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बुधवार, 15 अक्तूबर 2014

रास्ते और वर्चस्व का ढांचा

वरुण शैलेश
आराम तलब की दिल्ली में रहने वाले हम अयप्पन की तकलीफ को महसूस नहीं कर सकते। अगर आने जाने के रास्ते की सुविधा होती तो शायद वह अपने बच्चे को जीवित बचा पाने में कामयाब होते। सड़क और आवागमन के अभाव के कारण वह दूर उपलब्ध चिकित्सा सुविधा तक अपनी पत्नी सुधा को वक्त से नहीं पहुंचा सके। यह घटना पिछले साल जून की केरल के पथनामथिट्टा जिले की है। नोमाडिक आदिवासी अयप्पन की पत्नी सुधा बीमार थीं। लेकिन परिवहन व्यवस्था न होने की वजह से गर्भवती पत्नी को पीठ पर लादकर उन्होंने चालीस किलोमीटर का लंबा सफर तय किया। अपने भारी पेट की पीड़ा के साथ पति की पीठ पर लदने वाली पत्नी का दर्द घने जंगलों से कहीं ज्यादा गहरा रहा होगा। भारी बारिश के बीच कोन्नी के जंगलों को पार करते हुए अयप्पन सुबह पत्नी को लेकर पथनामथिट्टा के ज़िला अस्पताल पहुंचे। बाद में सुधा को कोटट्यम मेडिकल कॉलेज भेजा गया। उनकी जान तो बच गई मगर बच्चा नहीं।
पत्नी सुधा के पास बैठे अयप्पन
इसी तरह रास्ते के बाबत दशरथ मांझी के कड़े परिश्रम को तौलना नामुमकिन है। बिहार में गया जिले के गहलौर गांव के दशरथ की पत्नी फगुनी देवी को पहाड़ पारकर पानी लेने जाना पड़ता था। एक दिन वह फिसलकर गिर गईं। मटका टूट गया और उन्हें गहरी चोट आई। फगुनी देवी को लगी यह चोट दशरथ बाबा को एक संकल्प दे गई। उन्होंने अपनी मजबूत इच्छा शक्ति और छिन्नी-हथौड़ी की बदौलत 27 फुट ऊंचा पहाड़ काटकर 365 फुट लंबा एवं 30 फुट चौड़ा रास्ता बना दिया। उनकी मेहनत ने पहाड़ी को 80 किलोमीटर घुमकर जाने के रास्ते को तीन किलोमीटर में समेट दिया। हालांकि तैयार रास्ता को फगुनी नहीं देख सकीं। अलबत्ता रास्ता बनने से पहले ही वह बीमार पड़ गईं। उन्हें अस्पताल पहुंचाने में पूरा दिन लग गया और यही दूरी फगुनी देवी के मौत का कारण बनी। लेकिन दशरथ के इस अद्यम साहस को मापने का पैमाना हमारी सरकार के पास नहीं है। इस रास्ते को पक्की सड़क में तब्दील करने का नीतीश सरकार के आश्वासन का आज भी बाबा की आत्मा इंतजार कर रही है। एक जैसी इन घटनाओं को बताने का उद्देश्य आने-जाने की सुविधा मुहैया कराने वाली सड़क और कमजोर  समाज को उसकी जरूरत तथा वर्चश्वशाली समूह के हित को समझने का है।
अब हम एक दूसरी तस्वीर देखते हैं। भारत में सड़कों का जाल बिछाने और राजमार्गों के निर्माण के पीछे अंग्रेजों का एजेंडा देश के प्राकृतिक संसाधनों के दोहन का बताया जाता है। उस दौरान उन इलाकों तक रेल पटरियों को विस्तार दिया गया जहां से ब्रिटिश उग्योग के लिए कच्चा माल हासिल किया जा सके। इस बाबत ब्रिटिश काल में रेल व सड़क मार्गों को वैसे दुरुह क्षेत्रों तक पहुंचा दिया गया जिस तरह के हिस्सों में भारत सरकार अपने दोहनकारी ढांचे को अभी तक विकसित नहीं कर पाई है। इन मार्गों और रेल पटरियों को संरचनात्मक रूप से जटिल मगर प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर इलाकों तक विकसित करने का उद्देश्य महज शोषण के सिवाय कुछ और नहीं था। अवलोकन करें तो मिलेगा कि दक्षिण, पश्चिम या पूर्वोत्तर भारत के अलावा देश के उन चुनिंदा पहाड़ी क्षेत्रों में सड़कों या रेल मार्गों का विकास प्राथमिकता के तौर पर किया गया जहां से अंग्रेज व्यापारी ब्रिटेन स्थित अपने कारखानों की जरूरत को पूरा करा सकें। इसमें आवागमन जैसी मानवीय सुविधाओं का तत्व कहीं नहीं था।
