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शनिवार, 14 अप्रैल 2012

“कम लोग बातें ज्यादा”


विजय प्रताप

मीडिया स्टडीज ग्रुप के टेलीविजन कार्यक्रम सर्वेक्षण (टीपीएस) में मैंने पाया कि कैसे एक छोटा सा समूह टेलीविजन चैनलों में किसी मुद्दे पर होने वाली बहसों में एकाधिकार बनाए रखता है। सेना में भ्रष्टाचार के मुद्दे पर देश के विभिन्न टेलीविजन चैनलों पर हुई बहस में चार वर्गों के 54 लोग ही घूम फिरकर छाए रहें। मीडिया स्टडीज ग्रुप के टेलीविजन कार्यक्रम सर्वेक्षण (टीपीएस) के तहत एक सर्वेक्षण में मुझे विभिन्न मुद्दों पर आयोजित बहसों में हिस्सेदारी की पृष्ठभूमि की कई दिलचस्प जानकारियां मिली ।

‘कम लोग बातें ज्यादा’ नाम से किए गए इस सर्वे में हिन्दी और अंग्रेजी के तीन-तीन चैनलों के 26 मार्च से 2 अप्रैल के बीच प्रसारित किए गए 24 कार्यक्रमों में हिस्सा लेने वालों को शामिल किया गया है। सर्वे के परिणाम बताते हैं कि टेली बहस में भाग लेने वालों में देश की दो राजनीतिक पार्टियों कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी की 82 प्रतिशत की हिस्सेदारी है। 24 कार्यक्रमों में कुल 56 प्रतिशत लोग ही घूम फिरकर विभिन्न चैनलों में सेना के लिए खरीददारी में भ्रष्टाचार के मुद्दे पर अपनी राय जाहिर करते रहे। इसमें सेना के पूर्व अधिकारियों की हिस्सेदारी 31 प्रतिशत, राजनीतिक दलों की हिस्सेदारी 31 प्रतिशत, पूर्व नौकरशाहों की हिस्सेदारी 13 प्रतिशत और पत्रकारों की हिस्सेदारी 19 प्रतिशत और अन्य की हिस्सेदारी 6 प्रतिशत थी। इस मुद्दे पर समाज के व्यापक दायरे का यही प्रतिनिधित्व टेली बहस में दिखाई दिया।
सर्वे में 6 चैनलों पर दिखाए गए 24 कार्यक्रमों को उपलब्धता के आधार पर लिया गया है। 15 कार्यक्रम अंग्रेजी चैनल के और 9 कार्यक्रम हिन्दी चैनल के हैं। सर्वे में टेलीविजन चैनलों पर आयोजित बहसों में हिस्सेदारों का विश्लेषण में पाया गया है कि महिलाओं की हिस्सेदारी 9 प्रतिशत रही। सेना का प्रतिनिधित्व करने वाले टिप्पणीकारों में एक भी महिला नहीं है, जबकि पूर्व नौकरशाहों में एक मात्र महिला टिप्पणीकार ने अंग्रेजी के एक कार्यक्रम में हिस्सेदारी की। अंग्रेजी के ही चैनल पर एक मात्र महिला पत्रकार ने हिस्सेदारी की। राजनीतिक दलों की तरफ से तीन महिलाओं ने हिस्सेदारी की। इनमें कांग्रेस की दो महिला प्रवक्ताओं ने हिन्दी के चैनलों पर बहस में हिस्सा लिया तो भाजपा की एक मात्र महिला प्रवक्ता ने अंग्रेजी कार्यक्रम में हिस्सेदारी की। हम लोगों का यह ग्रुप पिछले छह वर्षों से मीडिया से संबंधित कई सर्वे और शोध कर रहा है। हाल ही में ग्रुप की ओर से अवनीश का ‘डीडी उर्दू चैनल’ पर किया गया सर्वे चर्चा में आया है।
सेना का प्रतिनिधित्व करने वाले हिस्सेदारों में एक सैन्य अधिकारी ने 6 कार्यक्रमों में हिस्सा लिया। उनका अकेले कुल कार्यक्रमों में पच्चीस प्रतिशत हिस्सेदारी और बाकी सैन्य टिप्पणीकारों में 35 प्रतिशत हिस्सेदारी रही। सेना के कुल चार प्रतिनिधियों की कुल कार्यक्रमों में हिस्सेदारी 75 प्रतिशत रही। राजनीतिक दलों में कांग्रेस के एक प्रवक्ता की हिस्सेदारी 21 प्रतिशत रही है। वे केवल अंग्रेजी के चैनलों पर दिखे। अंग्रेजी के चैनलों में उनकी अकेले की हिस्सेदारी एक तिहाई थी।
नौकरशाहों की मौजूदगी टेलीविजन चैनलों की बहसों में केवल अंग्रेजी के चैनलों में ही देखी गई। हिन्दी चैनलों के पास बहस के लिए एक भी पूर्व नौकरशाह नहीं था। हमारे इस ग्रुप के अध्यक्ष पत्रकार एवं पत्रकारिता के प्रोफेसर अनिल चमड़िया हैं।

सर्वे का विस्तृत ब्यौरा

सेना में खरीददारी में भ्रष्टाचार के मुद्दे पर 26 मार्च से 2 अप्रैल के बीच टेलीविजन चैनलों पर बहसें आयोजित की गई। यह सर्वे उन बहसों में हिस्सेदार लेने वालों के बारे में हैं।
इस सर्वे का उद्देश्य टेलीविजन चैनलो पर होने वाली बहसों में हिस्सेदारी का विश्लेषण करना है।
सर्वे में हिन्दी और अंग्रेजी के तीन तीन चैनलों के 24 कार्यक्रमों में हिस्सा लेने वालों को शामिल किया गया है।
हिन्दी चैनलों के नौ कार्यक्रमों को शामिल किया गया है जबकि अंग्रेजी के 15 कार्यक्रमों को शामिल किया गया है। यह कार्यक्रमों की उपलब्धता के आधार पर किया गया है।
इन बहसों में कुल 54 लोगों ने हिस्सा लिया। इसमें 5 महिलाओं की हिस्सेदारी थी।
इन बहसों और विमर्शों में कुल 17 सैन्य अधिकारियों ने हिस्सा लिया। उनकी हिस्सेदारी 31 प्रतिशत रही।

