वो वकीलों की फीस चुकाने में बिक गयी! पूरा परिवार बर्बाद हो गया ! रमेश अब ज्यादातर घर में अन्दर पड़ा रहता है ! किसी से बात नहीं करता ! परिवार वाले भी इस सदमे से अभी तक उबर नहीं पाए हैं ! डर लगा रहता है की कहीं पुलिस फिर से ना पकड़ कर ले जाए ! मेरा दिल किया में जोर से चिल्लाऊं ! पर कौन सुनेगा?

सोमवार, 11 जून 2012

न्याय की बैसाखी पर मौत की इबारत



अंजनी कुमार
8 जून 2012... सेशन कोर्ट, इलाहाबाद। सुबह 11बजे से न्याय के इंतज़ार में हम लोग खड़े थे। सीमा आज़ाद और विश्वविजय कोर्ट में हाजि़र नहीं थे। वकील ने बताया कि जज साहब दोपहर बाद ही बैठेंगे, वह अभी भी 'न्याय' को अंतिम रूप देने में व्यस्त हैं। हम लोगों के लिए इस व्यस्तता को जान पाना व देख पाना संभव नहीं था। कमरा न. 23 के आसपास गहमागहमी बनी हुई थी। तेज धूप और उमस में छाया की तलाश में हम आसपास टहल रहे थे, बैठ रहे थे और बीच-बीच में कोर्ट रूम में झांक आ रहे थे कि जज साहब बैठे या नहीं। सीमा की मां, बहन, भाई, भांजा व भांजी और कई रिश्तेदार व पड़ोसी इस बोझिल इंतज़ार को एक उम्मीद के सहारे गुज़ारने में लगे थे। मैंने अपने दोस्त विश्वविजय के चचेरे भाई और वकील के साथ बातचीत और इलाहाबाद विश्वविद्यालय को देख आने में गुज़ार दिया। 

विश्‍वविजय और सीमा आज़ाद


इलाहाबाद विश्वविद्यालय के उस लॉन में जहां हम लोगों ने पहला स्टडी सर्किल शुरू किया था, वहां बैठना मानो एक शुरूआत करने जैसा था। 1993 में बीए की पढ़ाई करते हुए विकल्प छात्र मंच और बाद में इंकलाबी छात्र सभा को बनाने का सफ़र यहीं से हमने शुरू किया था। विश्वविजय रिश्ते में भवदीय था लेकिन छात्र जीवन और राजनीति में हमसफ़र। हम आपस में बहुत लड़ते थे। इस लड़ने में हम लोगों के कई हमसफ़र थे। हम जितना लड़ते, हमारे स्टडी सर्किल और संगठन का विस्तार और उद्देश्यों की एकजुटता उतनी ही बढ़ती गई। 1996 के अंत में मैं गोरखपुर चला गया। इलाहाबाद से प्रस्थान करने तक विश्वविजय शाकाहारी से मांसाहारी हो चुका था, खासकर मछली बनाने में माहिर हो चुका था। वह एक अच्छा कवि बन चुका था और प्रेम की धुन में वह रंग और कूची से प्रकृति को सादे कागज़ पर उतारने लगा था। उसके बात करने में व्यंग्‍य और विट का पुट तेजी से बढ़ रहा था। 1997 में गांव के और वहां के छात्र जीवन के अध्ययन व इंकलाबी छात्र सभा के सांगठनिक विस्तार के लिए मैं पूर्वांचल के विशाल जनपद देवरिया चला गया। बरहज, लार, सलेमपुर, गौरीबाजार, चौरीचौरा, खुखुन्दु आदि कस्बों व गांवों पर वैश्वीकरण, निजीकरण और उदारीकरण की गहरी पकड़ बढ़ती जा रही थी। दो बार लगभग 35 किमी का लंबा दायरा चुनकर रास्ते के गांवों का अध्ययन किया। इसमें न केवल गांव की जातीय व जमीन की संरचना एक हद तक साफ हुई, साथ ही अपने जातीय व वर्गीय पूर्वाग्रह भी खुल कर सामने आए। इस बीच विश्वविजय से मुलाकात कम ही हुई। इंकलाबी छात्र सभा के गोरखपुर सम्मेलन में विश्वविजय से मुलाकात के दौरान वह पहले से कहीं अधिक परिपक्व और मज़बूत लगा। वह छात्र मोर्चे में पड़ रही दरार से चिंतित था। 1999 में मैं बीमार पड़ा। महीने भर के लिए इलाहाबाद आया। उस समय तक इंकलाबी छात्र सभा की इलाहाबाद इकाई में दरार पड़ चुकी थी। आपसी विभाजन के चलते साथियों के बीच का रिश्ता काफी तंग हो चुका था। इन सात सालों में हम सभी दोस्तों के बीच जो बात मुख्य थी वह सामाजिक सरोकारों के प्रति उत्तरदायित्व की भावना थी और लोगों को पंगु बनाने की नीति के प्रति गहरी नफ़रत थी। सन 2000 में ऑपरेशन के लिए दिल्ली आना पड़ा और फिर यहीं का होकर रह गया। इस बीच विश्वविजय से बहुत कम मुलाकात हुई। दो बार गांव में और दो बार इलाहाबाद। मेरा इंकलाबी छात्र सभा से रिश्ता टूट चुका था। विश्वविजय इस मोर्चे पर डटा रहा। वह इस बीच गांवों के हालात के अध्ययन के लिए इलाहाबाद के आसपास गया। उसने मुलाकात के समय फूलपुर के किसानों और शंकरगढ़ के दलित व आदिवासी लोगों के जीवन के बारे में काफी कुछ बताया। बाद के दिनों में विश्वविजय से सबसे अधिक मुलाकात और बात नैनी जेल में हुई। हम दोनों के बीच लगभग बीस सालों के बातचीत के सिलसिले में परिवार का मुद्दा हालचाल जानने के उद्देश्य से आता था। लेकिन इसजून को यह सिलसिला भी टूट गया। 

