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गुरुवार, 6 फ़रवरी 2014

संरक्षण के दायरे से बाहर आदिवासी


                                                                  वरुण शैलेश

देश के विभिन्न हिस्सों में आदिवासी अपने जल, जंगल और जमीन की लड़ाई लड़ रहा है। सत्याग्रह जैसे अहिंसक आंदोलन को लोकप्रिय बनाने वाले महात्मा गांधी के रास्ते पर चलकर भी वह अपनी जमीन बचा पाने में नाकाम है। ध्यान देना होगा कि संसदीय लोकतंत्र में सरकार देशवासियों के अधिकारों की रक्षक होती है। लेकिन सरकार ही अधिकारों की अनदेखी करे या खुद ही शोषणकर्ता की भूमिका में आ जाए, तो नागरिक के लिए सरकार जैसी संस्था पर भरोसा कैसे कायम रह सकता है। भारतीय गणतंत्र में सरकार के सामने इस विश्वास को कायम करने की चुनौती होनी चाहिए, मगर तस्वीर इसके विपरीत बनती दिखाई दे रही है।
देशभर में आदिवासियों को उनकी जमीन से बेदखल करने की नीति को इस बानगी के तौर पर देखा जा सकता है। मध्य प्रदेश में होने वाले सत्याग्रहों की कड़ी में अब पट्टा सत्याग्रह भी जुड़ गया है। यह सत्याग्रह खेती के लिए जमीन का पट्टा हासिल करने के लिए समाज के सबसे कमजोर हिस्से के बैगा आदिवासी कर रहे हैं। डेढ़ साल बीत चुका है, लेकिन सत्याग्रही आदिवासियों को अब तक राज्य सरकार से सिर्फ निराशा ही मिली है। गौर करें तो बैगा, देश के आदिवासियों में सबसे पुरानी जनजाति में से एक है। जनजाति के अस्तित्व को खतरे में जानकर केंद्र सरकार ने इनकी सुरक्षा के लिए अनेक योजनाएं चलाई हैं। इसी के तहत बैंगा जनजाति के लोगों को राष्ट्रीय मानव घोषित किया गया है।
ऐसी घोषणाएं व संरक्षण अभियान खोखले नहीं हैं तो और क्या हैं?   कारण साफ है कि मध्य प्रदेश के मंडला जिले में रहने वाले इन आदिवासियों को वन भूमि पर खेती करने की इजाजत नहीं मिल रही है। बताते चलें कि बैगा आदिवासी वन भूमि पर अलग तरह से खेती करते हैं। वे जमीन को जोतने के लिए हल इत्यादि का इस्तेमाल नहीं करते, क्योंकि वे धरती को मां मानते हैं और उनकी नजर में हल चलाना मां के सीने पर चाकू चलाने जैसा है। लिहाजा, हर वर्ष उनकी खेती का क्षेत्र बदलता रहता है। मंडला में वन विभाग ने आदिवासियों के लिए जंगल में खेती करने पर रोक लगा दी। इसके चलते ये परिवार अपनी परंपरागत खेती से वंचित हो गए हैं। वन विभाग की इस कार्रवाई के विरोध में और भूमि अधिकार की मांग को लेकर मथना गांव के लगभग 40 परिवारों के 140 लोग अगस्त 2012 से ही पट्टा सत्याग्रह कर रहे हैं। सत्याग्रह में महिलाएं व बच्चे भी शामिल हैं। पट्टा सत्याग्रह में शामिल सुशीला बाई का कहना है कि प्रशासन ने न केवल उन्हें वन भूमि पर खेती करने से रोका,  बल्कि उनकी खड़ी फसल को पूरी तरह नष्ट कर दिया है। उनका आरोप है कि वन विभाग ने  कुछ रसूखदार लोगों के इशारे पर जानवरों के जरिए उनकी फसल नष्ट कराई है। सत्याग्रह कर रहे परिवार दिन में एक बार भोजन करते हैं और न्याय हासिल करने जंगल की उसी जमीन पर रातें बिता रहे हैं, जहां पर उनकी उगी हुई फसल को नष्ट किया गया है। आंदोलनकारियों का कहना है कि उन्होंने प्रशासन से जमीन का पट्टा मांगा है, ताकि वे खेती कर अपना भरण-पोषण कर सकें, लेकिन उनकी नहीं सुनी जा रही है। बैगा जनजाति के मुखिया कारेलाल का कहना है कि ग्रामसभा ने उन्हें पट्टा देने का प्रस्ताव पारित किया है। इसके बावजूद उनकी मांग अनसुनी की जा रही है। वे अपनी मांग से मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को भी अवगत करा चुके हैं, मगर इसका भी कोई फायदा नहीं हुआ है। कारेलाल का आरोप है कि वन अधिकार कानून लागू होने के बाद भी उन्हें पट्टा नहीं दिया जा रहा है और उन्हें घरों से बाहर कर दिया गया है। इस स्थिति में उनका जीवन ही संकट में पड़ गया है। ऐसी स्थिति में उनके लिए सत्याग्रह करने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा है। जब तक न्याय नहीं मिलेगा तब तक उनका सत्याग्रह जारी रहेगा। महत्वपूर्ण बात यह है कि बैगा आदिवासी जंगल में रहते हैं और उनका समाज के अन्य वर्गों के साथ कोई सीधा जुड़ाव नहीं है। लिहाजा उनकी आवाज में साथ आने के लिए कोई तैयार नहीं है। सत्याग्रह कर रही राधा बाई कहती हैं कि वे जंगल से बाहर नहीं जाएंगी, भले ही मर जाएं। मंडला के जिलाधिकारी लोकेश जाटव का कहना है कि प्रशासन ने बैगा जनजाति को सामुदायिक भूमि अधिकार दे दिया है, इसमें उन्हें कोई दिक्कत नहीं है। जिला प्रशासन के फैसले को सत्याग्रही परिवार नाकाफी मान रहे हैं। हालांकि पट्टा सत्याग्रह करने वाले आदिवासी जिस साहस का परिचय दे रहे हैं, उससे स्पष्ट है कि वे संघर्ष का मन बना चुके हैं। यदि सत्याग्रह आंदोलन लंबा चला तो राज्य में हक की लड़ाई के लिए अब तक हुए सभी सत्याग्रहों जैसे- जल सत्याग्रह, चिता सत्याग्रह राज्य सरकार को नई चुनौती पेश कर सकता है।
सुनिया बाई मध्य प्रदेश में कटनी जिले के बुजबुजा और डोकरिया गांव के किसानों के लिए चिता सत्याग्रह कर रही थीं। मध्य प्रदेश सरकार से 24 नवंबर, 2009 को हुए समझौते के आधार पर वेलस्पन नाम की कंपनी को इन गांवों में 1980 मेगावाट क्षमता की ग्रीनफील्ड ताप विद्युत परियोजना लगाने की मंजूरी दी गई थी। सरकार दो हजार एकड़ जमीन देने के लिए राजी थी, जिसमें 1400 एकड़ जमीन का बंदोबस्त हो पाया है। इसमें 800 एकड़ सरकारी जमीन शामिल है। बाकी 600 एकड़ जमीन किसानों से अधिग्रहित की जा रही है। किसान इसी का विरोध कर रहे हैं। जमीन अधिग्रहण का विरोध करने की वजह से सुनिया बाई प्रशासन के निशानें पर आ गई और प्रशासन के उत्पीड़न से तंग आकर उन्होंने खुदकुशी कर ली।
सुनिया बाई की खुदकुशी बताती है कि इस लोकतांत्रिक देश में नागरिक को सर्वोच्च बताने का नारा कोरा है। यह उस प्रचारकों के मुंह पर तमाचा है, जो भारत को दुनिया का सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश के रूप में प्रचारित करते हैं।
अखिल भारतीय सेवा के अधिकारी रहे डॉ. ब्रह्मदेव शर्मा अपनी नियुक्ति के दौरान आदिवासियों की तमाम समस्याओं को जाना। डॉ. ब्रह्मदेव शर्मा ने इन्हीं अनुभवों को टूटे वायदों का अटूटा इतिहास के नाम से किताबों की शक्ल दी। यह किताब आजादी के बाद आदिवासियों के सवालों को सामने रखती है। वे लिखते हैं कि आदिवासी इलाकों में विकास के संदर्भ में छोटी-छोटी बातों पर व्यापक दृष्टिकोण व समझ जरूरी है, ताकि प्रत्येक समुदाय की विशिष्ट जरूरतों व समस्याओं को ध्यान रखते हुए विकास कार्यों को लागू किए जा सके। विविधता को खारिज कर सबके लिए एक समान नजरिया ठीक नहीं होगा। आदिवासी समाज किसी विशिष्ट क्षेत्र या रहवास से भावनात्मक तौर पर जुड़ा होता है। यह सोच राज्य की सार्वभौम सत्ता की मान्यता के ठीक विपरीत है। आदिवासी सोच में जमीन संपत्ति नहीं है। उसका प्रबंधन आमतौर पर सामूहिक स्वामित्व और व्यक्तिगत उपयोग की पारम्परिक मान्यता के आधार पर होता है। देश की कानून व्यवस्था से उसे निकाल देने और सामान्य कानूनों को जैसा का तैसा लाद देने की व्यवस्था से आदिवासी समाज कमजोर बना दिया गया है। शासन के स्तर पर जिस बाजारवादी व्यवस्था को तरजीह दी जा रही है, उसमें सीधा सच्चा आदिवासी पूरी तरह संरक्षणविहिन हो गया है। 