सैन्य प्रतिनिधित्व का विश्लेषण

1) एक सैन्य अधिकारी ने 6 कार्यक्रमों में हिस्सा लिया। उनकी कुल कार्यक्रमों में पच्चीस प्रतिशत और हिस्सेदारों में 35 प्रतिशत हिस्सेदारी रही।
2) तीन सैन्य अधिकारियों ने 4 - 4 कार्यक्रमों में हिस्सा लिया। इस तरह केवल चार अधिकारियों ने 75 प्रतिशत कार्यक्रमों में हिस्सेदारी की।
3) तीन सैन्य अधिकारियों ने 3-3 कार्यक्रमों में हिस्सा लिया। इस तरह 24 कार्यक्रमों में 7 सैन्य अधिकारी ऐसे थे जो किसी ना किसी एक बहस में उपस्थित रहे।
4) 6 सैन्य अधिकारियों ने केवल अंग्रेजी चैनलों, 9 ने केवल हिंदी चैनलों और दो ने दोनों चैनलों में हिस्सा लिया।
5) बहस में शामिल सैन्य अधिकारियों में एक भी महिला नहीं है।

राजनीतिक दलों के हिस्सेदारों का विश्लेषण

1) राजनीतिक दलों के कुल 17 प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया। उनकी हिस्सेदारी 31 प्रतिशत रही।
2) सभी प्रतिनिधि पांच राजनीतिक दलों से थे।
3) इन कार्यक्रमों में कांग्रेस के 8 और भाजपा के 6 प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया। कुल राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों में इन दोनों दलों की हिस्सेदारी 82 फीसद रही।
4) कांग्रेस के अभिषेक मनु सिंघवी ने 5 और भाजपा के तरुण विजय ने 3 कार्यक्रमों में हिस्सा लिया। ये सभी कार्यक्रम अंग्रेजी चैनलों के थे। भाजपा के भूपेंद्र यादव हिंदी के दो कार्यक्रमों में रहे।
5) 17 प्रतिनिधियों में से केवल एक जनता दल यूनाइटेड के साबिर अली क्षेत्रीय दल से हिंदी के कार्यक्रम में थे।
6) 17 प्रतिनिधियों में सीपीआई के केवल एक प्रतिनिधि डी राजा अंग्रेजी के कार्यक्रम में थे।
7) राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के तारिक अनवर हिंदी के दो कार्यक्रमों में मौजूद रहे।
8) इन कार्यक्रमों में कांग्रेस की 2 और भाजपा की 1 महिला प्रवक्ता शामिल हुईं। कांग्रेस की दोनों प्रवक्ता हिंदी चैनलों पर और भाजपा की प्रवक्ता अंग्रेजी के चैनल पर रही।

नौकरशाहों की हिस्सेदारी का विश्लेषण

1) कुल 7 नौकरशाहों ने हिस्सा लिया। उनकी हिस्सेदारी 13 प्रतिशत रही।
2) सभी नौकरशाहों की उपस्थिति अंग्रेजी के दो चैनलों में थी।
3) 3 नौकरशाह 2-2 कार्यक्रम में उपस्थित थे।
4) कार्यक्रमों में एक महिला नौकरशाह अंग्रेजी चैनल पर मौजूद रही।

हिस्सेदार पत्रकारों का विश्लेषण

1) इन बहसों और विमर्शों में रक्षा मामलों से जुड़े चैनलों में कार्यरत पत्रकारों के अलावा कुल 7 पत्रकारों ने हिस्सा लिया।
2) 24 कार्यक्रमों में सीएनएन आईबीएन के कार्यक्रमों की संख्या 7 है।
3) सीएनएन आईबीएन ने अपने 2 पत्रकारों को 2 कार्यक्रमों का हिस्सेदार बनाया।
4) एनडीटीवी ने एक कार्यक्रम में अपने एक पत्रकार को हिस्सेदार बनाया।
5) 7 में एक पत्रकार ने 4 कार्यक्रमों में हिस्सा लिया, एक ने 3 और एक ने 2 कार्यक्रमों में हिस्सा लिया। इन तीन पत्रकारों की कार्यक्रमों में हिस्सेदारी 37 और हिस्सेदारों में 42 फीसद रही।
6) सबसे ज्यादा 5 पत्रकार हिंदी के चैनल एनडीटीवी इंडिया के कार्यक्रम में आए।
7) एक मात्र महिला पत्रकार अंग्रेजी चैनल में हिस्सेदार रही

इन कार्यक्रमों में सैन्य अधिकारियों, नौकरशाहों, पत्रकारों और राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों के अलावा तीन अन्य लोग भी इनके हिस्सेदार बने।

1) एन हनुमनथप्पा ऑल इंडिया फेडरेशन ऑफ एससी, एसटी, ओबीसी, माइनॉरिटी वेलफेयर एसोसिएशन के कर्नाटक प्रदेश अध्यक्ष हैं। उन्होंने 2009 में ही सेना से जुड़ी खरीद-फरोख्त में घपलों की शिकायत की थी। वे अंग्रेजी के दो कार्यक्रम के हिस्सेदार रहे।
2) भारत अर्थ मूवर्स लिमिटेड (बीईएमएल) के पूर्व ठेकेदार अनिल बक्शी एनडीटीवी 24/7 के दो कार्यक्रमों में रहे।
3) सीएसडीएस के फेलो अभय कुमार दूबे एनडीटीवी इंडिया के एक हिन्दी कार्यक्रम में रहे।

3) सीएसडीएस के फेलो अभय कुमार दूबे एनडीटीवी इंडिया के एक हिन्दी कार्यक्रम में रहे।

शनिवार, 24 मार्च 2012

'कोई मुझे बचा ले'