शाम पांच बजे 'न्याय की इबारत' सुनने के बाद सारी बेचैनी को समेटे हुए कोर्ट से बाहर आने से पहले विश्वविजय से गले मिला और कहा- 'जल्दी ही जेल में मिलने आऊंगा।' वह काफी शांत था। व्यंग्‍य और विट की भाषा कभी न छोड़ने वाला विश्वविजय मेरा हाथ पकड़े हुए भवदीय रिश्ते की भाषा में लौट आया। मानो लगा कि हम 1992 की चौहद्दी पर लौट गए हों- गांव से आए हुए दो नवयुवकों और हम दोनों को गाइड करने, भोजन बनाकर खिलाने वाले मेरे अपने बड़े भाई के सान्निध्‍य में। मेरे बड़े भाई हम दोनों के इलाहाबाद आने के बाद एक साल में ही नौकरी लेकर इलाहाबाद से चले गए। और फिर भाईपने से मुक्त हम दोनों अलग-अलग इकाई थे। और इस तरह हम एक जुदा, स्वतंत्र और एक मक़सद की जि़ंदगी जीते हुए आगे बढ़ते गए। हमारा समापवर्तक जो बन गया था, उससे हमारा परिवार भी चिंतित था। पर, उस कोर्ट में हम 1992 की चौहद्दी पर लौट गए थे। विश्वविजय कोर्ट में जिम्मेदारी दे रहा था- ''अम्मा बाबूजी को संभालना...हां...ख्याल रखना...।' मैं कोर्ट से बाहर आ चुका था।

लौटते समय मेरा दोस्त संयोगवश मुझे उन्हीं गलियों से लेकर गया जहां मेरे गुरु और हम लोगों के प्रोफेसर रहते थे,जहां हमने इतिहास और इतिहास की जि़म्मेदारियों को पढ़ा और समझा था। यहीं मैंने लिखना सीखायहीं अनगढ़ कविता को विश्वविजय ने रूप देना सीखा। हम उन्हीं गलियों से गुज़र रहे थे- अल्लापुर लेबर चौराहे से- मज़दूरों और नौकरी का फॉर्म भरते व शाम गुज़ारते हज़ारों युवा छात्रों की विशाल मंडी से। इन रास्तों से गुज़रना खुद से जिरह करने जैसा था। सिर्फ सीमा और विश्वविजय के साथ कोर्ट में न्यायाधीश के द्वारा किए व्यवहार से, उसके 'न्याय' से जूझना नहीं था। हम जो पिछले बीस साल गुज़ार आए हैं,जिसमें हमारे लाखों संगी हैं और लाखों लोग जुड़ते जा रहे हैं, उनकी जि़ंदगी से जिरह करने जैसा।


लगभग छह महीने पहले गौतम नवलखा ने सीमा आज़ाद का एक प्रोफाइल बनाकर भेजने को कहा। मैंने लिखा और भेज दिया। उसे उस मित्र ने कहां छापा, पता नहीं। मैं इस उम्मीद में बना रहा कि आगे विश्वविजय और सीमा का प्रोफाइल लिखने की ज़रूरत नहीं होगी। कई मित्रों ने कहा कि लिखकर भेज दो, पर एक उम्मीद थी सो नहीं लिखा। लिखना जिरह करने जैसा है। इस जिरह की जरूरत लगने लगी है। यह जानना और बताना ज़रूरी लगने लगा है कि सीमा और विश्वविजय के जीवन का मसला सिर्फ मानवाधिकार और उसके संगठन से जुड़कर चलना नहीं रहा है। सीमा एक पत्रिका की संपादक थी और उससे सैकड़ों लोग जुड़े हुए थे। विश्वविजय छात्र व जनवाद के मुद्दों पर लगातार सक्रिय रहा। और कम से कम इलाहाबाद के लोगों के लिए कोई छुपी और रहस्यपूर्ण, षडयंत्रकारी बात नहीं थी यह। यह एक ऐसा खुला मामला था जिसे सारे लोग जानते थे और कार्यक्रमों के हिस्सेदार थे। सीमा आज़ाद का यह प्रोफाइल अपने दोस्तों के लिए एक रिमाइंडर की तरह है: 