सोमवार, 8 जुलाई 2013

                       
                 Justice for Maruti Workers

“Never, in all these years of my life had it occurred to me that the courts too care only about the rich. I am now beginning to believe that God too is only a rich man’s God.” The wife of a terminated Maruti worker

Dear Friend,
The saga of struggle in the Manesar plant of Maruti Suzuki that has unfolded over the past two years has both wrenched our hearts as well as filled it with hope. The courage and fortitude with which the workers and their families have carried on the struggle has been remarkable. At the same time, the unflinching posture assumed by the state and our political leaders in open and unqualified favour of the multinational auto manufacturer has once again underlined the skewed power relations in this country that prides itself on its vibrant democracy. The right to association, to a life with dignity and freedom of expression seems clearly dispensable against the weight of corporate interests.

The incident of18th July that led to the death of a HR Manager snowballed into international news. However, what was not reported was the way the Haryana police literally hunted down workers from their homes and even the streets. After the first few days of frenzied arrests, the police started picking up people to their own admission according to a list supplied by the management. 546 permanent workers were terminated along with 1,800 contract workers. The shop floor was conveniently purged of all those who had been part of the previous process of unionization or had ever dared to question unfair labour practices. The force with which the company, the government and unfortunately also the media has been putting forth the fact of a manager’s death serves to hide numerous other facts. Facts such as the prime witnesses presented by the company naming the accused in alphabetical order; such as the ever vigilant CCTV cameras being inexplicably switched off; such as the absolutely instrumental role played by the one manager who died in the incident in the registration of the Workers Union; and the presence of 100 hired bouncers in the premises. Instead, a sum of Rs 1.43 crore has been paid to the Public Prosecutor who in contravention to his mandate of representing the law of the land has turned a deaf ear to all these and other such inconsistencies in the management’s account. The workers have been demanding an independent enquiry into the incident because of the explicit bias of the Special Investigation Team of the Haryana Police, but to no avail. Evidently, all the arguments and requests being made by the workers have been conveniently set aside by branding their protests as that of “Ultras”, where even asking for one’s basic Constitutional rights appear as stretching the limits of democracy and in that having the verdict as good as passed against them even before the charges have been framed.

For the workers, 18th July has never been the defining moment of their agony. The enormous workload, the absolute denial of any paid leave and the deduction of almost 50% of the monthly salary on account of just a few days of absence are what constitute the major part of their narrative of the Maruti story. The 2,600 employed on contractual basis would add to this list the pittance they received as a salary, life under the constant threat of losing their jobs, no transportation facility and the added humiliation and harassment at the hands of the contractors. It is no wonder then that the promise of their own union, a collective which could voice these countless personal agonies that none of them could individually raise, has been so precious to the workers and even their families. More precious than any “package” that was offered to them to surrender this one right, more precious even than the job many of them had worked so hard to get, in a

We invite you to be a part of a solidarity program along with Achin Vanaik; Anand Swaroop Verma; Arundhati Roy; Ashok Bhowmick; Bhasha Singh; Manglesh Dabral; Maya Rao; Pankaj Bisht; Praful Bidwai; Professor Jagmohan; Prashant Bhushan; Rahul Ram; Rajinder Sachar and others to express support and solidarity for the struggle of the workers of Maruti Suzuki.
Date: Saturday, July 13 Time: 3pm to 6pm,Venue: The Indian Society International Law
auditorium, Bhagwan Das Road, New Delhi.

world where they knew that another such job would not be easy to come by having once been thrown out of a company like Maruti.
The Chandigarh High Court verdict dismissing the bail application of nine workers who have been in jail since July 2012 states, “The incident is a most unfortunate occurrence which has lowered the reputation of India in the estimation of the world. Foreign investors are not likely to invest their money in India out of fear of labour unrest.” On one hand, stand all the prospective foreign investors that India might have ever had, on the other, the entire lives of 147 innocent young men and their families. The fear of labour unrest among foreign investors that the Honourable High Court is so keen to allay is one deeply grounded in the knowledge of the brutally oppressive and exploitative work conditions prevalent across manufacturing units in the country.