वरुण शैलेश

हाल में पंजाब के मनसा जिले में एक पुलिसकर्मी व्दारा एक लड़की को निर्मता से पीटने का मामला सामने आया है। इस घटना को मीडिया में शर्मनाक बताया गया। बेशक यह घटना शर्मसार और पुलिसिया रवैये को उजागर करने वाली है। मगर एक सवाल हमेशा उठता है कि इस देश को शर्म केवल किसी संभ्रांत महिला के प्रति हुए उत्पीड़न पर आती है। क्या यह शर्म किसी आदिवासी महिला को थाने में बैठाकर उसके गुप्तांगों में पत्थर भरने से नहीं आती है। यह बेहद अफसोसजनक है जिस पुलिस अफसर के इशारे पर इस कुकृत्य को अंजाम दिया गया उसे भारत सरकार ने मेडल से सम्मानित किया। इससे सरकार की आदिवासी महिलाओं की अस्मिता और मानवीय सम्मान को लेकर कितनी गैरजिम्मेदार है। सम्मान देने पर महिला संगठनों का दिल्ली में प्रदर्शन भी हो चुके हैं। सोनी सोड़ी छत्तीसगढ़ में शिक्षिका हैं और उन्हें नक्सलियों का मददगार बताकर जेल में रखा गया है।कोलकाता के एक मेडिकल कॉलेज की रिपोर्ट में यह स्पष्ट है कि सोनी सोड़ी के निजी अंगों में पत्थर डाले गए थे। यह रिपोर्ट सुप्रीम कोर्ट को भेजी जा चुकी है। लेकिन न्यायपालिका भी चुप है। सोनी सोड़ी की चिट्ठी एक असहाय स्त्री के तकलीफ को बयां करने के लिए काफी है। लेकिन ऐसी स्थिति में न्याय की किससे उम्मीद की जाए। सोड़ी लगातार अपने पत्रों से पुलिस उत्पीड़न के बारे में बता रही हैं। मगर उनकी मदद को कोई सामने नहीं आ रहा है। संसद में आदिवासी प्रतिनिधियों की तादाद भी अच्छी-खासी है, लेकिन अभी तक वे सोनी सोड़ी को लेकर उदासीन ही दिख रहे हैं। ऐसे में आदिवासी संगठनों की सक्रियता और उनके औचित्य पर भी सवाल खड़े होते हैं। हालांकि देशभऱ में आदिवासी तमाम मोर्चों पर लड़ रहे हैं।

पुलिस के बर्ताव को हम यहां तो बताने की स्थिति में नहीं हैं लेकिन फिर भी उनकी कुछ लाइनों को सामने रख रहे हैं।1. मुझे करंट शॉट देने, मुझे कपड़े उतार कर नंगा करने या मेरे गुप्तांगों में बेदर्दी के साथ कंकड़-गिट्टी डालने से क्या नक्सलवाद की समस्या खत्म हो जाएगी। हम औरतों के साथ ऐसा अत्याचार क्यों, आप सब देशवासियों से जानना है। 2. जब मेरे कपड़े उतारे जा रहे थे, उस वक्त ऐसा लग रहा था कोई आये और मुझे बचा ले, पर ऐसा नहीं हुआ। महाभारत में द्रौपदी ने अपने चीर हरण के वक्त कृष्णजी को पुकार कर अपनी लज्जा को बचा ली। मैं किसे पुकारती, मुझे तो कोर्ट-न्यायालय द्वारा इनके हाथो में सौंपा गया था। ये नहीं कहूंगी कि मेरी लज्जा को बचा लो, अब मेरे पास बचा ही क्या है? हां, आप सबसे जानना चाहूंगी कि मुझे ऐसी प्रताड़ना क्यों दी गयी। 3. पुलिस आफिसर अंकित गर्ग (एसपी) मुझे नंगा करके ये कहता है कि तुम रंडी औरत हो, इस शरीर का सौदा नक्सली लीडरों से करती हो। वे तुम्हारे घर में रात-दिन आते हैं, हमें सब पता है। तुम एक अच्छी शिक्षिका होने का दावा करती हो, दिल्ली जाकर भी ये सब कर्म करती हो। तुम्हारी औकात ही क्या है, तुम एक मामूली सी औरत जिसका साथ क्यों इतने बड़े-बड़े लोग देंगे।

पुलिस का रवैया पूरे मामले में देश छोड़कर जा चुके अंग्रेजों के सामान है शायद उससे भी कहीं ज्यादा निर्मम। ऐसा लग रहा है जैसे इस मामले में वह अंग्रेजों की क्रूरता से आगे निकलने की चेष्टा में है। बचपन में कहानियां सुनते थे कि अंग्रेज सिपाहियों से अपनी इज्जत बचाने के लिए सैकड़ों महिलाओं ने कुएं में कूदकर जान दी अथवा आग में जलकर अपनी अस्मिता बचाई थीं। मगर आज घर के अंग्रेजों से भारतीय महिला कैसे अपनी इज्जत बचाए। क्या आज भी हम यह कहने की स्थिति में हैं कि अंग्रेज इस देश को छोड़कर जा चुके हैं और हम उनकी प्रताड़ना से आजाद हैं।

असल में, भारतीय समाज का एक बड़ा ढांचा कमजोर, गरीब, दलित और आदिवासी समुदाय को मानवेतर आंकता है। इसी ढांचे से नौकरशाही का तानाबाना भी बना है, जो खुद को शोषक के बतौर पेश करने में गौरवान्वित महसूस करता है। देश के शर्म का सवाल कब खड़ा होता है ? ऐसी घटना किसी सभ्रांत घर की महिला के साथ होता तो संभवत: शर्म का सवाल बनता। मगर सोनी सोड़ी की पीड़ा तमाम उन सामान्य घटनाओं जैसी लगती है जिनकी अमूमन नियति मानकर अनदेखी कर दी जाती है। नियति का खाका पीड़ित समुदाय के असहाय होने से तैयार होता है। उसके पास इन तमाम साजिशों से निपटने के लिए सचेत और मजबूत शख्सियतों का अभाव है। लोकतंत्र का विज्ञापन करने वाली सत्ता आदिवासी नेतृत्व या शख्सियत के खड़े होने में भी अड़ंगे डालती नजर आती है। इसका उदाहरण सोनी सोड़ी के भतीजे पत्रकार लिंगाराम कोडोपी को जेल में डालना है। क्या कोई गैर आदिवासी पत्रकार कोडोपी से बेहतर उनकी समस्याओं को उठा सकता है। कोडोपी को नक्सली मददगार बताकर उसे जेल में डालना आदिवासी समाज की आवाज कुंद करने की कोशिश को दर्शाता है।