फरवरी 2010 की सुबह इलाहाबाद रेलवे स्टेशन पर रीवांचल टेªन से उतरते ही सीमा व उनके पति विश्वविजय को माओवादी होने व राज्य के खिलाफ षडयंत्र रचने के आरोप में पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। दोनों के ऊपर यूएपीए- 2005 के तहत मुकदमा ठोक दिया गया। इसके बाद कोर्ट में एक के बाद एक ज़मानत की अर्जी पेश की गई, पर हर बार यह अर्जी खारिज कर दी गई। ज़ाहिरा तौर पर ज़मानत न देने के पीछे सीमा आज़ाद के खतरनाक होने का तमगा ही राज्य के सामने अधिक चमक रहा होगा। आज जब लोकतंत्र पूंजी, कब्ज़े व लूट की चेरी बन जाने के लिए आतुर है, तब खतरनाक होने के अर्थ भी बदलता गया है। मसलन, अपने प्रधानमंत्री महोदय को युवाओं का रेडिकलाइजेशन डराता है। इसके लिए राज्य मशीनरियों को सतर्क रहने के लिए वे हिदायत देते हैं। सीमा आज़ाद उस दौर में रेडिकल बनीं जब मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री नहीं हुआ करते थे। तब उन्होंने विश्व बैंक के तहखानों से निकल कर इस देश के वित्त मंत्री का पद संभाला था। साम्राज्यवादियों के इशारे पर उन्होंने खुद की बांह मरोड़ लेने की बात कही थी। इसके बाद तो पूरे देश के शरीर को ही मरोड़ने का सिलसिला चल उठा। उस समय सीमा आज़ाद का नाम सीमा श्रीवास्तव हुआ करता था। उसने इलाहाबाद से बीए की पढ़ाई की। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से मनोविज्ञान में एमए किया। 1995 तक ब्रह्मांड की गतिविधियों में ही उसकी ज्यादा रुचि बनी रही। बृहस्पति के चांद जो लड़ी की तरह दिखते हैं उसे वह टेलीस्कोप से घंटों देखती रहती थी। देर रात तक ग्रहों व तारों की तलाश में वह पिता से कितनी ही बार डांट खा चुकी थी। उस समय तक देश पर उदारीकरण की अर्थनीति का राजनीति व आम जीवन पर असर खुलकर दिखने लगा था। सीमा ने ब्रह्मांड की गतिकी को जेडी बरनाल की पुस्तक हिस्टरी ऑफ साइंस के माध्‍यम से समाज की गतिकी के साथ जोड़कर देखना शुरू किया। समसामयिक विज्ञान व दर्शन में आई हुई रुकावट में उसने अपने समाज की गति के सामने बांध दिए गए बंधों को समझना शुरू किया। 1995-96 में छात्र व महिला मोर्चे पर उसकी गतिविधियां बढ़ने लगीं। जूलियस फ्यूचिक की पुस्तक 'फांसी के तख्ते से' को पढ़कर वह सन्नाटे में आ गई थी। उसे पहली बार लगा कि समाज की गति पर बनाई गई भीषण रुकावटें वहीं तक सीमित नहीं हैं। ये रुकावटें तो मनुष्य के जीवन की गति पर लगा दी जाती हैं। सीमा श्रीवास्तव नारी मुक्ति संगठन के मोर्चे पर 2001 तक सक्रिय रहीं जबकि इंकलाबी छात्र मोर्चा के साथ बनी घनिष्ठता2004 तक चली। सीमा ने प्रेम विवाह किया और फिर घर छोड़ दिया। नाम के पीछे लगी जाति को हटाकर आज़ाद लिखना शुरू किया। यह एक नई सीमा का जन्म था- सीमा आज़ाद। उसने पैसे जुटाकर बाइक खरीदी। समाचार खोजने के लिए वह लोगों के बीच गई। लोगों की जिंदगी को खबर का हिस्सा बनाने की जद्दोजेहद में लग गई। उसकी खबरें इलाहाबाद से निकलने वाले अखबारों में प्रमुखता से छपती थीं। वह इलाहाबाद शहर के सबसे चर्चित व्यक्तित्वों में गिनी जाने लगी थी। वह मानवाधिकार, दमन-उत्पीड़न, राजनीतिक-सामाजिक जनांदोलनों, किसान-मजदूरों के प्रदर्शनों का अभिन्न हिस्सा होती गई। उसने जन मुद्दों पर जोर देने व समाज और विचार से लैस पत्रकारिता की ज़रूरत के मद्देनज़र 'दस्तक-नए समय की पत्रिका' निकालनी शुरू की। पत्रिका को आंदोलन का हिस्सा बनाया। उसने हज़ारों किसानों को उजाड़ देने वाली गंगा एक्सप्रेस वे परियोजना के खिलाफ पत्रिका की ओर से गहन सर्वेक्षण किया। इस परियोजना से होने वाले नुकसान को बताने के लिए इसी सर्वेक्षण को पुस्तिका के रूप में छाप कर लोगों के बीच वितरित किया। आज़मगढ़ में मुस्लिम युवाओं को मनमाना गिरफ्तार कर आतंक मचाने वाले एसटीएफ व पुलिस की बरजोरी के खिलाफ दस्तक में ही एक लंबी रिपोर्ट छापी। सीमा की सक्रियता मानवाधिकार के मुद्दों पर बढ़ती गई। वह पीयूसीएल- उत्तर प्रदेश के मोर्चे में शामिल हो गई। उसे यहां सचिव पद की जि़म्मेदारी दी गई। सीमा आज़ाद की गिरफ्तारी के समय तक उत्तर प्रदेश में युवाओं की एक ऐसी पीढ़ी सामने थी जो मुखर होकर मानवाधिकारों का मुद्दा उठा रही थी। पतित राजनीति, लूट करने वाली अर्थव्यवस्था, बढ़ती सामाजिक असुरक्षा, दंगा कराने की राजनीति और अल्पसंख्यकों व दलितों के वोट और उसी पर चोट करने की सरकारी नीति के खिलाफ बढ़ती सुगबुगाहट राज्य व केंद्र दोनों के लिए खतरा दिख रही थी। इस सुगबुगाहट में एक नाम सीमा आज़ाद का था। दिल्ली के विश्व पुस्तक मेले से किताब खरीद कर लौट रही सीमा को देश की सुरक्षा के लिए खतरा घोषित कर उनके पति के साथ गिरफ्तार कर लिया गया। जब देश प्रेम व देश द्रोह का अर्थ ही बदल दिया गया हो तब यह गिरफ्तारी एक प्रहसन के सिवा और क्या हो सकती है!
सीमा और विश्वविजय को देश के खिलाफ षडयंत्र के अभियोग में दस-दस साल का कठोर कारावास और दस-दस हज़ार रुपये का दंड और देशद्रोह के मामले में दोनों को आजीवन कारावास और बीस-बीस हज़ार रुपये का दंड दिया गया। प्रतिबंधित साहित्य रखने के जुर्म में अलग से सजा। यूएपीए की धाराओं 34ए, 18ए, 20ए, 38 और आईपीसी के तहत कुल 45 साल का कठोर कारावास और आजीवन कारावास की सज़ा दोनों को दी गई। दोनों को ही बराबर और एक ही सज़ा दी गई। इन धाराओं और प्रावधानों पर पिछले दसियों साल से बहस चल रही है। ऐसा लग रहा है कि न्याय की बैसाखी पर मौत की इबारत लिख दी गई है। जो बच जा रहा है उनके लिए मेरे पास कोई शब्द नहीं हैं, पर ईश्वर पर भरोसा करने वाले लोग इसे भगवान की महिमा कहते हैं।