Today in July, 2013, the entire past year weighs heavy on the hearts of the countless members of the workers’ families who have, every new day, been expecting relief. Not only has relief not been forthcoming but every attempt that they have made to appeal to the government has faced the threat of severe repression, precipitating finally on the 19th of May when Haryana Police contingents from six districts confronted and brutally lathi-charged workers and family members on their way to the state’s industrial minister to seek justice and to protest the arrest of 100 workers the night before from a peaceful demonstration in front of the District Commissioner’s office. Moreover, the workers and their families are now being denied any space to voice their protest, with all their appeals for permission to continue their peaceful demonstration at any given site being met with steady refusal. Manesar has been veritably turned into a militarized zone with heavy deployment of police and paramilitary forces in the entire industrial area and permission being denied to any program being organized by trade unions or workers organization, extending even to as basic a freedom of expression as distributing a pamphlet. Such are the conditions, in which the workers have decided to launch afresh their attempts to be heard by our administrators and have declared a peaceful demonstration and an indefinite hunger strike in Manesar starting on 18th July, 2013. In our opinion, such a challenge to the abject denial of their democratic rights by the workers will not only lend courage to the numerous other voices lying buried under the glitzy story of mounting profits in the entire industrial area, but also to all other democratic voices in the country struggling to be heard.

The treatment being meted out to the workers of Maruti and their family is a message to the people of the entire country that no argument for justice or rights shall be considered in the face of encouraging “development” and investment at any cost. On the passing of a year since the incident which has now come to epitomize the strong hand of corporate influence over justice and democracy; in the glow of the determination of the workers to continue their struggle against the many odds that face them; sharing their spirit and courage, we appeal to you to stand in solidarity with the struggling workers of Maruti Suzuki and against the ongoing ridicule of democratic rights. Further, to create a common platform for our messages of solidarity to the workers’ ongoing struggle movement and to send a clear signal to the administration and the judiciary that the people of this country will not remain silent bystanders to the violation of all democratic rights, let us meet on July 13. Your presence and support will go a long way!

                              Immediately Release All Arrested Workers of Maruti!
                                Stop the Routine Violation of Democratic Rights!
                                     Stop Favouring Profits over People!



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शुक्रवार, 25 जनवरी 2013


सुनिया बाई की मौत
                                                                                         वरुण शैलेश
सुनिया बाई की मौत की खबर नहीं बनी। गत नवंबर में इस पीड़ादायक घटना के दौरान प्रत्यक्ष विदेश निवेश की सीमा बढ़ाने, विकास दर को मजबूत करने और कसाब को फांसी देने के इर्द गिर्द सत्ता पक्ष और प्रतिपक्ष की राजनीति, यहां तक कि अखबारों, समाचार चैनलों की खबरें भी यहीं केंद्रित रहीं।
किसी बात के खबर होने के जो पैमाने गढ़े गये हैं, उसमें सुनिया बाई का नाम क्या इसीलिए शामिल नहीं हो पाया कि वे नागरिकों की जमीन छीने जाने के खिलाफ थीं। या कि सरकार उन्हें विकास की राह में रोड़ा मानती थी।
सुनिया बाई मध्य प्रदेश में कटनी जिले के बुजबुजा और डोकरिया गांव के किसानों के लिए संघर्ष कर रही थीं। मध्य प्रदेश सरकार से 24 नवंबर, 2009 को हुए समझौते के आधार पर वेलस्पन नाम की कंपनी इन गांवों में मेगावाट क्षमता की ग्रीनफील्ड ताप विद्युत परियोजना लगाना चाहती है। सरकार इसके लिए दो हजार एकड़ जमीन देने के लिए राजी थी। जिसमें 1400 एकड़ जमीन का बंदोबस्त हो पाया है। इसमें 800 एकड़ सरकारी जमीन शामिल है। बाकी 600 एकड़ जमीन किसानों से अधिग्रहीत की जा रही है, जिसका किसान विरोध कर रहे हैं।
जमीन अधिग्रहण का विरोध करने की वजह से वे प्रशासन के निशानें पर आ गयीं। प्रशासन की प्रताड़ना से आजिज आकर सुनिया बाई ने खुदकुशी का रास्ता चुना। लेकिन पुलिस को सुनिया बाई की मौत से उपजा असंतोष कानून व्यवस्था के लिए खतरा का भूत नजर आ रहा था। घटना से क्षुब्ध प्रदर्शन कर रहे किसानों से पुलिस ने सुनिया बाई के शव को जबरन छीनकर अंतिम संस्कार कर दिया।
म प्र में किसानों के चिता सत्याग्रह की एक तस्वीर
दरअसल, गांव वाले जमीन अधिग्रहण को लेकर चल रहे आंदोलन के दौरान सुनिया बाई को धमकी देने वाले अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई की मांग कर रहे थे। लोकतांत्रिक देश में नागरिक सर्वोच्च होता है। जबकि भारत को दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश के रूप में स्थापित किया जाता रहा है। मगर नौकरशाही की हनक रखने वाले सवालों के घेरे से बाहर हैं। जिनके लिए महिला किसान के शव का सम्मान करना उनकी खोखली धौंस के खिलाफ है। देश में किसानों विशेष तौर पर आदिवासियों के प्रति केंद्र समेत राज्य सरकारों के रुख की कहानियां कुछ और ही बयां कर रही हैं। तंत्र दिन-ब-दिन दमनकारी रुख अख्तियार करता जा रहा है। इसकी बानगी मध्य प्रदेश मानवाधिकार आयोग की एक जांच रिपोर्ट भी पेश करती है। रिपोर्ट बताती है कि राज्य के रायसेन जिले के बरेली में आंदोलन कर रहे किसानों के खिलाफ एके-47 और पिस्तौल का इस्तेमाल हुआ। साथ ही जरूरत से ज्यादा बल प्रयोग की बात भी सामने आई। पिछले वर्ष सात मई को बरेली में किसान बारदाना को लेकर प्रदर्शन कर रहे थे उसी दौरान हुई पुलिस की गोलीबारी का निशाना किसान हरि सिंह बने। आयोग ने इस मामले को लेकर जिला कलेक्टर मोहन लाल मीणा समेत विभिन्न अफसरों को तलब भी कर चुका है। क्या यह घटनाएं मध्य प्रदेश सरकार के कल्याणकारी होने के नाकाब को हटाने के लिए नाकाफी हैं। मध्य प्रदेश में जबरन भूमि अधिकग्रहण और उससे जुड़े दमन की दास्तां का मामला यहीं नहीं थमता। राज्य के डिंडोरी जिले में भी तमाम सरकारी विभागों के लिए आदिवासी किसानों की जमीनें ली गईं। लेकिन उन्हें उचित मुआवजा तक नहीं मिला और वे अब पलायन को मजबूर हैं। इसे लेकर राजनीतिक गलियारों में भी काफी असंतोष का महौल रहा। हालांकि कानून कहता है कि आदिवासियों को जमीन के बदले जमीन मिलनी चाहिए लेकिन सरकारी स्तर पर इन शर्तों की अनदेखी की जा रही है। इन मामलों को लेकर राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग भी नाराजगी जाहिर कर चुका है। आयोग के अध्यक्ष रामेश्वर उरांव ने राज्य के अनूपपुर और सिंगरौली जिले में नियमों को ताक पर रखकर आदिवासी किसानों की जमीन लेने पर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को चिट्ठी भी लिखी। उरांव ने पुर्नवास नीति 2002 का पालन न किए जाने और उचित मुआवजा नहीं दिए जाने पर नाराजगी जता चुके हैं।
संभव है कहा जाये कि सवालों के दायरे में सिर्फ मध्य प्रदेश ही क्यों जबकि जबरन भूमि अधिग्रहण तो देश के दूसरे हिस्सों में भी चल रहे हैं। लेकिन बीते सात आठ महीनों में राज्य में किसानों के खिलाफ सरकारी रवैया जिस तरह से उभरकर सामने आया है वह इस सवाल के जवाब में काफी है। कुछ महीने पहले ग्वालियर से दिल्ली के लिए कूच करने वाले सत्याग्रहियों में से एक आदिवासी किसान का कहना था कि 1947 में मिली यह आजादी उन्हें अपनी नहीं लगती। यह तकलीफ देशभर के आदिवासियों की अभिव्यक्ति है जो स्वतंत्रता के पहले और बाद में भी प्रायोजित सत्ता के निशाने पर हैं। इस स्थिति को समझने की जरूरत है। क्योंकि सुनिया बाई की मौत के बाद का पूरा घटनाक्रम कल्याणकारी राज्य का विज्ञापन करने वाली शासन प्रणाली की सुचिता पर सवाल खड़ा करता है।
लेकिन सवाल तो विकास दर की धीमी रफ्तार से चिंतित मीडिया के जनपक्षीय दावे पर भी उठाया जाना चाहिए जिसने सुनिया बाई की मौत को खबर के पैमाने से बाहर कर दिया।

