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गुरुवार, 24 अप्रैल 2014

मिशन से गुमराह आकाशवाणी

वरुण शैलेश

पिछले कुछ वर्षों में रेडियो के क्षेत्र में निजी एफएम चैनलों का विस्तार हुआ है। लेकिन इनका अपना श्रोता वर्ग है जो शहरों में रहता है। इन एफएम चैनलों के दायरे में ग्रामीण आबादी नहीं आती। ऐसे में देश की वह 70 फीसदी जनसंख्या जो गांवों में रहती है उसकी सूचना को लेकर निर्भरता आकाशवाणी पर बढ़ जाती है। इस लिहाज से राष्ट्रीय लोक प्रसारक के रूप में आकाशवाणी सभी वर्ग के लोगों को सशक्त बनाने को वचनबध्द है। लेकिन यह तभी मुमकिन है जब सामाजिक दायित्व को ध्यान में रखकर आकाशवाणी प्रसारित किए जाने वाले अपने कार्यक्रमों को तैयार करे। चूंकि इसकी पहुंच देश की अधिकतम आबादी तक है। ऐसे में ऑल इंडिया रेडियो की तस्वीर अपने कार्यक्रमों के जरिए देशभर में मौजूद सभी समुदायों, समूहों, जातियों एवं वर्गीय स्तर पर विभाजित समाज के अभिव्यक्ति की बननी चाहिए। लेकिन मीडिया स्टडीज ग्रुप ने अपने सर्वेक्षण में पाया कि ‘बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय’ के तहत आकाशवाणी जो कार्यक्रम प्रसारित कर रहा है वह उसके तयशुदा लक्ष्यों को हासिल करने के लिए नाकाफी हैं।

देश में आकाशवाणी की होम सर्विस में 299 चैनल हैं जो 23 भाषाओं और 146 बोलियों में कार्यक्रम प्रसारित करते हैं। आकाशवाणी की पहुंच देश के 92 फीसदी क्षेत्र और कुल जनसंख्या के 99.18 फीसदी आबादी तक है। सर्वेक्षण के दौरान आकाशवाणी के समाचार प्रभाग का लिया गया जायजा बताता है कि वह जिन विषय वस्तुओं पर कार्यक्रम तैयार कर रहा है उससे लोकतांत्रिक उद्देश्यों को पूरा कर पाना नामुमकिन है। समाचार सेवा प्रभाग का अंग्रेजी एकांश समाचार प्रसारण के अलावा समसामायिक विषयों पर चर्चा के तमाम कार्यक्रम तैयार करता है। लेकिन प्रसारण के लिए कार्यक्रम तैयार करने के लिए जिस तरह के विषयों का चुनाव किया जाता है वह आकाशवाणी के बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय के एजेंडे पर सवाल खड़ा करता है। दूसरा सवाल- किसान, दलित, आदिवासी, पिछड़े और अल्पसंख्यक जैसे वंचित समाजों के मसलों पर कितने कार्यक्रम बनते और प्रसारित होते हैं। जवाब सिफऱ है। जनता की अभिव्यक्ति बनने के दायित्व को समझने के लिए आकाशवाणी के नागरिक घोषणा और 2011 के दौरान प्रसारिता अंग्रेजी भाषा के कार्यक्रमों की बानगी बदरंग तस्वीर पेश करती है। जाहिर है एआईआर देश की  99.18 फीसदी जनता को धोखा के सिवा कुछ नहीं दे रही है।

निजी मीडिया संस्थानों में वंचित समाज की समस्याएं और कार्यक्रम नदारद रहते हैं लेकिन सरकारी जनसंचार माध्यम की तस्वीर तो उससे भी बदरंग है। सामाजिक तौर पर वंचित समाज को किनारे रखने की रणनीति को आकाशवाणी ने भी बखूबी कायम रखा है।

बहरहाल, ऑल इंडिया रेडियो ने 2011 के दौरान सामयिकी, स्पॉटलाइट, न्यूज एनालिसिस, मनी टॉक, समाचार चर्चा, कंट्रीवाइड और करेंट अफेयर्स के तहत 527 कार्यक्रम प्रसारित किए। मगर इनमें अनुसूचित जाति के मुद्दे पर सात नवंबर, 2011 को सिर्फ एक कार्यक्रम ‘सरकारी नौकरियों में बढ़ती दलित आदिवासी अधिकारियों की संख्या’ को प्रस्तुत किया गया। मतलब इस वर्ग को औसतन 0.19 तरजीह के लायक समझा गया। हालांकि इसे केवल अनुसूचित जाति का मुद्दा कहना भी ठीक नहीं होगा क्योंकि इसके साथ आदिवासी शब्द थी जुड़ा हुआ है जिनकी जनसंख्या आठ फीसदी से ऊपर है। वहीं देश की कुल आबादी में अनुसूचित जातियों की हिस्सेदारी 15 फीसदी से ज्यादा है। इसी तरह आकाशवाणी के कार्यक्रम तैयार करने वालों को आदिवासी सवाल नहीं सुझे या उसे समझा नहीं गया, जबकि यह समाज देश में सबसे संकटग्रस्त समाज है जो अपने अस्तित्व पर चौतरफा हमले का सामना कर रहा है।