8 जून को कोर्ट में सीमा के पिताजी नहीं आए। वे निराशा और उम्मीद के ज्वार-भाटे में खाली पेट डूब उतरा रहे थे। उस रात वह घर किस तकलीफ से गुज़रा होगा, इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं है। विश्वविजय के अम्मा और बाबूजी केदारनाथ और बद्रीनाथ की यात्रा पर थे। शायद कोई महिमा हो जाय। मैं खुद पिछली सुनवाइयों को सुनने और न्यायाधीश के रिस्‍पॉन्‍स से इस निष्कर्ष पर पहुंच गया था कि सेशन कोर्ट इतिहास रचने वाला है। मैं अपनी आकांक्षाओं में डूबा हुआ इतिहास रचना के चारित्रिक गुण को ही भूल गया। यह भूलना न तो सायास था और न ही अनायास। बस एक आकांक्षा थी, एक सहज तार्किक इच्छा थी, कि सीमा-विश्वविजय को अब बाहर आ जाना चाहिए और कि यह न्यायाधीश थोड़ा ढंग से सुन और गुन रहा है। हम जेलों में बंद उन लाखों लोगों को भूल ही गए जिन्हें देशद्रोह के आरोप में बेल पर भी नहीं छोड़ा गया है। हम भूल ही गए कि अब तक हज़ारों लोगों को इन्हीं आरोपों के तहत गोली मार दी गई और उसे जेनुइन इनकाउंटर बता दिया गया। हम मनोरमा देवी से लेकर सोनी सोरी तक इतिहास को भूल ही गए। हम भूल ही गए कि देश और देश का भी चारित्रिक गुण होता है। हम भूल ही गए कि शासकों का अपना चरित्र होता है। हम भूल ही गए संसद में बैठे चेहरों का राज़, हम भूल ही गए भूत बंगले की कहानी, हम भूल ही गए गुजरात और बिहार, हम भूल ही गए पाश और फैज़ की नज्‍़म... हम भवदीय आकांक्षाओं में डूबे हुए लोग न्याय की बैसाखी पर उम्मीद की एक किरण फूट पड़ने का इंतजार कर रहे थे...।