शनिवार, 7 जुलाई 2012

“ईमाँ मुझे खैंचे है तो रोके है मुझे कुफ्र”



(‘मरंगगोड़ा...‘ को पढ़ते हुए)

रणेन्द्र 

महुआ माजी के बहुप्रतीक्षित उपन्यास ‘मरंगगोड़ा नीलकंठ हुआ‘ ने कई कारणों से अत्यधिक उत्सुकता जगा दी थी । एक तो स्थानीय अखबारों में इस उपन्यास के प्रकाशन के एक-दो महीने पूर्व से ही महुआ जी के आधे-आधे पेज के साक्षात्कारों ने उत्प्रेरक का काम किया था । उन साक्षात्कारों की विशेषता यह होती थी कि सारंडा के सघन वन, ‘हो‘ जनजाति, माओवाद एवं अथक शोध की चर्चा तो खूब होती थी किन्तु उपन्यास के मूल विषय जादूगोड़ा के यूरेनियम खनन, विकिरण और उससे दुष्प्रभावित होने वाली पीढि़यों की थीम पर रहस्य का पर्दा रखा जाता था । दूसरी ओर विश्व पुस्तक मेले में लोकार्पण के पहले ही राजकमल प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड द्वारा इस उपन्यास की पांडुलिपि को मैला आंचल-फणीश्वरनाथ रेणु कृति सम्मान प्रदान किये जाने ने उत्सुकता को चरम पर पहुँचा दिया। एक बड़े स्टार की बड़े बजट की भव्य फिल्म के सफलतम प्रदर्शन जैसा माहौल बनाने में दोनों सफल रहे ।

कल्पना का अन्त और यथार्थ की भयावहता
मई, 1998 राजस्थान के पोखरण में एटमी विस्फोट के जरिए जो अतिराष्ट्रवाद का बवंडर खड़ा किया जा रहा था, उसके राजनीतिक निहितार्थ स्पष्ट थे । किन्तु पूरा माहौल, पूरी मीडिया, प्रिन्ट-विजुअल सब राष्ट्रीयता में ‘उब-डूब‘ कर रहे थे । इसके खिलाफ बोलना देशद्रोही होना था । निजाम और नाभिकीय ऊर्जा के पीछे खड़ी पूंजी का यह बहुत ही पुराना और आजमाया हुआ टोटका था जो समय के साथ और धारदार होता गया ।

पोखरण की विकिरणयुक्त धूल अभी बैठी भी नहीं थी कि 14 अगस्त, 1998 के फ्रन्टलाइन में अरून्धति राय के आलेख ‘द एन्ड ऑफ इमेजिनेशन‘ ने ‘भारीजल‘ के बौछार का काम किया। सब साफ हो रहा था, राष्ट्रवाद का गुबार भी ।

अगले ही वर्ष 1999 में श्री प्रकाश (उपन्यास में आदित्य श्री) का वृत्तचित्र ‘बुद्धा विप्स इन जादूगोड़ा‘ प्रदर्शित हुआ, देखने का मौका मिला । विकिरण प्रभावित पीढि़यों की विकलांगता, फेफड़े के कैंसर, बाँझपन, आदि की भयावहता ने राष्ट्र-राज्य के आन्तरिक उपनिवेशवाद के घिनौने चेहरे को आईना दिखाया । जोआर (झारखण्डी ऑर्गनाजेशन अगेंस्ट रेडिएशन) के जादूगोड़ा स्थित कार्यालय में घनश्याम बिरूली (सगेन) एवं जेवियर डॉयस (जॉन डायस) से भेंट और ‘पीली खल्ली-काली करतूत‘ जैसे जेवियर के आलेखों ने यूरेनियम कॉरपोरेशन ऑफ इन्डिया लिमिटेड (यूसीआईएल) के पदाधिकारियों के सफेद झूठ पर से न केवल पर्दा उठाया बल्कि सर्ववंचितों की दबी-कुचली, पीड़ा-दुख, संत्रास-कराह को लगातार बुलन्द आवाज प्रदान की ।
साफ-सुथरी, कार्बन और ग्रीन गैसों से मुक्त वैकल्पिक ऊर्जा के रूप में नाभिकीय ऊर्जा की अपरिहार्यता को गोयबल्स के सिद्धान्त के तहत इतनी बार दुहराया गया कि भारतीय मध्यवर्ग ने इसे सहज स्वीकार कर लिया। इस स्वीकार्यता की पृष्ठभूमि में पंडित नेहरू एवं होमी जहांगीर भाभा का आभा-मंडल भी काम कर रहा था । 2020 ईस्वी तक 20,000 मेगावाट बिजली नाभिकीय ऊर्जा से उत्पन्न करने का लक्ष्य हमने स्वीकार कर लिया है । अप्रैल 2011 में फुकुशिमा के तीन परमाणु संयत्रों में विस्फोट की त्रासदी के बाद भी देश छह नये परमाणु रिएक्टर लगाने की जल्दी में है । तमिलनाडु के कुडनकुलम और महाराष्ट्र के जैतापुर में हो रहे जनविरोध के पीछे देशद्रोही ताकतें और विदेशी पैसा नजर आ रहा है । ऐसे धुँधलके भरे समय में ‘मरंगगोड़ा नीलकंठ हुआ‘ का प्रकाशन हिन्दी जगत के लिए अत्यन्त ही महत्वपूर्ण परिघटना है । विषय के चयन, जनपक्षधरता की विकलता, अछूते-वैज्ञानिक विषय के लगभग हर आयाम पर लेखिका की पकड़ की जितनी प्रशंसा की जाए वह कम होगी । उग्रराष्ट्रवाद, गोपनीयता, कार्बनमुक्त ऊर्जा के तिलिस्म और प्रतिष्ठित वैज्ञानिक संस्थानों के गहन झूठ के खिलाफ हिन्दी में ऐसी कोई कृति मेरी जानकारी में पहले प्रकाशित नहीं हुई ।