मगर 1947 के बाद के भारत में मार्गों को विकसित करने के मकसद में क्या किसी तरह का बदलाव आया ? आधुनिक भारत में भारतीय शासकों ने सत्ता संचालन को लेकर अंग्रेजों के नक्शेकदम को ही अपनाया। ऐसा न केवल कानून व्यवस्था के मामले में हुआ बल्कि शोषण की जितनी तरकीब अंग्रेज शासकों ने गढ़ी थी उसे आत्मसात करने में भारतीय हुक्मरानों ने किसी तरह की हिचकिचाहट महसूस नहीं की। कई मामलों में तो भारत के नीति निर्माता अंग्रेजों से ज्यादा शोषक की भूमिका में दिखते हैं। भारत में आज भी सड़क निर्माण के पीछे का दृष्टीकोण अंग्रेज शासकों के बरक्स ही होकर गुजरता है। यानी देश के जिस हिस्से से आर्थिक लाभ ज्यादा से ज्यादा अर्जित किया जा सकता है उन क्षेत्रों में सड़कों का विस्तार किया गया। आम नागरिकों के सरल आवागमन की व्यवस्था नदारद दिखती है। विकास के नाम पर निर्मित राष्ट्रीय राजमार्ग सुविधा के बजाय शक्तिशाली समूहों के वित्त अर्जन में बढ़ोतरी का जरिया बन रहे हैं। कोयला खदानों का उद्योगपतियों और राजनेताओं को अवैध आवंटन इसकी तस्दीक करती है।
भारत सरकार नक्सल प्रभावित इलाकों में माओवादियों से निपटने की दिशा में विकास को अपना हथियार बताती और इसे अपनाती भी है। इस विकास में सड़कों का निर्माण मुख्य है। जितने क्षेत्रों को माओवाद प्रभावित बताया जाता है वो दरअसल बहुमूल्य प्राकृतिक संपदा से समृद्ध हैं। इन हिस्सों में उद्योगपतियों व्दारा खनिज पदार्थों से लेकर आदिवासियों के जल, जंगल औऱ जमीन तक की लूट खसोट जारी है। इसमें सरकारी मशीनरी मददगार बन रही हैं। आदिवासी आबादी वाले इलाकों में मार्गों को भारी पैमाने पर विकसित करना यही दर्शा रहा है। इसमें राजनीतिक और आर्थिक हित सर्वोपरि है। जाहिर तौर पर इन रास्तों का निर्माण आने जाने का माध्यम नहीं बल्कि वर्चस्वशाली समूह के हित को साधना है। इसमें आम आदमी की सुविधा का सरोकार नहीं है।
जब सवाल सरकार के मंसूबों पर उठने लगे तो फिर उसके ढांचे की पड़ताल अनिवार्य हो जाती है। असल में, सरकार एक विचार की संरचना है। संसदीय लोकतंत्र में इसे समाज का प्रतिनिधि बताया जाता है। मगर सत्ता के इस निर्माण में ऊपर और नीचे के ताकतवर हिस्से की भूमिका हावी रहती है। इसीलिए सत्ता का शीर्ष इन शक्तिशाली समूहों के हितों का ख्याल रखता है। साथ ही अपने लोक कल्याणकारी छवि को बचाने के लिए भी उसे कुछ योजनाओं पर अमल करना पड़ता है। लेकिन इनमें कुछ योजनाएं सत्ता संचालित करने वाले प्राथमिक समूहों यानी गांवों में मौजूद सामंती तत्वों की ताकत को कमजोर करती हैं। लिहाजा यह समूह समाज के कमजोर वर्ग के लिए खड़े होने वाले विकास में अड़ेगे डालता है। विचार की इस संरचना को इस तरह समझा जा सकता है कि एक तरफ सरकार नाम की संस्था ऊपर के वर्चस्वशाली वर्ग को खुशामंद करती है तो दूसरी ओर उसकी संरचना का निचला हिस्सा कमजोर तबके के विकास को रोकने का कुचक्र रचता है। इस सिद्धांत की पुष्टी मेरे गांव के ग्रामीणों का संघर्ष कर रहा है।गांव के लिए सड़क की क्या भूमिका हो सकती है। बेरोकटोक आने-जाने की सुविधा। अथवा आज के संदर्भ को देखते हुए सीधा सा जवाब होगा कि सड़क विकास को पहुंचाने का माध्यम है। मगर पूर्वी उत्तर प्रदेश में देवरिया जिले के खड़ेसर और बिहार में वैशाली जिले के दौलतपुर चांदी गांव के लोगों के लिए सड़क का महत्व इसके रास्ते आने वाले विकास से कहीं ज्यादा आत्मसम्मान की डगर है।