यह लिखते हुए इंकलाबी छात्र सभा के हमसफ़र साथी कृपाशंकर- जो कानपुर जेल में है और जिससे मिले हुए सालों गुज़र गए और अब तक मिल पाना संभव नहीं हो पाया- की याद ताज़ा हो आई। वह किस हालात में है, नहीं जानता पर सीमा और विश्वविजय के सामाजिक जीवन को मिला दिया जाय तो उसका प्रोफाइल बनकर तैयार हो जाएगा। गणित, विज्ञान, दर्शन और उतावलेपन का धनी यह मेरा दोस्त जेल की सींखचों में कैसे बंद जीवन जी रहा है,इसे याद कर मन तड़प उठता है। सन 2000 में ऑपरेशन कराने के बाद मैं देहरादून एक साल के लिए रहा। उस समय वह रेलवे की नौकरी में चला गया था। 2002 के आसपास वह मुझसे दिल्ली में मिला और बताया कि उसने नौकरी छोड़ दी है। उसने मुझे बधाई दी। उस समय मैं जनप्रतिरोध का संपादन कर रहा था और एआईपीआरएफ के लिए जनसंगठनों का मोर्चा बनाकर किसान व मज़दूर विरोधी नीतियों के खिलाफ धरना-प्रदर्शन में भागीदार हो रहा था। इराक पर हमले के लिए खिलाफ व्यापक संयुक्त मोर्चे में काम करते हुए मैं दिल्ली वाला बन रहा था। और उसने अपने बारे में बताया कि वह किसान मोर्चे पर काम करने का निर्णय ले रहा है और कि वह जल्दी ही नौकरी छोड़ देगा। इस साथी से मुलाकात कर इस बीच के गुज़रे समय के बारे में उससे ज़रूर पूछना है। हालांकि यह पूछना एक औपचारिकता ही होगी। आज के दौर में जनसरोकार और इतिहास की जि़म्मेवारियों में हिस्सेदार होने का एक ही अर्थ है: जनांदोलनों के साथ जुड़ाव और जन के साथ संघर्ष। जिस देश की अर्थव्यवस्था पर सूदखोरों और सट्टेबाजों की इस कदर पकड़ बन चुकी हो कि प्रधानमंत्री से लेकर वित्त मंत्री तक देश के भविष्य के बारे में सट्टेबाजों की तरह अनुमान लगाने लगे हों, वहां लोगों के सामने दो ही तरह का भविष्य बच रहा है- एक: जिस हद तक हो इस देश को लूट लिया जाय(जिसका परिदृश्य खुलेआम है)। दो: जन के साथ हिस्सेदार हो लूट और कत्लेआम से खुद को और देश को बचा लिया जाय (इस परिदृश्य पर देशद्रोह, नक्सलवाद, माओवाद,आतंकवाद की छाया है)।

यह विकल्प नहीं है। यह अस्तित्व का विभाजन है, जिसे मध्यवर्ग विकल्प के तौर पर देख रहा है और चुन रहा है। यह इसी रूप में हमारे सामने है। आइए, जनांदोलनों और जनसंघर्षों के हिस्सेदार लोगों के पक्ष में अपनी एकजुटता बनाएं और जेलों में बंद साथियों को न्याय की बैसाखियों पर लिखी मौत की इबारत से मुक्त कराने के लिए अपनी एकजुटता ज़ाहिर करें और उनकी रिहाई के लिए जनसमितियों का निर्माण करें।

 लेखक पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता हैं।

                                                                                                                                        जनपथ से  

शनिवार, 14 अप्रैल 2012

“कम लोग बातें ज्यादा”


विजय प्रताप

मीडिया स्टडीज ग्रुप के टेलीविजन कार्यक्रम सर्वेक्षण (टीपीएस) में मैंने पाया कि कैसे एक छोटा सा समूह टेलीविजन चैनलों में किसी मुद्दे पर होने वाली बहसों में एकाधिकार बनाए रखता है। सेना में भ्रष्टाचार के मुद्दे पर देश के विभिन्न टेलीविजन चैनलों पर हुई बहस में चार वर्गों के 54 लोग ही घूम फिरकर छाए रहें। मीडिया स्टडीज ग्रुप के टेलीविजन कार्यक्रम सर्वेक्षण (टीपीएस) के तहत एक सर्वेक्षण में मुझे विभिन्न मुद्दों पर आयोजित बहसों में हिस्सेदारी की पृष्ठभूमि की कई दिलचस्प जानकारियां मिली ।