यूरेनियम खनन, नाभिकीय ऊर्जा उत्पादन, परमाणु बम एवं विकिरणयुक्त कचरे की आदिवासी इलाकों में डपिंग यूरेनियम विकिरण से जुड़े ये चार यक्ष प्रश्न हैं जिनका आदिवासी जीवन पर पड़नेवाले संहारात्मक कुप्रभाव, पर्यावरण विध्वंस एवं परमाणु निःशस्त्रीकरण जैसे तीन तीक्ष्ण कोणों से पड़ताल किए जाने की आवश्यकता ही मुख्यधारा ने महसूस नहीं की । जबकि ये न केवल झारखण्ड के जादूगोड़ा, मेघालय के खासी हिल्स जिले की समस्या है बल्कि कजाकस्तान, आस्ट्रेलिया, कनाडा, अमेरिका, लैटिन अमेरिका, रूस, उजबेकिस्तान, अफ्रीकी देशों आदि की भी कहानी यही है । हर कहीं पीढि़यों को धीमी-घिनौनी मौत देती जनसंहार की ये अमानुषिक गतिविधियाँ जनजातीय इलाकों में सत्ता प्रतिष्ठानों द्वारा निर्लज्ज भाव से संचालित हो रही हैं । किन्तु हिन्दी के साहित्यकारों की तो छोडि़ए टोही पत्रकारों का भी ध्यान इस ओर कम ही गया है ।

झारखण्डी ऑर्गनाइजेशन अगेन्स्ट रेडिएशन (जोआर) के संस्थापक घनश्याम बिरूली, (उपन्यास में सगेन), फिल्मकार श्री प्रकाश (उपन्यास में आदित्यश्री) एवं चाईबासा में आदिवासियों द्वारा संचालित एक गैर सरकारी संस्था ‘विन्दराई इन्स्टीच्यूट फॉर रिसर्च स्टडी एण्ड एक्शन (बिरसा) के जेवियर डायस (उपन्यास में जॉन डायस) इस उपन्यास के मुख्य पात्र हैं। यथार्थ में इन्ही तीन लोगों के प्रयास से जादूगोड़ा के विकिरण पीडि़त आवाम की लड़ाई न केवल शुरू हुई बल्कि राष्ट्रीय अन्तर्राष्ट्रीय मंचों तक पहुँची एवं यूसीआईएल को कई निरोधात्मक उपाय अपनाने पर मजबूर होना पड़ा।

जादूगोड़ा (उपन्यास में मरंगगोड़ा) हावड़ा-मुम्बई रेल लाइन पर टाटा नगर (जमशेदपुर) रेलवे स्टेशन से 24 किलोमीटर की दूरी पर है । 1967 ईस्वी से यूरेनियम कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड यहाँ की खदानों से यूरेनियम का खनन करवा रहा है जिसका शोधन भी जादूगोड़ा में ही होता है । प्रतिवर्ष तीन लाख रेडियोधर्मी कचरे की डम्पिंग भी इसी इलाके में होती है । खदान से निकलनेवाला कचरा इससे दस गुना ज्यादा यानी तीस लाख टन प्रतिवर्ष होता है ।

सगेन तीन पीढि़यों से इस धीमे जनसंहार का साक्षी है । उसके दादा (ततंग) जम्बीरा, उसके अपा (पिता) रेकोण्डा ने तो बजाप्ता खनिक (माइनर) के तौर पर कार्य किया है । परमाणु ऊर्जा विभाग द्वारा नियंत्रित यूसीआईएल बिना सुरक्षात्मक उपाय जैसे दस्ताने-विशेष ड्रेस आदि के अपने खनिकों को खदानों में उतारता रहा। यूरेनियम की पीली धूल कपड़ों - जूतों पर लिए बेपरवाह - गैर जानकार खनिक घर जाता रहा । पत्नियाँ उन यूरेनियम धूल भरे कपड़ों को नंगे हाथों धोती रहीं । नतीजन सगेन का दादा (ततंग) जम्बीरा और दादी (जियंग) सुकुरमनी पीब-लहू से बजबजाते घाव और कैंसर से मृत्यु के शिकार हुए ।

“खदान के मिल से लगातार निकलने वाले गीले कचरे, जिन्हें बड़े-बड़े पाइपों द्वारा लाकर बनाए गए डैम में डाला जाता, सूख कर सफेद मैदान का शक्ल लेते जा रहे थे । सगेन और उसके साथियों को खेलने की नयी जगह मिल गयी थी ।” (पृ. 91) यह है वैज्ञानिक संस्था की अक्षम्य लापरवाही का एक नमूना जो इलाके में विकलांगता की महामारी लाता रहा ।

सगेन के पिता रेकोण्डा ने कम्पनी के खिलाफ लड़ाई शुरू की, स्थानीय मजदूरों की बहाली की लड़ाई । नतीजन यूरेनियम चोरी-स्मगलिंग के अपराध, देशद्रोह के संगीन आरोप के साथ जेल में भेज दिए गए ।