इसके अलावा महिलाओं के उत्थान की चिंताओं को लेकर वर्ष 2011 के दौरान महज आठ कार्यक्रम प्रस्तुत किए गए। यानी महिलाओं से संबंधित औसतन 1.52 फीसदी कार्यक्रम प्रसारित किए गए। सामाजिक न्याय और शोषण से संबंधित 2.28 फीसदी कार्यक्रम मतलब सालभर में 12 प्रोग्राम पेश किए गए। खेतिहर मजदूर और श्रमिक वर्ग के कार्यक्रमों को एक श्रेणी में रखा जिसे 1.32 फीसदी महत्व दिया गया और उनके लिए सात कार्यक्रम पेश किए किए गए। ये कार्यक्रम सीधे श्रमिकों पर केंद्रित न होकर सरकारी योजनाओं के इर्द-गिर्द नजर आते हैं। वहीं खेल में क्रिकेट छाया हुआ है जबकि अन्य खेल पर आकाशवाणी का ढुलमुल रुख रहा है। आकाशवाणी ने कम से कम राजनीतिक मगर सत्ता के लिहाज से 89 कार्यक्रम दिए जो औसतन 16.88 प्रतिशत है। विष्लेषण के दौरान अन्य में 15 कार्यक्रम रखें जिसमें सांकृतिक या भाषा आधारित कार्यक्रम हैं।

आकाशवाणी से होने वाले प्रसारणों से आम जनजीवन प्रभावित होता है। देश में रहने वाले सभी धर्मों, समुदायों, समूहों, जातियों एवं वर्गीय स्तर पर विभाजित समाज का जीवन भी उससे जुड़ा हुआ है। इसलिए पूरा देश आकाशवाणी को अपनी अभिव्यक्ति के तौर पर देखता है। साथ ही सार्वजनिक क्षेत्र का लोक प्रसारक होने के नाते उसके राष्ट्रीय कार्यक्रमों का स्वरूप लोकतांत्रिक होना चाहिए। लेकिन कार्यक्रमों का विषय चयन और उसके लिए आमंत्रित मेहमानों की सूची लोक प्रसारक के लोकातांत्रिक होने पर सीधा सवाल खड़ा करते हैं और सर्वे से स्पष्ट होता है कि अपने लोकतांत्रिक होने की घोषणा की आकाशवाणी खुद ही उल्लंघन कर रही है। अगर आदिवासी समस्याओं समेत इन सभी सवालों को दरकिनार कर भी दें तो यह बात दिगर है कि आकाशवाणी के सबसे अधिक ग्रामीण स्रोता हैं लेकिन उनके लिए कोई कार्यक्रम नहीं है। शायद कार्यक्रमों को लेकर नीति तैयार करने वाले लोगों की प्राथमिकता ग्रामीण नहीं हैं।

शुक्रवार, 11 अप्रैल 2014

इन बेबस जानवरों की बलि क्यों?


                                                                                                                                                                                                   योगेंद्र सिंह


छत्तीसगढ़ में राजनंद जिले के छुरिया इलाके में गांव वालों ने जंगल के अफसर की मौजूदगी में एक बाघिन को बड़ी बेरहमी से पत्थर मार - मार कर मौत के घाट उतार दिया। गांव वालों ने ये सब अंधविश्वास के चलते किया। ग्रामीणों का मानना है कि मन में किसी कार्य की इच्छा रखकर किसी जानवर की  पत्थर मार - मार कर बलि देने से मन की इच्छानुसार कार्य पूर्ण होता है। इस प्रकार के और भी कई अंधविश्वासी नज़ारे हमें जगह- जगह देखने को मिल जायेंगे।