‘कम लोग बातें ज्यादा’ नाम से किए गए इस सर्वे में हिन्दी और अंग्रेजी के तीन-तीन चैनलों के 26 मार्च से 2 अप्रैल के बीच प्रसारित किए गए 24 कार्यक्रमों में हिस्सा लेने वालों को शामिल किया गया है। सर्वे के परिणाम बताते हैं कि टेली बहस में भाग लेने वालों में देश की दो राजनीतिक पार्टियों कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी की 82 प्रतिशत की हिस्सेदारी है। 24 कार्यक्रमों में कुल 56 प्रतिशत लोग ही घूम फिरकर विभिन्न चैनलों में सेना के लिए खरीददारी में भ्रष्टाचार के मुद्दे पर अपनी राय जाहिर करते रहे। इसमें सेना के पूर्व अधिकारियों की हिस्सेदारी 31 प्रतिशत, राजनीतिक दलों की हिस्सेदारी 31 प्रतिशत, पूर्व नौकरशाहों की हिस्सेदारी 13 प्रतिशत और पत्रकारों की हिस्सेदारी 19 प्रतिशत और अन्य की हिस्सेदारी 6 प्रतिशत थी। इस मुद्दे पर समाज के व्यापक दायरे का यही प्रतिनिधित्व टेली बहस में दिखाई दिया।
सर्वे में 6 चैनलों पर दिखाए गए 24 कार्यक्रमों को उपलब्धता के आधार पर लिया गया है। 15 कार्यक्रम अंग्रेजी चैनल के और 9 कार्यक्रम हिन्दी चैनल के हैं। सर्वे में टेलीविजन चैनलों पर आयोजित बहसों में हिस्सेदारों का विश्लेषण में पाया गया है कि महिलाओं की हिस्सेदारी 9 प्रतिशत रही। सेना का प्रतिनिधित्व करने वाले टिप्पणीकारों में एक भी महिला नहीं है, जबकि पूर्व नौकरशाहों में एक मात्र महिला टिप्पणीकार ने अंग्रेजी के एक कार्यक्रम में हिस्सेदारी की। अंग्रेजी के ही चैनल पर एक मात्र महिला पत्रकार ने हिस्सेदारी की। राजनीतिक दलों की तरफ से तीन महिलाओं ने हिस्सेदारी की। इनमें कांग्रेस की दो महिला प्रवक्ताओं ने हिन्दी के चैनलों पर बहस में हिस्सा लिया तो भाजपा की एक मात्र महिला प्रवक्ता ने अंग्रेजी कार्यक्रम में हिस्सेदारी की। हम लोगों का यह ग्रुप पिछले छह वर्षों से मीडिया से संबंधित कई सर्वे और शोध कर रहा है। हाल ही में ग्रुप की ओर से अवनीश का ‘डीडी उर्दू चैनल’ पर किया गया सर्वे चर्चा में आया है।
सेना का प्रतिनिधित्व करने वाले हिस्सेदारों में एक सैन्य अधिकारी ने 6 कार्यक्रमों में हिस्सा लिया। उनका अकेले कुल कार्यक्रमों में पच्चीस प्रतिशत हिस्सेदारी और बाकी सैन्य टिप्पणीकारों में 35 प्रतिशत हिस्सेदारी रही। सेना के कुल चार प्रतिनिधियों की कुल कार्यक्रमों में हिस्सेदारी 75 प्रतिशत रही। राजनीतिक दलों में कांग्रेस के एक प्रवक्ता की हिस्सेदारी 21 प्रतिशत रही है। वे केवल अंग्रेजी के चैनलों पर दिखे। अंग्रेजी के चैनलों में उनकी अकेले की हिस्सेदारी एक तिहाई थी।
नौकरशाहों की मौजूदगी टेलीविजन चैनलों की बहसों में केवल अंग्रेजी के चैनलों में ही देखी गई। हिन्दी चैनलों के पास बहस के लिए एक भी पूर्व नौकरशाह नहीं था। हमारे इस ग्रुप के अध्यक्ष पत्रकार एवं पत्रकारिता के प्रोफेसर अनिल चमड़िया हैं।

सर्वे का विस्तृत ब्यौरा

सेना में खरीददारी में भ्रष्टाचार के मुद्दे पर 26 मार्च से 2 अप्रैल के बीच टेलीविजन चैनलों पर बहसें आयोजित की गई। यह सर्वे उन बहसों में हिस्सेदार लेने वालों के बारे में हैं।
इस सर्वे का उद्देश्य टेलीविजन चैनलो पर होने वाली बहसों में हिस्सेदारी का विश्लेषण करना है।
सर्वे में हिन्दी और अंग्रेजी के तीन तीन चैनलों के 24 कार्यक्रमों में हिस्सा लेने वालों को शामिल किया गया है।
हिन्दी चैनलों के नौ कार्यक्रमों को शामिल किया गया है जबकि अंग्रेजी के 15 कार्यक्रमों को शामिल किया गया है। यह कार्यक्रमों की उपलब्धता के आधार पर किया गया है।
इन बहसों में कुल 54 लोगों ने हिस्सा लिया। इसमें 5 महिलाओं की हिस्सेदारी थी।
इन बहसों और विमर्शों में कुल 17 सैन्य अधिकारियों ने हिस्सा लिया। उनकी हिस्सेदारी 31 प्रतिशत रही।

सैन्य प्रतिनिधित्व का विश्लेषण

1) एक सैन्य अधिकारी ने 6 कार्यक्रमों में हिस्सा लिया। उनकी कुल कार्यक्रमों में पच्चीस प्रतिशत और हिस्सेदारों में 35 प्रतिशत हिस्सेदारी रही।
2) तीन सैन्य अधिकारियों ने 4 - 4 कार्यक्रमों में हिस्सा लिया। इस तरह केवल चार अधिकारियों ने 75 प्रतिशत कार्यक्रमों में हिस्सेदारी की।
3) तीन सैन्य अधिकारियों ने 3-3 कार्यक्रमों में हिस्सा लिया। इस तरह 24 कार्यक्रमों में 7 सैन्य अधिकारी ऐसे थे जो किसी ना किसी एक बहस में उपस्थित रहे।
4) 6 सैन्य अधिकारियों ने केवल अंग्रेजी चैनलों, 9 ने केवल हिंदी चैनलों और दो ने दोनों चैनलों में हिस्सा लिया।
5) बहस में शामिल सैन्य अधिकारियों में एक भी महिला नहीं है।