सगेन अपने ताऊ के यहाँ भेज दिया जाता है जहाँ उसकी फिर से पढ़ाई शुरू होती है । कॉलेज के दिनों में सगेन झारखण्डी आन्दोलनकारी संगठनों के साथ जुड़ता है । सगेन जादूगोड़ा के इलाके में ‘बेरोजगार विस्थापित संघ‘ की स्थापना कर पिता की लड़ाई को आगे बढ़ाता है । बिरसा संगठन का जॉन डायस 1992 के द वल्र्ड यूरेनियम हियरिंग, श्लेजवर्ग, आस्ट्रिया में भाग ले कर लौटा है । उसे यूरेनियम विकिरण की भयावहता का अहसास हो चुका है । कम्पनी की नौकरी के प्रशिक्षण के दौरान सगेन भी यूरेनियम, विकिरण, अल्फा, बिटा, गामा किरणें, ऊतकों को भेदने की क्षमता की गहन जानकारी प्राप्त करता है । सगेन के साथ पाठक भी इस वैज्ञानिक विषय से परिचित होते हैं ।

जॉन डायस और सगेन कुछ मित्र डॉक्टरों की मदद से मरंगगोड़ा (जादूगोड़ा) के आसपास के गाँव-टोले में स्वास्थ्य सर्वेक्षण करवाते हैं । परिणाम के आधार पर लड़ाई आगे बढ़ती है । लड़ाई को और प्रामाणिक बनाने के लिए आन्दोलनों पर वृत्तचित्र बनाने वाले आदित्यश्री को मरंगगोड़ा आमंत्रित किया जाता है । कथा आदित्यश्री, उसके वृत्तचित्र ‘बुद्धा विप्स इन जादूगोड़ा‘ के निर्माण, जापान के विभिन्न शहरों में उसके प्रदर्शन, उसकी जापानी प्रेमिका मोमोका, सारंडा के माओवाद पर अध्ययन के लिए लन्दन से आई प्रज्ञा आदि के सहारे आगे बढ़ती है और अब तक उपेक्षित, अनदेखे नरक का द्वार झटके से खोल देती है । अन्तर्राष्ट्रीय मंचों-कार्यक्रमों में आदित्यश्री तथा सगेन की भागीदारी के बहाने पाठक पूरी दुनिया के जनजातीय इलाकों में सत्ता और पूँजी प्रतिष्ठानों द्वारा जबरन पैदा किए जा रहे नरक के कई संस्करणों से परिचित होता है । वह शिद्दत से महसूस करता है कि जापान का हिरोशिमा-नागासाकी अमेरिका का थ्री माइल आइलैंड न्यूक्लियर पावर प्लान्ट एक्सीडेंट, चेरनोबिल, फुकुशिमा के रास्ते मानवता और उसकी  माता पृथ्वी को नष्ट करने की कोशिशें निरन्तर जारी हैं।

महुआ माजी की यह सशक्त वैचारिक रचना अपनी सघनता और बहुआयामी विस्तार के साथ विषय की आतंककारी भयावहता एवं वैश्विकता से सुपरिचित करवाती, उद्वेलित करती है । यही इसकी सफलता है और लेखिका की परिश्रमी लेखनी का सुफल भी ।

यूनानी काव्यशास्त्री लोंजाइनस ने कहा था कि “पूर्ण निर्दोषता टुच्ची रचना का गुण है, उदात्त रचना का नहीं।” स्पष्ट है कि श्रेष्ठतम रचनाएँ भी निर्दोष नहीं हुआ करती । एक पाठक के नजरिए से ‘मरंगगोड़ा नीलकंठ हुआ‘ के पाठ में जो बातें खटकती हैं उनका उल्लेख भी जरूरी लगता है ।

‘पैचवर्क‘ भी एक कला है

कई सुधीजनों को फॉर्मेट-शिल्प के ख्याल से इसे उपन्यास मानने में कठिनाई हो सकती है । निबंधात्मकता इस पुस्तक की सबसे बड़ी समस्या है या सबसे बड़ा गुण, इसे तय करना कठिन है । विषय इतना जटिल, इतना संश्लिष्ट और वैज्ञानिक सूचनाओं से जुड़ा है कि इसे कथात्मकता में बाँधना एक दुष्कर कार्य था । घनश्याम बिरूली और श्रीप्रकाश के पास लगभग डेढ़ दशक से काम करते-करते पुस्तकालय भर सामग्री एकत्रित हो गई है। इंटरनेट पर तो इस विषय पर हजार पृष्ठों की सामग्री उपलब्ध है । लेखिका इनमें से अधिकतम का उपयोग करने का लोभ संवरण नहीं कर पाईं हैं । साथ ही विषय की विशिष्टता और महत्ता का लेखिका को इतना जबरदस्त अहसास है कि वे बिंदास तरीके से अखबारी कतरनों का भी सीधे-सीधे उपयोग करते दिखती हैं। उदाहरणार्थ पृ. 201 पर संदीप पाण्डेय की पदयात्रा का विवरण नाम-तिथि सहित। सुनीता नारायण का प्रेस वक्तव्य पृ. 364 । शैलेन्द्र महतो की पुस्तक ‘झारखण्ड की समरगाथा‘ में ‘जंगल आन्दोलन‘ (पृ 263-270), चांडिल गोलीकांड (पृ. 262) गुवा गोलीकांड आदि सविस्तार वर्णित है । वरीय पत्रकार अनुज कुमार सिन्हा भी प्रभात खबर में इन पर श्रृंखलाबद्ध आलेख प्रकाशित करते रहे हैं। इनका भी अधिकतम उपयोग लेखिका ने कर लिया है । डॉ बी. वीरोत्तम के ‘झारखण्ड: इतिहास और संस्कृति‘ एवं दमयन्ती सिंकु की पुस्तक ‘सिंहभूम के शहीद लड़ाका हो‘ से ‘हो इतिहास के उद्धरण, इतिहासकार डॉ अशोक कुमार सेन का आलेख तो पात्रों के संवादों में सीधे उद्धृत हैं आदि । हालाँकि लेखिका ने पुस्तक के अन्त में इन उद्धरणों के लिए लेखकों-सम्पादकों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित की है किन्तु ये सारे उपक्रम इसकी निबंधात्मकता को ही सघन करते हैं ।

इन निबंधों का पैचवर्क इतना ज्यादा हो गया है कि जम्बीरा-मन्जारी, सगेन-चारिबा, आदित्यश्री-मोमोका, आदित्यश्री-प्रज्ञा की कथाएँ ही पुस्तक की वैचारिकता का रसभंग करती नजर आती हैं । सच तो यह है कि भयावह यथार्थ से जुड़ी सूचनाओं की डपिंग का भार इतना ज्यादा हो गया है कि संवेदना उसे झेल नहीं पाती, कराहती दिखती हैं । कथा साहित्य में संवेदना और सूचना का संतुलन साधना एक अत्यन्त दुष्कर कार्य है जो कठिन श्रम और समय की माँग करता है । इस मोर्चे पर लेखिका थोड़ी सी चूकती हुई लगती हैं ।

