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शनिवार, 16 दिसंबर 2017

विकास गांडो थायो छे...

मुंबई जाते हुए जब ट्रेन सूरत से गुजरती है, तो रेलवे स्टेशन के आसपास ढेर सारे झोपड़ीनुमा छोटे छोटे घर नजर आते हैं। अगर किसी कारण बस आपकी ट्रेन सूरत रेलवे स्टेशन के आउटर पर रुकी तो देखेंगे कि चट्टी, बोरा, प्लास्टिक और कागज के गत्ते से बने उन घरों में महिलाएं साड़ी का काम करते हुए नजर आएंगी। खासकर दोपहर को, जब घर के मर्द काम पर और बच्चे स्कूल चले जाते हैं तो सूरत शहर की चालियों और झोपड़ियों में यही सीन दिखेगा। घरेलू कामों से फारिग होकर ज्यादातर महिलाएं साड़ी का काम करती हैं। यही काम उनके पति से इतर अतिरिक्त आय का स्रोत है। 

पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के लोग इस बात से वाकिफ होंगे कि कारखानों में काम करने वाले, ठेला-रेहड़ी लगाने वाले लोगों ने इसी छोटी सी अतिरिक्त आय की बदौलत गांव में अपने घरों को गुलजार किया या गुजरात में ही हैसियत के मुताबिक घर भी खरीदे हैं, लेकिन अब यह सब उनके लिए मुमकिन नहीं रहा। कारण जीएसटी, क्योंकि अब इसके दायरे में साड़ी का यह काम करने वाली महिलाएं भी आ गई हैं। जीएसटी की अपनी पेचीदगी है और इन महिलाओं में अधिकतर अपढ़ या कंप्यूटर के ज्ञान से दूर हैं...और टैक्स की जटिलता को समझना तो उनके लिए दूर की कौड़ी है। टेक्सटाइल के कारोबारियों ने मसले को सरकार के सामने रखा कि साड़ी का छोटा-मोटा काम करने वाली ये महिलाएं जीएसटी नहीं भर पाएंगी तो उनसे कहा गया कि आप खुद ही उनका जीएसटी भी भरें। टैक्स के नए कानून जीएसटी को लेकर पहले ही उलझे इन व्यापारियों ने महिलाओं का जीएसटी खुद भरने के बदले इसके लिए अलग से प्लांट लगाने का सोचा और वे इस पर धीरे-धीरे अमल कर रहे हैं। यानी इन कारोबारियों ने अपनी ही कंपनी में अलग से इन कामों के लिए मशीनें लगानी शुरू कर दी हैं। उन्होंने इन अपढ़ महिलाओं के बजाय मशीनों से साड़ी का बाकी काम करना मुनासिब समझा। इसके चलते ये महिलाएं एक तरह से फिर बेरोजगार होती जा रही हैं। सरकार ने कौशल विकास योजना के तहत सिलाई-कढ़ाई का काम महिलाओं को सिखाने का कार्यक्रम भी शुरू किया था, लेकिन अब जीएसटी के चलते महिलाओं के हाथ से यह काम भी फिसलता जा रहा है। देश बदल रहा था, लेकिन उन बदलावों के दायरे से कमजोर समाज बाहर होता जा रहा है। इस समाज को मुख्यधारा में लाने के नाम पर कोसने के सिवाय शायद सरकार या वर्चस्वशाली तबके पास कोई कार्यक्रम नहीं है।

दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाने वालीं संतोष यादव कहती हैं, जब कुछ सामान्य गति से चलता हुआ दिखता है और बिना किसी अतिरिक्त उथल-पुथल के समाज का एक बड़ा हिस्सा खुद को बाहर हो गया पाता है, तो वह चर्चा का विषय भले नहीं बनता हो, लेकिन जमीनी स्तर पर समाज के ढांचे पर दीर्घकालिक असर डालता है। समाज विज्ञान के विश्वकोश के अनुसार इसे बहिर्वेशन (Exclusion) कहा जा सकता है जो केवल गरीबी या बेरोजगारी का परिणाम न होकर समान अवसरों से वंचित करने की उस प्रक्रिया का नाम है जो समाज के कुछ समूहों पर थोप दी जाती है। नतीजा यह निकलता है कि उन समूहों के सदस्य निजी तौर पर राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक प्रक्रिया में भागीदारी करने की हैसियत में ही नहीं रह जाते। बहिर्वेशन की यह प्रक्रिया सामाजिक संस्थाओं और संबंधों पर निर्भर करती है। अगर वे बहिर्वेशन की नीति को आगे बढ़ाते हैं और भेदभावपूर्ण हैं तो जीवन के हर क्षेत्र में व्यक्तियों और समूहों को नकारात्मक रूप से प्रभावित करेंगे। सामाजिक बहिर्वेशन का दायरा बहुत बड़ा होता है। उसमे रोजी-रोटी न कमा पाने और गृहविहीनता की स्थितियों से लेकर जेंडर या जातीयता से जुड़ा पक्षपात भी शामिल है। सामाजिक बहिर्वेशन के सिद्धांतकारों के अनुसार यह बहुआयामी परिघटना अपनी प्रकृति में प्रक्रियात्मक होती है। यानी कोई व्यक्ति या समूह बहिर्वेशनों के एक सिलसिले से क्रमश: गुजरता हुआ अलगाव, तिरस्कार, अवमानना और असुरक्षा का शिकार होता चला जाता है। अमर्त्य सेन ने सक्रिय और निष्क्रिय बहिर्वेशन की भी चर्चा की है। सरकार द्वारा बनाई गई नीतियों के परिणामस्वरूप होने वाला बहिर्वेशन सक्रिय की श्रेणी में आता है और समाज की खामोशी से चलने वाली प्रक्रियाओं के कारण होने वाले परिस्थितिजन्य बहिर्वेशन को निष्क्रिय करार दिया जा सकता है। क्या सचमुच विकास गांडो थायो छे...।

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