शनिवार, 4 जून 2011

डाकघरों में निजीकरण का बढ़ता दायरा

अनिल चमड़िया

यूपीसी की सेवा का इस्तेमाल देश में करोड़ों लोग करते हैं लेकिन उसके इस्तेमाल करने वाले लोगों से इस संबंध में कोई बात करने की जरूरत नहीं समझी गई। आखिर इस सेवा से किसे नुकसान हो रहा था? क्या डाकघरों पर इससे कोई अतिरिक्त वित्तीय या कर्मचारियों का बोझ बढ़ रहा था ? डाक विभाग के नौकरशाहों के पास इसका कोई जवाब नहीं है

निजीकरण का अर्थ केवल यह नहीं है कि सार्वजनिक क्षेत्र की किसी सेवा को निजी कंपनी को दे दिया जाए। शासन में निजीकरण की प्रक्रिया कई स्तरों पर चलती है और व्यवस्था की नीति जब निजीकरण की है तो उससे कोई भी क्षेत्र अछूता नहीं हो सकता है। देश भर में भारतीय डाक व्यवस्था का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि मार्च 2010 तक शहरी इलाकों में डाकघरों की संख्या 15797 एवं ग्रामीण इलाकों में एक लाख 39 हजार 182 थी। भारतीय डाकघरों से सरकार को तीन वित्तीय वर्षो 2007-08 से 2010 तक 18 हजार करोड़ से ज्यादा का लाभ हुआ है। देश में डाकघरों के पूरे ढांचे के निजीकरण के प्रयास कई स्तरों पर चल रहे हैं।

कूरियर कंपनियों का व्यवसाय बढ़ाने के उद्देश्य से रजिस्र्टड पत्र और पार्सलों की सेवा दर बेतहाशा बढ़ा दी गई थी। निजीकरण की एक प्रक्रिया को और समझने की जरूरत है। वह है भरोसे को खंडित करने की प्रक्रिया तैयार होना। सार्वजनिक क्षेत्र पर लोगों को ज्यादा भरोसा होता है क्योंकि इसकी पृष्ठभूमि में लोगों के राजनीतिक आंदोलन होते हैं। इस भरोसे को दो तरह से तोड़ा जाता है। एक तो गैर जिम्मेदार होने का एहसास कराकर और दूसरे लोगों की क्षमता से ज्यादा सेवा दरों को बढ़ाकर। डाकघरों में दोनों ही तरह के प्रयास चल रहे हैं। डाकघरों में कई तरह की सेवाएं दी जाती हैं। उनमें गरीबों और मध्यम वर्गों के लिए एक जैसी लेकिन अलग अलग सेवाओं का एक ढांचा बना हुआ है। इसके उदाहरण के लिए रजिस्र्टड और डाक के लिए प्रमाण पत्र जैसी दो सेवाओं को लिया जा सकता है। रजिस्र्टड डाक में 20 रुपये से ज्यादा का भुगतान करना होता है तो डाक के लिए प्रमाण पत्र की सेवा ज्यादा से ज्यादा आठ रुपये खर्च करके ली जा सकती है। डाक के लिए प्रमाण पत्र की सेवा के तहत जो पत्र लेटर बॉक्स में डाला जाता है, उसे पोस्ट मास्टर के हाथों में दे दिया जाता है। पत्र लेते समय पोस्ट मास्टर एक कागज पर पत्र प्राप्ति की मुहर लगा देता है। उस कागज पर पत्र भेजने वाले को जिस पते पर पत्र भेजा रहा है वह पता लिखना होता है और उस पर तीन रुपये का टिकट लगाना होता है। इन तीन रुपयों में पत्र भेजने वाला एक साथ तीन पतों पर पत्र भेजने का प्रमाण पत्र हासिल कर सकता है। डाकघरों और कूरियर कंपनियों के महंगे होने के साथ डाक के लिए प्रमाण पत्र सेवा का चलन तेजी से बढ़ा है।

सूचना का अधिकार कानून 2005 के बनने के बाद सूचना के अधिकार कार्यकर्ता व जागरूक नागरिकों द्वारा भी इसका इस्तेमाल बढ़ा है। सूचना के अधिकार कानून में थोड़ा पैसा खर्च करने की क्षमता रखने वालों के लिए दस रुपये की फीस तय की गई तो गरीबी रेखा के नीचे के लोगों के लिए दस रुपये दिए बिना ही सूचनाएं लेने का अधिकार दिया गया। लेकिन सरकार ने अब एक तीर से दो निशाने किए। भारतीय डाक से डाक का प्रमाण पत्र यानी यूपीसी की सेवा समाप्त कर दी गई। मजे की बात यह है कि यह सेवा इतने गुपचुप तरीके से समाप्त की गई कि महीनों पता ही नहीं चला। जबकि इस सेवा को समाप्त करने की प्रक्रिया के तहत पहले डाक विभाग की नौकरशाही ने प्रस्ताव तैयार किया। उसके बाद इसके लिए मंत्री कपिल सिब्बल की स्वीकृति ली और बाद में इसे संसद के गजट में प्रकाशति भी किया गया। दरअसल इस दौर में तमाम लोक प्रतिनिधित्व वाली संस्थाएं कई तरह के बड़े-बड़े फैसले चुपचाप कर लेने की इजाजत देने के सबसे ज्यादा काम आ रही हैं। यूपीसी की सेवा का इस्तेमाल देश में करोड़ों लोग करते हैं लेकिन उसके इस्तेमाल करने वाले लोगों से इस संबंध में कोई बात करने की जरूरत नहीं समझी गई। आखिर इस सेवा से किसे नुकसान हो रहा था? क्या डाकघरों पर इससे कोई अतिरिक्त वित्तीय या कर्मचारियों का बोझ बढ़ रहा था ? डाक विभाग के नौकरशाहों के पास इसका कोई जवाब नहीं है। जबकि यह सेवा कितनी पुरानी है, इसका अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि इसकी भारतीय डाक अधिनियम 1935 में भी र्चचा है।