हमारे देश में सुकमा, कांकेर, तुमगांव, दंतेवाड़ा, बलौदाबाज़ार, बिलासपुर, नारायणपुर, गरियाबंद, धमतरी, सरईपाली वगैरह कई ऐसे इलाके है, जहाँ अंधविश्वास के नाम पर अत्यधिक लोगो को ठगा जाता है। भूत भगाने या टोनही से छुटकारा पाने के लिए मुर्गा, बकरी, जंगली बिल्ली, सियार जैसे कई जानवरों की बालि दी जाती है। बाघ के खाल, उसके बाल, नाखून, तेंदुएं के दांत वगैरह जिसके पास रहते है, उसके पास भूत, जिन्न भटकते नहीं है। ऐसा अधिकतर लोगों का मानना है। इस अंधविश्वास के कारण न जाने कितने बाघों कि हत्या होती  है और न जाने कितने तेंदुओं को मार गिराया जाता है।
अंधविश्वास फ़ैलाने वाली ज्योतिष की जानकार डॉ. सुनीता द्विवेदी कहती हैं कि तंत्र- मंत्र की साधना के लिए अमावस्य की रात सबसे अच्छा समय होता है। तंत्र साधना में पशु- पक्षियों की बलि अति आवश्यक होती है, क्योकि तंत्र साधना बलि के बगैर अधूरी मानी जाती है। शेर, बाघ, भालू तो आसानी से मिलते नहीं, लेकिन उल्लू आसानी से मिल जाते हैं। वैसे भी तंत्र साधन में उल्लू को विशेष अहमियत दी गई है। तंत्र क्रिया के दौरान उल्लू को मारने के बाद उसका हर अंग अत्यंत कीमती व फलदायी होता है। उल्लू के नाखून ताबीज बनाने के काम आते है। उल्लू कि आँखें विभिन्न बीमारियों की दवा बनाने में प्रयोग होती है और उल्लू के बाल को तिजोरी में रखने से वह कभी खाली नहीं होती है। ऐसे और भी कई अन्य विचार लोगों में चर्चित है।
छत्तीसगढ़ वाइल्ड लाइफ बोर्ड के सदस्य प्राण चड्ढा कहते हैं कि राज्य में बाघों के सरकारी आंकड़े सही नहीं हैं। पिछली बार की अपेक्षा राज्य में 22 से 28 बाघ हैं। लेकिन इस रिपोर्ट पर शक है, क्योंकि इसमें बारनवारा सेंचुरी में 8 बाघों के मौजूद होने के दावे किए गए हैं  जबकि वहाँ मुश्किल से 2 या 3  बाघों के होने की  बात सामने आ रही है। चौकाने वाली बात तो यह है कि पिछले चार वर्षों में टाइगर प्रोजेक्ट के तहत केंद्र सरकार ने तकरीबन 32 करोड़ रुपये दिए हैं, जबकि राज्य का 30 करोड़ का बजट था। इसके बावजूद भी राज्य में बाघों को बचाने के लिए कुछ नहीं किया गया है।

मध्य प्रदेश के बाघों की  हालत बहुत अच्छी नहीं है। पन्ना टाइगर रिजर्व के निदेशक श्रीनिवास मूर्ति ने राज्य सरकार के जंगल महकमे को एक रिपोर्ट भेजी, जिसमे उन्होंने बताया था कि वर्ष 1990 से वर्ष 2011 तक तकरीबन 19 बाघों का शिकार किया जा चूका है। वही मुख्य वन  संरक्षक डॉ. एच. एस. पाबला कि रिपोर्ट श्रीनिवास मूर्ति की रिपोर्ट से अलग है। उनकी रिपोर्ट के मुताबिक़, पन्ना टाइगर रिजर्व में नर बाघों कि तादाद ज्यादा थी, जिससे दबदबे कि लड़ाई के चलते बाघ आपस में लड़कर  घायल हो गए और उनकी मौत हो गई। पन्ना के लोगों का कहना है कि टाइगर रिजर्व से अब तक 36 बाघ गायब हो चुके है। जहां सरकार एक तरफ वन्य जीव व जानवरों के लिए तरह- तरह के प्रयास कर रही है, लेकिन अंधविश्वास के चलते जानवरो की जो हत्या हो रही है। इसकी रोकथाम के लिए सरकार कोई कदम नहीं उठा रही है। जानवरों को बचाने के लिए जरूरी है कि उसकी दहाड़ के दुश्मन बने अंधविश्वास पर रोक लगाने की  दिशा में ठोस कदम उठाये जाएं। केवल एक- दूसरे पर आरोप लगाकर जवाबदेही की नीति न अपनाए। आदिवासी व आस-पास के गांव में जंगली जानवरों को मारने की जो परम्परा है, उसमें जागरूकता लाई जाए।  नहीं तो ढुलमुल रवैये के चलते एक दिन बाघ के साथ- साथ और भी कई पशु- पक्षी व जानवर देखने को नहीं मिलेंगे।