उत्तर आधुनिकता के इस कठिन दौर में संश्लिष्ट यथार्थ को कलात्मक रचना में ढालने का बखूबी अंजाम कई वरिष्ठ, समकालीन एवं नये रचनाकार देते रहे हैं । सूची बहुत लम्बी हो सकती है किन्तु इस सन्दर्भ में संजीव का ‘जंगल जहाँ शुरू होता है‘, मैत्रेयी पुष्पा की अल्मा कबूतरी‘ राजू शर्मा का ‘विसर्जन‘, उदयप्रकाश का ‘मैंगोसिल‘, गीत चतुर्वेदी की ‘पिंक स्लिप डैडी‘, मनोज रूपड़ा के ‘प्रतिसंसार‘, कुणाल सिंह के ‘आदिग्राम उपाख्यान‘ आदि को देखे जा सकते हैं । ये सारे रचनाकार सूचनाओं को अपने मानस के ‘मेल्टिंग पॉट‘ में पहले पिघलने देते हैं । सच है कि इसमें कई वर्ष लगते हैं । किन्तु उसके बाद जो ढल कर निकलता है वह मुकम्मल रचना होती है, जिसमें ढूँढे भी ‘पैच वर्क‘ नहीं मिलते ।

भाषा का तमाशा

इस रचना की दूसरी बड़ी समस्या संवादों का तत्सम प्रधान होना है । संवाद सगेन के दादा जी (ततंग) बोल रहे हों या दादी बोल रही हों, चारिबा बोल रही हो या लन्दन से शोध करने आई प्रज्ञा सबके-सब, बोल-चाल में तत्सम प्रधान हिन्दी का प्रयोग करते हैं ।

सगेन के दादा जी जम्बीरा, दादी सुकुरमनी, मेन्जारी, साथी चारिबा, जब त्यागी-महात्मा, किंवदन्ती पुरूष, वीर, स्वाभिमानी, उदारता, प्राणियों, उल्लंघन, कुकृत्य आदि शब्दों का प्रयोग करते हैं तो असहजता उभरती है। लन्दन से आई ‘प्रज्ञा‘ जो बताती है उसकी हिन्दी अच्छी नहीं है लेकिन उसके संवाद में भी कोई सावधानी नहीं बरती गई है । प्रज्ञा तो कभी-कभी ऐसी प्राञ्जल हिन्दी बोलती दिखती है कि जयशंकर प्रसाद भी शरमा जायें। किसी पात्र के उच्चारण वैशिष्ट्य की झलक पूरी पुस्तक में कहीं भी नहीं मिलती ।

वीर भारत तलवार ने अपनी युवावस्था के कई महत्वपूर्ण वर्ष सिंहभूम-खूँटी-पंचपरगना के इलाकों में घूमते-संघर्ष करते बिताई है । अपनी पुस्तक ‘झारखण्ड के आदिवासियों के बीच‘ में उन्होंने एक पूरा अध्याय ‘आदिवासियों के हिन्दी के कुछ विशिष्ट प्रयोग‘ पर लिखा है । जिसमें उनकी हिन्दी शब्द-उच्चारण के खास लहजे एवं विशिष्ट वाक्य विन्यास को खोला गया है ।

आदिवासी पात्रों के संवाद, खास अन्दाजे बयां, कहन की खूबसूरती देखनी हो तो रोज केरकेट्टा के संग्रह ‘पगहा जोरी-जोरी रे घाटो‘ की कहानियों को पढ़ना चाहिए । नई पीढ़ी के कथाकारों के सिरमौर पंकज मित्र की कहानियों में उत्तरी छोटानागपुर की बोली खोरठा के उच्चारण, शब्दों के खास बलाघात, उससे उभरी ध्वनि की खूबसूरती को परखा जा सकता है जो उनकी कहानियों की खास पहचान, सिगनेचर ट्यून बन गयी हैं ।

इस पुस्तक के संवादों के तत्सम प्रधान होने के दो कारण समझ में आ रहे हैं । लेखिका की मातृभाषा बांग्ला में तत्सम शब्द घुले मिले हैं । वहाँ वे सहज रूप से समाहित हैं। अतएव उन्हें झारखण्ड-सिंहभूम के पात्रों के संवाद में भी वे कहीं से अटपटे नहीं लगते । दूसरी बात उपन्यास के लिए शोध के दौरान पुस्तकाकार रूप में या इन्टरनेट से प्रिन्ट के रूप में जो सामग्री लेखिका को मिली वह अंग्रेजी में थी । शब्दकोश से आई अनुवाद की भाषा स्वाभाविक रूप से तत्सम ही होगी। लेकिन इसी पुस्तक की पांडुलिपि को ‘फणीश्वरनाथ रेणु कृति सम्मान‘ से सम्मानित किया गया है । शायद जन्नतनशीन शख्सीयतों के साथ मजाक की नयी रिवायत चल पड़ी है ।

‘हो‘ समुदाय का मानवशास्त्र

न जाने क्यों ऐसा लगा कि पुस्तक के प्रारम्भ के लगभग डेढ़ सौ पृष्ठों में लेखिका ‘हो‘ समाज की एक-एक प्रथा-परम्परा के बारे में बताने के लिए आतुर हैं । ऐसा भान होता है कि इन प्रथाओं से परिचित करवाने के लिए ही कहानी गढ़ी जा रही है । पृष्ठ 34 से 37 तक सगेन के दादाजी जम्बीरा के विवाह की एक-एक रस्म पृष्ठ- 38 से 39 तक बच्चे के जन्म की रस्म, पृष्ठ 41 में एकसिया संस्कार और पृष्ठ 50 से 51 मृत्यु और अन्तिम संस्कार के विवरण ।  यहाँ साफ तौर पर पाठक को जबरन एंथ्रोपोलॉजी पढ़ाने का कार्य-व्यापार का अहसास होता है ।

महुआ माजी अपनी ‘हो‘ शब्दावली ज्ञान से इतनी अभिभूत हैं कि प्रथम पृष्ठ में ही उसकी बौछार पाठक को सचेत कर देती है । पृष्ठ 11 पर प्रयुक्त शब्द ‘मोतायेन‘ के लिए मैंने दमयन्ती सिंकु की कजि-बुरू: हो-हिन्दी शब्दकोश की शरण ली । वहाँ भी उसका अर्थ नहीं मिला तो मुण्डारी टुड कोठारि (मुण्डारी शब्दकोश) की शरण में गया लेकिन वहाँ से भी कोई सहारा नहीं मिला ।    लेकिन एक सवाल मन में यह भी है कि अगर जादूगोड़ा (मरंगगोड़ा) के मुख्य निवासी संताल हैं तो उनकी संस्कृति पर लेखिका की लेखनी ने कृपणता क्यों बरती है ? भूमिज एवं अन्य समुदाय भी सिरे से गायब हैं । गैर-आदिवासी भी महरूम है चर्चा से । सिंहभूम के पूर्व निवासी सराक और भूईयाँ का तो केवल उल्लेख करके छोड़ दिया गया है ।