सवाल है कि जिस सेवा से डाकघरों को लाभ ही लाभ हो रहा हो और उसका इस्तेमाल भी लगातार बढ़ रहा हो तो यह आदर्श स्थिति कैसे लोगों को खटक सकती है लेकिन इससे निजीकरण की प्रक्रिया तेज होती है। जो लोग यूपीसी सेवा का इस्तेमाल करते रहे हैं, उसके बंद हो जाने के बाद वे क्या करेंगे। उनके पास एक ही विकल्प है कि वे डाक का प्रमाण पत्र हासिल करने के लिए डाक घरों में रजिस्र्टड कराने के लिए लंबी लाइन में लगें। लंबी लाइन इसीलिए होती है क्योंकि वहां कर्मचारियों पर पहले ही काम का बोझ ज्यादा है। जाहिर है कि तब अपने डाक का प्रमाण पत्र लेने के लिए कूरियर के बाजार की तरफ जाना होगा। इस सेवा के बंद करने के साथ दो और मजेदार बातें सरकार के मुंह से सुन लेनी चाहिए। सरकार ने संसद में नौ अगस्त 2010 को यह मानने से इंकार किया कि लोगों में डाकघरों की जरूरत कम हो रही है। यानी तमाम तरह की सूचना प्रद्योगिकी के बावजूद डाक घरों की जरूरत बढ़ रही है। दूसरी बात सरकार ने 15 नवम्बर 2010 को लोकसभा में ही कहा कि ग्रामीण इलाकों की बदतर सामाजिक और आर्थिक हालत देखते हुए ग्रामीण इलाको में डाकघरों के खोलने के संबंध में जो वित्तीय व आबादी के मानक तय किए गए हैं, उसके प्रति सरकार ने अपना रुख लचीला किया है। इन बातों के बावजूद डाक का प्रमाण पत्र जैसी सेवा को समाप्त करने का क्या मकसद हो सकता है?

दरअसल, पूंजीवादी लॉबी की सरकार के भीतर बुरी तरह पैठ हो चुकी है। वह बेहद निडरता और निर्लज्जता से वैसे फैसले कर रही है जिससे आम आदमी का सीधा सीधा रिश्ता है। दूसरी तरफ यह एक विपरीत स्थिति हो गई है कि बड़ी आबादी को प्रभावित करने वाले फैसलों को महज पैसे के आकार के कारण छोटा मानकर उसके विरोध में कोई बोलने को तैार नहीं दिखता है। देश में जो राजनीतिक सोच की धारा परिवर्तनगामी थी, वह पूरी तरह से मध्यवर्गीय चरित्र में ढल चुकी है। संसद में ही डाकघरों से संबंधित सवालों पर एक नजर डालें तो दिखाई देगा कि सांसदों का सरोकार डाकघरों की उन सेवाओं से नहीं है जिसका इस्तेमाल गरीब-गुरबा करता है। संसद के बाहर गरीब गुरबों की बात करने वाला भी इस तरफ नहीं सोच पाता। इस तरह का रुख तब भी देखने को मिला था जब सरकार ने देश के सभी लोगों को आयोडीनयुक्त नमक खाना अनिवार्य कर दिया और आयोडीन युक्त नमक के ब्रांड पैकेटों की मनमानी कीमत रखने की छूट दे दी गयी। तब से दो तीन रूपये किलों का नमक पांच छह गुना ज्यादा दाम से बिकता आ रहा है और कंपनियां करोड़ों कमा रही है। सरकार ने एक फार्मूला सा बना लिया है कि इस तरह के फैसले लो ताकि विरोध भी न हो और पूंजीवाद का विस्तार भी किया जा सके।

साभार : राष्ट्रीय सहारा

रविवार, 22 मई 2011

अधिग्रहण की पीड़ा

भूमि अधिग्रहण का संकट केवल भट्ठा-पारसौल तक सीमित नहीं है। आज देश में ऐसी कई अधिग्रहण हैं, जो खबर बन पाने के लिए तरस रहे हैं। भूमि अधिग्रहण से जुड़ी त्रासदी की एक कहानी उत्तर प्रदेश और बिहार को जोड़ने वाला हथुआ-भटनी प्रस्तावित रेलमार्ग के सहारे लिखी जा रही है। जहां हथुआ तक रेल पटरी बिछाने को लेकर 112.49 एकड़ जमीन के अधिग्रहण का नोटिस किसानों को मिल चुका है। लेकिन किसान किसी भी कीमत पर अपनी जमीन देने को तैयार नहीं हैं।

भूमि अधिग्रहण के खिलाफ पूर्वांचल के किसान लामबंद होकर पिछले तीन महीने से क्रमिक अनशन पर बैठे हैं। हथुआ-भटनी प्रस्तावित रेलमार्ग के लिए अधिग्रहित की जाने वाली जमीन की चपेट में 14 गांव हैं। जमीन अधिग्रहण की घोषणा होने के बाद इलाके में कुछेक घटनाएं किसानों के सामने पैदा हुए संकट का आभास कराती हैं। घटना इस साल 22 फरवरी की है। जब भूमि अधिग्रहण के विरोध में क्रमिक अनशन पर बैठे देवरिया जिले में बनकटा गांव के राम बरन चौहान की हार्ट अटैक से मौत हो गई। 55 वर्षीय राम बरन के पास महज 11 कट्ठा जमीन थी। जिसमें से नौ कट्ठा जमीन रेल पटरी के लिए ले ली गई । सब्जी की खेती कर गुजारा करने वाले राम बरन के सामने बाकी बची 2 कट्ठा जमीन पर गुजारा करना संभव नहीं रह गया था। पीड़ा और भविष्य की आशंका ने इस कदर घेरा कि दिल पर बन आयी। वैसे रामबरन की मौत इलाके में पहली घटना नहीं है। प्रस्तावित रेलमार्ग के लिए वर्ष 2006 में जमीन की पैमाइश के दौरान अपनी जमीन पर पत्थर गाड़ते देख रायबरी चौरिया गांव के सरल खेत में ही गिर पड़े। सरल भी जमीन छिनने के सदमे का शिकार हुए और दिल का दौरा मौत का बहाना बन गया।