राजनीतिक दलों के हिस्सेदारों का विश्लेषण

1) राजनीतिक दलों के कुल 17 प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया। उनकी हिस्सेदारी 31 प्रतिशत रही।
2) सभी प्रतिनिधि पांच राजनीतिक दलों से थे।
3) इन कार्यक्रमों में कांग्रेस के 8 और भाजपा के 6 प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया। कुल राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों में इन दोनों दलों की हिस्सेदारी 82 फीसद रही।
4) कांग्रेस के अभिषेक मनु सिंघवी ने 5 और भाजपा के तरुण विजय ने 3 कार्यक्रमों में हिस्सा लिया। ये सभी कार्यक्रम अंग्रेजी चैनलों के थे। भाजपा के भूपेंद्र यादव हिंदी के दो कार्यक्रमों में रहे।
5) 17 प्रतिनिधियों में से केवल एक जनता दल यूनाइटेड के साबिर अली क्षेत्रीय दल से हिंदी के कार्यक्रम में थे।
6) 17 प्रतिनिधियों में सीपीआई के केवल एक प्रतिनिधि डी राजा अंग्रेजी के कार्यक्रम में थे।
7) राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के तारिक अनवर हिंदी के दो कार्यक्रमों में मौजूद रहे।
8) इन कार्यक्रमों में कांग्रेस की 2 और भाजपा की 1 महिला प्रवक्ता शामिल हुईं। कांग्रेस की दोनों प्रवक्ता हिंदी चैनलों पर और भाजपा की प्रवक्ता अंग्रेजी के चैनल पर रही।

नौकरशाहों की हिस्सेदारी का विश्लेषण

1) कुल 7 नौकरशाहों ने हिस्सा लिया। उनकी हिस्सेदारी 13 प्रतिशत रही।
2) सभी नौकरशाहों की उपस्थिति अंग्रेजी के दो चैनलों में थी।
3) 3 नौकरशाह 2-2 कार्यक्रम में उपस्थित थे।
4) कार्यक्रमों में एक महिला नौकरशाह अंग्रेजी चैनल पर मौजूद रही।

हिस्सेदार पत्रकारों का विश्लेषण

1) इन बहसों और विमर्शों में रक्षा मामलों से जुड़े चैनलों में कार्यरत पत्रकारों के अलावा कुल 7 पत्रकारों ने हिस्सा लिया।
2) 24 कार्यक्रमों में सीएनएन आईबीएन के कार्यक्रमों की संख्या 7 है।
3) सीएनएन आईबीएन ने अपने 2 पत्रकारों को 2 कार्यक्रमों का हिस्सेदार बनाया।
4) एनडीटीवी ने एक कार्यक्रम में अपने एक पत्रकार को हिस्सेदार बनाया।
5) 7 में एक पत्रकार ने 4 कार्यक्रमों में हिस्सा लिया, एक ने 3 और एक ने 2 कार्यक्रमों में हिस्सा लिया। इन तीन पत्रकारों की कार्यक्रमों में हिस्सेदारी 37 और हिस्सेदारों में 42 फीसद रही।
6) सबसे ज्यादा 5 पत्रकार हिंदी के चैनल एनडीटीवी इंडिया के कार्यक्रम में आए।
7) एक मात्र महिला पत्रकार अंग्रेजी चैनल में हिस्सेदार रही

इन कार्यक्रमों में सैन्य अधिकारियों, नौकरशाहों, पत्रकारों और राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों के अलावा तीन अन्य लोग भी इनके हिस्सेदार बने।

1) एन हनुमनथप्पा ऑल इंडिया फेडरेशन ऑफ एससी, एसटी, ओबीसी, माइनॉरिटी वेलफेयर एसोसिएशन के कर्नाटक प्रदेश अध्यक्ष हैं। उन्होंने 2009 में ही सेना से जुड़ी खरीद-फरोख्त में घपलों की शिकायत की थी। वे अंग्रेजी के दो कार्यक्रम के हिस्सेदार रहे।
2) भारत अर्थ मूवर्स लिमिटेड (बीईएमएल) के पूर्व ठेकेदार अनिल बक्शी एनडीटीवी 24/7 के दो कार्यक्रमों में रहे।
3) सीएसडीएस के फेलो अभय कुमार दूबे एनडीटीवी इंडिया के एक हिन्दी कार्यक्रम में रहे।

3) सीएसडीएस के फेलो अभय कुमार दूबे एनडीटीवी इंडिया के एक हिन्दी कार्यक्रम में रहे।

शनिवार, 24 मार्च 2012

'कोई मुझे बचा ले'


वरुण शैलेश

हाल में पंजाब के मनसा जिले में एक पुलिसकर्मी व्दारा एक लड़की को निर्मता से पीटने का मामला सामने आया है। इस घटना को मीडिया में शर्मनाक बताया गया। बेशक यह घटना शर्मसार और पुलिसिया रवैये को उजागर करने वाली है। मगर एक सवाल हमेशा उठता है कि इस देश को शर्म केवल किसी संभ्रांत महिला के प्रति हुए उत्पीड़न पर आती है। क्या यह शर्म किसी आदिवासी महिला को थाने में बैठाकर उसके गुप्तांगों में पत्थर भरने से नहीं आती है। यह बेहद अफसोसजनक है जिस पुलिस अफसर के इशारे पर इस कुकृत्य को अंजाम दिया गया उसे भारत सरकार ने मेडल से सम्मानित किया। इससे सरकार की आदिवासी महिलाओं की अस्मिता और मानवीय सम्मान को लेकर कितनी गैरजिम्मेदार है। सम्मान देने पर महिला संगठनों का दिल्ली में प्रदर्शन भी हो चुके हैं। सोनी सोड़ी छत्तीसगढ़ में शिक्षिका हैं और उन्हें नक्सलियों का मददगार बताकर जेल में रखा गया है।कोलकाता के एक मेडिकल कॉलेज की रिपोर्ट में यह स्पष्ट है कि सोनी सोड़ी के निजी अंगों में पत्थर डाले गए थे। यह रिपोर्ट सुप्रीम कोर्ट को भेजी जा चुकी है। लेकिन न्यायपालिका भी चुप है। सोनी सोड़ी की चिट्ठी एक असहाय स्त्री के तकलीफ को बयां करने के लिए काफी है। लेकिन ऐसी स्थिति में न्याय की किससे उम्मीद की जाए। सोड़ी लगातार अपने पत्रों से पुलिस उत्पीड़न के बारे में बता रही हैं। मगर उनकी मदद को कोई सामने नहीं आ रहा है। संसद में आदिवासी प्रतिनिधियों की तादाद भी अच्छी-खासी है, लेकिन अभी तक वे सोनी सोड़ी को लेकर उदासीन ही दिख रहे हैं। ऐसे में आदिवासी संगठनों की सक्रियता और उनके औचित्य पर भी सवाल खड़े होते हैं। हालांकि देशभऱ में आदिवासी तमाम मोर्चों पर लड़ रहे हैं।