आजादी के साथ वादा किया गया था कि सभी को समान अधिकार हैं, लेकिन छह दशक बाद देश में भले ही तमाम क्षेत्रों में प्रगति के दावे हों, चांद से लेकर मंगल तक की उड़ान की परियोजनाएं कल्पित हों, लेकिन एक अदद हकीकत यह है कि खड़ेसर जैसे हजारों गांवों तक की आवाजाही के रास्ते दबंगों के कब्जे में हैं। गांव के लोग आने-जाने के रास्ते के लिए संघर्ष कर रहे हैं। ऐसा नहीं है कि जनसंघर्ष को देखते हुए किसी जनप्रतिनिधि ने सड़क बनवाने का आश्वासन नहीं दिया है। लेकिन स्थानीय लोगों को आश्चर्य इस बात का है कि कोई अपने वादे पर खरा नहीं उतर पाया है। जबकि ग्रामीणों के आग्रह पर ग्रामसभा की तरफ से सड़क बनी थी, मगर गांव के दबंग उसे भी सुरक्षित नहीं रहने दे रहे हैं। सड़क के बीच से नाली खोद दी है, जिससे सड़क की मिट्टी पानी के साथ बह जा रही है। लोगों की आवागमन के रास्ते को रोकने या उसे नुकसान पहुंचाने का सीधा अर्थ है कि नागरिकों की आजादी को बाधित करना, क्योंकि संविधान अनुच्छेद-19 के तहत सभी नागरिकों को निर्बाध आवागमन का अधिकार देता है।
खड़ेसर गांव में सड़क के सहारे किसी के दरवाजे पर किसी साधन से पहुंचना संभव नहीं रह गया है। गांव में दिक्कत तब बढ़ जाती है, जब कोई बीमार हो जाता है। चूंकि कोई साधन दरवाजे तक नहीं पहुंच पाते हैं, इसलिए मरीजों को अस्पताल पहुंचाने में वे तमाम उपाय अपनाने पड़ते हैं, जो विकास का दावा करने वालों को शर्मिंदा कर दे। माता-पिता अपनी बेटी की विदाई दरवाजे से नहीं कर पाते हैं, लेकिन सार्वजनिक संपत्ति के नुकसान पहुंचाने की इस घटना पर सभी मौना बाबा बने हुए है।
खड़ेसर की तरह बिहार में वैशाली जिले के दौलतपुर चांदी गांव की स्थिति है। बिहार सरकार की संपर्क सड़क योजना के तहत पिछले दस साल से मार्ग निर्माण का काम अटका हुआ है। काफी मशक्कत के बाद थोड़ी सी सड़क बन पायी तो दबंगों ने रात में मशीन लगाकर उसे खोद दिया। दलित बाहुल्य गांव की आबादी के पास निकलने के रास्ते के नाम पर सवर्ण जातियों के खेत किनारे बनी पगडंडी है। इन दोनों मामलों से दो बातें स्पष्ट तौर पर उभरती हैं। पहला, गरीब और दलित जैसे वंचित तबके के लिए विकसित होने वाली सुविधाओं में बाधा खड़ी करते हुए सामंती व्यवस्था को बचाए रखना है। दलित व अन्य वंचित तबके के पास आने-जाने का रास्ता नहीं होगा, तो निश्चित तौर पर सवर्ण या संपन्न तबके के खेत या अन्य संपत्ति से गुजरने की मजबूरी बनी रहेगी। शक्तिविहीन वर्ग में यही मजबूरी वर्चस्वशाली वर्ग के ताकतवर बने रहने का फार्मूला है। यह गरीबों और कमजोरों के खिलाफ एक तरह की नाकाबंदी है, जो संपन्न सवर्ण तबके को दुस्साहसिक बढ़त देती है। यह नाकाबंदी प्रशासन के रूप में पूरी जातिवादी संरचना की तस्वीर को नंगा करती है।

ग्रामीणों के रास्ते पर कब्जे की शिकायत पर कार्रवाई न होना बताता है कि संविधान निर्माताओं की तरफ से देश को सामंती जकड़न से निकालने की कोशिश प्रभावी नहीं हो पा रही है। आजादी का लंबा समय बीतने के बाद आज भी देश में ऐसे कई मौके व जगहें हैं, जहां पहुंचते-पहुंचते संविधान के प्रावधान हांफने लगते हैं और सामंती व्यवस्था पूरी ताकत से जी उठती है। वहीं अयप्पन और दशरथ मांझी का संघर्ष केरल, बिहार और उत्तर प्रदेश के मार्फत बुनियादी सुविधाओं के बंटवारे को लेकर देश को आइना दिखा रहा है। 

साभारः सबलोग 

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