दिल के दौरे से दो किसानों की मौत यह बताने के लिए काफी है कि किसी किसान के लिए जमीन का मामला महज आर्थिक नहीं है। किसान का जमीन से भावनात्मक नाता भी होता है। एक किसान अपने खेतों के कई नाम रखकर पुकारता है। कहें तो जमीन के साथ रिश्तों की तमाम कड़ियां जोड़ता है। ऐसे में जमीन छिनने का मतलब चट्टान के दरकने की तरह होता है,जिससे किसान का पूरा जीवन अनिश्चितता की खाई में चला जाता है। जमीन से मानवीय संवेदनाएं इस कदर जुड़ी हुई हैं कि जमीन बेंचने वालों को समाज सम्मान की निगाह से नहीं देखता है। जमीन का होना हैसियत तय करता है, यहां तक कि शादी-व्याह का निर्णायक पहलू बनता है। लेकिन विकास से आयातित व्याख्या में किसानों व आदिवासियों की इस मार्मिकता की कोई जगह नहीं है।

जमीन अधिग्रहण के समय छोटे किसान व भूमिहीन किसानों का संकट सबसे ज्यादा बढ़ जाता है। जिन्हें मिला मुआवजा किसी धोखे से कम नहीं होता है। जानना जरूरी है कि भारतीय कृषक परंपरा में किसान के लिए जमीन महज जीविका ही नहीं,बल्कि सोचने-समझने की ताकत होती है। यानी एक किसान खेती के काम के लिए ही कुशल होता है। लेकिन जब उसकी जमीन छिनती है तो उसकी खेतीगत कुशलता भी खारिज होती है। जिसके चलते रामबरन और सरल जैसे तमाम किसान अकुशलता वाले पेशे को करने शहर जाने या दूसरा रोजगार अपनाने के लिए मजबूर होते हैं।

विकास के मौजूदा मॉडल जनभावनाओं का ख्याल रख पाने में नाकाम हैं। यही वजह है कि सरकारों के विकास के दावे महज आर्थिक विकास दर तक केंद्रित होकर रह गये हैं। जनजीवन की गुणवत्ता में सुधार के दावे विज्ञापननुमा है,जिसकी सच्चाई भूख से होने वाली मौतें बयान करती है। कुल मिलाकर लागू आर्थिक नीतियों में भारतीय जनता की भलाई न के बराबर है। लिहाजा न केवल भूमि अधिग्रहण कानून में संसोधन की मांग होनी चाहिए,बल्कि इसके साथ-साथ शोषणकारी व्यवस्था को पोषित करने वाली आर्थिक नीतियों की समीक्षा की भी मांग होनी चाहिए। ताकि जनता व उसकी भावनाओं को बेदम होने से रोका जा सके।



शनिवार, 7 मई 2011

जामिया के छात्र अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल पर बैठे


परीक्षा सिर पर है और जामिया के छात्र अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल पर बैठने को मजबूर हैं। एक बार फिर से वजह बना है वीसी का अड़ियल रवैया। दरअसल जामिया विश्वविद्यालय में एम.ए.मॉस कम्यूनीकेशन के फर्स्ट ईयर और फाइनल ईयर के 13 विद्यार्थियों को परीक्षा देने से रोक दिया गया है। जामिया विश्वविद्यालय प्रशासन ने इसका कारण तय प्रतिशत से कम उपस्थिति बताया है। हालांकि विश्वविद्यालय के प्रावधानो के अनुसार छात्रों ने मेडिकल सर्टिफिकेट जमा कर के उपस्थिति में 15% की छूट हासिल करने की कोशिश की लेकिन छात्रों का भविष्य खराब करने पर उतारू वीसी और विश्वविद्यालय प्रशासन ने पेश किये गये मेडिकल सर्टिफिकेट को मानने से इंकार कर दिया। वि.वि.प्रशासन का तर्क है कि 15 दिन के भीतर मेडिकल सर्टिफिकेट नहीं जमा कराया गया है,जबकि विश्वविद्यालय नियमावली में ऐसी किसी शर्त की जानकारी नहीं दी गई है।

गौरतलब है कि जिन 13 छात्र-छात्राओं को परीक्षा देने से रोका गया है,उनमें 3 छात्र-छात्राओं की उपस्थिति 65 % से ऊपर,7 छात्र-छात्राओं की उपस्थिति 70% से ऊपर,2 छात्र-छात्राओं की 60 % ऊपर है। इसे देखकर कहीं से भी ऐसा नहीं लगता कि इन छात्रों में कोई भी अपनी उपस्थिति को लेकर लापरवाह था। लेकिन जामिया विश्वविद्यालय प्रशासन ने पूरे मामले में छात्र हित को सिरे खारिज कर दिया है।

दरअसल छात्रों के लिए 75 प्रतिशत की अनिवार्य उपस्थिति के नियम की मूल भावना ये है कि छात्र कक्षाओं में आएंगे तो कुछ सीखेंगे। इस नियम का अंतिम लक्ष्य यही है कि छात्र अधिक से अधिक सीखें,लेकिन पत्रकारिता के क्षेत्र में कदम रखने वाला छात्र लेबोरेटरी में नहीं सीख सकता। उसके सारे प्रयोग समाज को जानने और समझने से संबंधित होते हैं। बिना उनके बीच जाए पत्रकारिता को समाजोपयोगी नहीं बनाया जा सकता। क्लास में रटी गई परिभाषाओं के आधार पर परीक्षा तो पास की जा सकती है लेकिन कार्यक्षेत्र में व्यवहारिक अनुभव ही काम आता है।