पुलिस के बर्ताव को हम यहां तो बताने की स्थिति में नहीं हैं लेकिन फिर भी उनकी कुछ लाइनों को सामने रख रहे हैं।1. मुझे करंट शॉट देने, मुझे कपड़े उतार कर नंगा करने या मेरे गुप्तांगों में बेदर्दी के साथ कंकड़-गिट्टी डालने से क्या नक्सलवाद की समस्या खत्म हो जाएगी। हम औरतों के साथ ऐसा अत्याचार क्यों, आप सब देशवासियों से जानना है। 2. जब मेरे कपड़े उतारे जा रहे थे, उस वक्त ऐसा लग रहा था कोई आये और मुझे बचा ले, पर ऐसा नहीं हुआ। महाभारत में द्रौपदी ने अपने चीर हरण के वक्त कृष्णजी को पुकार कर अपनी लज्जा को बचा ली। मैं किसे पुकारती, मुझे तो कोर्ट-न्यायालय द्वारा इनके हाथो में सौंपा गया था। ये नहीं कहूंगी कि मेरी लज्जा को बचा लो, अब मेरे पास बचा ही क्या है? हां, आप सबसे जानना चाहूंगी कि मुझे ऐसी प्रताड़ना क्यों दी गयी। 3. पुलिस आफिसर अंकित गर्ग (एसपी) मुझे नंगा करके ये कहता है कि तुम रंडी औरत हो, इस शरीर का सौदा नक्सली लीडरों से करती हो। वे तुम्हारे घर में रात-दिन आते हैं, हमें सब पता है। तुम एक अच्छी शिक्षिका होने का दावा करती हो, दिल्ली जाकर भी ये सब कर्म करती हो। तुम्हारी औकात ही क्या है, तुम एक मामूली सी औरत जिसका साथ क्यों इतने बड़े-बड़े लोग देंगे।

पुलिस का रवैया पूरे मामले में देश छोड़कर जा चुके अंग्रेजों के सामान है शायद उससे भी कहीं ज्यादा निर्मम। ऐसा लग रहा है जैसे इस मामले में वह अंग्रेजों की क्रूरता से आगे निकलने की चेष्टा में है। बचपन में कहानियां सुनते थे कि अंग्रेज सिपाहियों से अपनी इज्जत बचाने के लिए सैकड़ों महिलाओं ने कुएं में कूदकर जान दी अथवा आग में जलकर अपनी अस्मिता बचाई थीं। मगर आज घर के अंग्रेजों से भारतीय महिला कैसे अपनी इज्जत बचाए। क्या आज भी हम यह कहने की स्थिति में हैं कि अंग्रेज इस देश को छोड़कर जा चुके हैं और हम उनकी प्रताड़ना से आजाद हैं।

असल में, भारतीय समाज का एक बड़ा ढांचा कमजोर, गरीब, दलित और आदिवासी समुदाय को मानवेतर आंकता है। इसी ढांचे से नौकरशाही का तानाबाना भी बना है, जो खुद को शोषक के बतौर पेश करने में गौरवान्वित महसूस करता है। देश के शर्म का सवाल कब खड़ा होता है ? ऐसी घटना किसी सभ्रांत घर की महिला के साथ होता तो संभवत: शर्म का सवाल बनता। मगर सोनी सोड़ी की पीड़ा तमाम उन सामान्य घटनाओं जैसी लगती है जिनकी अमूमन नियति मानकर अनदेखी कर दी जाती है। नियति का खाका पीड़ित समुदाय के असहाय होने से तैयार होता है। उसके पास इन तमाम साजिशों से निपटने के लिए सचेत और मजबूत शख्सियतों का अभाव है। लोकतंत्र का विज्ञापन करने वाली सत्ता आदिवासी नेतृत्व या शख्सियत के खड़े होने में भी अड़ंगे डालती नजर आती है। इसका उदाहरण सोनी सोड़ी के भतीजे पत्रकार लिंगाराम कोडोपी को जेल में डालना है। क्या कोई गैर आदिवासी पत्रकार कोडोपी से बेहतर उनकी समस्याओं को उठा सकता है। कोडोपी को नक्सली मददगार बताकर उसे जेल में डालना आदिवासी समाज की आवाज कुंद करने की कोशिश को दर्शाता है।