इस मामले में हाईकोर्ट के जज ने वाइस चांसलर से अनुरोध भी किया था कि वे अतिरिक्त कक्षाएं लगाकर समस्या का समाधान कर सकते हैं,लेकिन वाइस चांसलर ने इस सलाह को मानने से इंकार दिया। जाहिर है, वीसी अगर उपस्थिति के नियम की मूल भावना का ख्याल रखते तो हाईकोर्ट के एक जज को इस तरह की सलाह देने की जरूरत ही नहीं पड़ती। लेकिन इस पूरे मामले से साफ है कि वीसी को विद्यार्थियों के हित की कोई चिंता नहीं है और सिर्फ एक नियम की आड़ में वे विद्यार्थियों पर तानाशाही कायम करना चाहते हैं।

जेयूसीएस मानता है कि पत्रकारिता के विद्यार्थियों को उपस्थिति के आधार पर परीक्षा से नहीं रोका जा सकता है। क्योंकि पत्रकारिता को केवल कक्षा के दायरे में नहीं समझा जा सकता है। पत्रकारिता को समाज के लिए उपयोगी बनाने के लिए जरूरी है कि इसके विद्यार्थी सामाजिक गतिविधियों,आंदोलनों को नजदीक से देखें। जिसके लिए विद्यार्थियों को कक्षा से बाहर जाने की छूट होनी चाहिए। लिहाजा पाठ्यक्रम बनाते समय इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए कि जो विद्यार्थी कक्षा के बाहर जाकर काम कर रहे हैं,उसे भी उनकी पढ़ाई का हिस्सा माना जाए। पत्रकारिता पाठ्यक्रम में ऐसी कोई व्यवस्था न होना संस्थागत कमी है। जिसे दूर करने के बजाय जामिया विश्वविद्यालय प्रशासन छात्रों के भविष्य से खिलवाड़ कर रहा है।

वीसी के अड़ियल और नौकरशाहीपूर्ण रवैये को देखते हुए जर्नलिस्ट्स यूनियन फॉर सिविल सोसायटी (जेयूसीएस) विद्यार्थियों को परीक्षा में बैठने देने की मांग का समर्थन करता है। छात्र हित को देखते हुए आप सभी लोगों से निवेदन है कि अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल पर बैठे छात्रों की मांग के समर्थन में आगे आये।

जेयूसीएस की तरफ से जारी -

शाहआलम, अली अख्तर, गुफरान,शारिक, अवनीश राय, विजय प्रताप, ऋषि कुमार सिंह, राघवेंद्र प्रताप सिंह, अरूण कुमार उरांव, प्रबुद्ध गौतम, अर्चना महतो, विवेक मिश्रा, राकेश, देवाशीष प्रसून, दीपक राव, प्रवीण मालवीय, ओम नागर, तारिक, मसीहुद्दीन संजरी, वरूण, मुकेश चौरासे,. शाहनवाज आलम, नवीन कुमार,

9873672153, 9910638355, 9313139941, 09911300375

मंगलवार, 19 अप्रैल 2011

अमलेन्दु उपाध्याय को जान से मारने की धमकी

प्रति,
सचिव
भारतीय प्रेस परिषद्
नई दिल्ली,


महोदय
पत्रकार संगठन जेयूसीएस आपका ध्यान अपने साथी पत्रकार अमलेन्दु उपाध्याय
को एक हिंदी दैनिक अखबार ‘स्वाभिमान टाइम्स’ के मालिक बनवारी लाल कुशवाहा
द्वारा जान से मारने की धमकी देने की ओर आकृष्ट करना चाहता है। अमलेन्दु
उपाध्याय पिछले काफी समय से इसी अखबार में सह-सम्पादक के पद पर कार्यरत
हैं।



14 मार्च 2011 को उनके मोबाइल फोन 09312873760 पर बनवारी लाल कुशवाहा
मोबइल नंबर 09309052522 से फोन कर भद्दी-भद्दी गालियां देते हुए उन्हें
जान से हाथ धो बैठने की धमकी दी। बनवारी लाल कुशवाह स्वाभिमान
टाइम्स के मुख्य प्रबंध निदेशक हैं। उनका धौलपुर में दूध का भी धंधा है।
कुशवाहा का कहना था कि 12 मार्च को उनके धौलपुर स्थित प्लांट के उद्घाटन
की 15 फोटो उनके अखबार के पहले पन्ने क्यों नहीं लगाई गई? हालांकि
अमलेंदु उपाध्याय का कहना है कि पहले पन्ने की जिम्मेदारी उनकी नहीं है।
ऐसे में अमलेंदु उपाध्याय को जान से मारने की धमकी देना संगीन मामला है,
जिसकी पूरी जांच होनी चाहिए।



बनवारी लाल कुशवाहा के इस आपराधिक कृत्य में स्वाभिमान टाइम्स के संपादक
निर्मलेंदु साहा की भी सहभागिता है। निर्मलेंदु साहा भी पहले इस पत्रकार
को धमकियां दे चुके हैं। अखबार के मालिक और संपादक द्वारा एक पत्रकार का
उत्पीड़न न काबिले बर्दाश्त है। यह न केवल पत्रकारिता के उसूलों के खिलाफ
है, बल्कि व्यक्ति के मानवाधिकारों का भी हनन है। चूंकि यह सर्वविदित है
कि कई बड़े अपराधी और काले धन वाले व्यक्ति अपने को पाक साफ बनाए रखने के
लिए मीडिया के धंधे में पैर जमा चुके हैं, जिसके चलते ईमानदार पत्रकारों
की सुरक्षा खतरे में पड़ गई है। ऐसे में यह अहम जिम्मेदारी भारतीय प्रेस
परिषद की है कि वह ऐसी घटनाओं की पुनरावृति रोके।
महोदय हमें दुखः के साथ कहना पड़ रहा है कि अमलेन्दु उपाध्याय द्वारा
परिषद् को सूचित किये जाने के बाद भी उनकी शिकायत पर कोई कार्रवाई नहीं
की गई। हम परिषद् से मांग करते हैं कि इस मामले की निष्पक्ष जांच की जाए
और पत्रकार धमकाने वाले दोषियों के खिलाफ कार्रवाई की सिफारिश की जाए।

द्वारा
विजय प्रताप, शाह आलम, राजीव यादव, शाहनवाज आलम, ऋषि कुमार सिंह, अवनीश
राय, राघवेन्द्र प्रताप सिंह, शिवदास, देवाशीष प्रसून, दिलीप, प्रबु़द्ध
गौतम, अरुण उरांव,वरुण शैलेश, अरुण वर्मा, अर्चना मेहतो, सौम्या झा,
विवेक मिश्रा, प्रवीण मालवीय, पूर्णिमा उरांव, सीत मिश्रा, नवीन कुमार।


संपर्क – 9696685616, 9452800752,9873672153

रविवार, 17 अप्रैल 2011

यूपीसी सेवा बंद, डाक विभाग के निजीकरण की साजिश

मीडिया स्टडीज ग्रुप की अपील-
यूपीसी सेवा समाप्त करने के खिलाफ आवाज उठायें।

डाक विभाग द्वारा यू पी सी की सेवा समाप्त कर दिया गया है। यूपीसी एवरीभिएशन है। अंडर (यू) पोस्टिंग(पी) सर्टिफिकेट(सी)। यू पी सी में डाक विभाग का कुछ भी अतिरिक्त खर्च नहीं होता है बल्कि डाक विभाग को इससे लाभ होता है। उपभोक्ता साधारण डाक को उचित टिकट लगाने के बाद उसे लेटर बॉक्स में डालने के बजाय पोस्ट ऑफिस में दे देता है। उपभोक्ता इस लिफाफे के साथ एक सादे कागज पर तीन रूपये का टिकट लगा देता है और उस टिकट युक्त कागज पर पोस्ट ऑफिस उक्त पत्र की प्राप्ति के सबूत के तौर पर मात्र एक मुहर लगा देता है। उपभोक्ताओं को यह छूट होती है कि तीन रूपये के टिकट पर एक साथ तीन लिफाफे यू पी सी के तहत दे सकता है। नाम से स्पष्ट है कि पोस्ट किए गए लिफाफे का महज एक प्रमाण पत्र उपभोक्ता को मिल जाता है। जिस देश में 76 प्रतिशत से ज्यादा आबादी 20 रूपये से कम पर गुजारा करती है वैसे समाज में इस तरह की सेवा की उपयोगिता का अंदाजा लगाया जा सकता है।लेकिन डाक विभाग ने यह सेवा समाप्त करके डाक विभाग में निजीकरण की प्रक्रिया को तेज करने की कोशिश की है। डाक विभाग ने पहले से ही रजिस्टर्ड डाक काफी महंगा कर दिया है।रजिस्टर्ड डाक महंगा किए जाने के पीछे देश में कूरियर कंपनियों को बढ़ावा देने योजना रही है। यह डाक विभाग की सबसे पुरानी सेवाओं में एक है। इसका उपयोग इन दिनों वैसे लोगों ने भी बड़े पैमाने पर करना शुरू किया है जो सूचना के अधिकार कानून का इस्तेमाल करते हैं। हमारा ये मानना है कि इस फैसले के जरिये सूचना के अधिकार कानून का इस्तेमाल करने वाले कार्यकर्ताओं पर अंकुश लगाने की भी एक कोशिश की गई है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को समाप्त करने के कई तरह के उपाय सत्ता करती रही है।इस तरह की सेवा को खत्म करना संविधान द्वारा दिए गए मौलिक अधिकार पर भी हमला है। हम यह मांग करते है कि सरकार को तत्काल यूपीसी की सेवा समाप्त करने के अपने फैसले को वापस लेना चाहिए। हम इस सेवा को समाप्त किए जाने के फैसले के खिलाफ एक अभियान चलाएं। सरकार यदि ये समझती है कि गरीबों के हितों वाली सेवाओं को समाप्त किया जाता है तो इस तरह के फैसलों के खिलाफ आवाज नहीं उठेगी। सिविल सोसायटी को इस तरह के मामूली मामलों में कोई दिलचस्पी नहीं होगी जिस तरह से नमक ( दो रूपये किलो का नमक आज पन्द्रह रूपये से ज्यादा कीमत पर मिलता है और इस बढ़ी कीमत को कोई ठोस कारण समझना किसी के लिए भी मुश्किल है।) की कीमत के बढ़ने के पूरे मामले को समझा गया। लोकतंत्र में सरकार पर यह भरोसा रहता है कि वह जनहित का ध्यान रखेगी। यदि सरकार यह भरोसा तोड़ती है तो यह लोकतंत्र की अवधारणा को खंडित करने की कोशिश मानी जानी चाहिए। आप इस अभियान में साथ दें। डाक विभाग के मंत्रियों और अधिकारियों को ईमेल भेजे।पत्र लिखें।
मंत्रियों के नाम व संपर्क सूत्र इस प्रकार है।

Shri Kapil Sibal 24362333 ( Fax) ,24369191,24362626,23010468, 23795353 (Fax)
23017146 email: mocit@nic.in

2.Minister of State Shri Gurudas Kamat 23372248 23372247 6624 23092626, 23092627 (FAX) 23092626 email: gurudas.kamat@nic.in

3) Minister of State Shri Sachin Pilot 24360958 (fax) 24368757
24368758 24364332 24364333 ,23795060, 23795070, 23795080 ( There is no email address of leader of young mr. sachin pilot

4.Secretary (Posts) & Chairman PS Board ,Ms. Radhika Doraiswamy,email-secretary-posts@indiapost.gov.in

समाचार पत्रों में चिट्ठियां लिखे।फेसबुक और दूसरे सोशल नेटवर्किंग का भी उपयोग करें। जो पत्रकार है वे इसकी खबर लें और दें।सांसदों –विधायकों को भी जगाए।उन्हें सूचित करें कि यूपीसी सेवा समाप्त कर दी गई है। उनसे भी पत्र लिखवाए और बय़ान जारी करवाए। सूचना के अधिकार के तहत केन्द्रीय सरकार के डाक विभाग से यह जानकारी मांगे कि इस सेवा को समाप्त किए जाने की क्या वजह है।आप इस अभियान में दो से पांच मिनट का वक्त भी निकालें तो आपकी भूमिका से सरकार को अपना फैसला वापस लेना पड़ेगा।

साथियों की ओर से,
अनिल चमड़िया