वैचित्र्य का आग्रह

वीर भारत तलवार अपने लेखन और व्याख्यानों में भी आदिवासी इलाकों में ट्रिप लगा कर लिखने वालों के खिलाफ कड़ी टिप्पणियाँ करते रहे हैं । अपनी पुस्तक ‘झारखण्ड के आदिवासियों के बीच‘ के पृ. 437 पर तो वे महाश्वेता देवी की इस प्रवृति के विरूद्ध ही कड़ी टिप्पणी करते हैं।

स्वाभाविक है कि सोद्देश्य घूमना भी हमारे भीतर पर्यटकीय भाव जगाता है और वैचित्र्य के प्रति आकर्षण जगाता है । वही आकर्षण अनायास इस रचना में भी आया है । उदाहरण के तौर पर भोजन में भात के साथ ‘लाल चीटों की चटनी‘ (पृ. 24), भुने पंखहीन फतिंगे के साथ भुना भात (पृ. 128) आदि । यह आदिवासी समाज का दैनंदिन का भोजन नहीं है । यह समय-परिस्थिति विशेष का, कभी-कभार का भोजन है । यह लेखिका भी जानती हैं किन्तु वैचित्र्य के आग्रह के कारण यह विवरण पुस्तक में इस रूप में आया है मानो यह आदिवासियों का रोजमर्रा का भोजन हो । आखिर आदिवासी हमसे अलग जो ठहरे ।

उसी प्रकार आदिम एवं अल्प संख्यक बिरहोड़ों के प्रति जो बड़े आदिवासी-गैर आदिवासी समुदायों की हिकारत भरी किंवदन्तियाँ-अफवाहें हैं वे यथार्थ-वर्णन के रूप में आई हैं । सच तो यह है कि बन्दर खाते या अपने बुजुर्गों को मार कर खाते न सुना गया न देखा गया । यह धिक्कार-घृणाभाव समाज के स्तरीकरण का परिणाम भर है इसे समाजशास्त्री लेखिका से बेहतर कौन जान सकता है ।

असुर इस इलाके के सबसे प्राचीनतम अधिवासी हैं, जिन्हें पहले मुण्डाओं ने पराजित किया फिर उराँवों ने । पराजित कौमों को खल-राक्षस साबित करना हर वर्चस्वशील संस्कृति की खासियत रही है यही मुण्डाओं के सोसोबोंगा गीतिकथा का सत्य है । लेखिका इस विश्लेषण में नहीं जाती । नयेपन के आकर्षण में सुनी-सुनाई बातों, किंवदन्तियों, घृणा-धिक्कार भाव को हुबहू प्रस्तुत कर देती हैं ।

नाजुकी उनके दामन की क्या कहिए

यूरेनियम के खनन, नाभिकीय ऊर्जा, परमाणु बम एवं विकिरणयुक्त कचरा का निपटान इतने वृहद् और इतने मानवीय विषय हैं कि ईमानदार विश्लेषण के क्रम में पूरी दुनिया का सत्ता तंत्र और पूंजी तंत्र नंगा नजर आता है । कल्याणकारी राज्य, समता-आजादी-भ्रातृत्व पर आधारित जनतंत्र, हाशियाकृत समुदायों के मानवाधिकार हनन के विलाप से दिगन्त गूँजाती मीडिया, प्राण और देह की आजादी, हरेक को गरिमा पूर्ण जीवन जीने का हक आदि-आदि सबके सब प्राणहीन खोखले शब्द मात्र हैं, बस बातें हैं और बातों का क्या ? केवल जादूगोड़ा ही क्यों दुनिया के हर यूरेनियम उत्पादक देशों का आदिवासी इलाका ‘बलि दिया हुआ क्षेत्र‘ में बदल दिया गया है जहाँ उपर्युक्त चारों गतिविधियाँ अनवरत चल रही हैं ।

जादूगोड़ा (मरंगगोड़ा) में न केवल वहाँ के यूरेनियम खानों और मिल के विकिरण युक्त कचरे की डम्पिंग होती है बल्कि यूरेनियम की पीली खल्ली जादूगोड़ा से ‘न्यूक्लियर फ्यूल कॉम्पलेक्स‘, हैदराबाद पहुँचती है । प्रसंस्करण के बाद हैदराबाद से भी विकिरण युक्त कचरा लाकर पुनः जादूगोड़ा में ही डम्प होता है । इसके अलावे बी.आर.सी. रेफर मटेरियल्स प्लान्ट, मुम्बई एवं देशभर के चिकित्सा केन्द्रों के विकिरणयुक्त कचरे भी यहीं आ कर डम्प होते हैं । यह होता है खालिस ‘बलि दिया हुआ क्षेत्र‘ । मुख्यधारा के नागरिकों के स्वास्थ्य के साथ क्यों खिलवाड़ किया जाए उसके लिए आदिवासी तो हैं ही । जेवियर डायस, घनश्याम बिरूली इसे जेनोसायड मानते हैं जो कथित ‘राष्ट्रीय‘ नाभिकीय नीति का अन्तरंग हिस्सा है । यह तथ्य एक अलग तरह की तीक्ष्णता, टकराव, तनाव, संवेदना की माँग कर रहा था । स्वाभाविक है इसके बाद निजाम से सीधे टकराहट होती । ऐसे अप्रिय सवालों के अति तीक्ष्ण नोकों को ढ़ंका नहीं जा सकता । यह रचना ऐसे टकराहटों विवादों से बचने की कोशिश करती जान पड़ती है ।

मेघालय के खासी हिल्स जिले के छात्र-युवाओं-एक्टिविस्टों ने अनवरत संघर्ष कर 1990 में अपने यहाँ के यूरेनियम खानों को बन्द करवा दिया जबकि उस खनन के पक्ष में स्वयं पूर्व राष्ट्रपति एवं न्यूक्लियर वैज्ञानिक श्री ए.पी.जे अबुल कलाम खड़े थे । अतः इस प्रसंग से भी यह रचना किनारा करती है । विवादों में कौन पड़े ?

यूरेनियम या रेडियोधर्मी धातुओं से जुड़ी तीन लड़ाइयाँ दशकों से लड़ी जा रही हैं । पहली लड़ाई तो यूरेनियम के खनन को ही बन्द करने के सवाल को लेकर है, दूसरी लड़ाई खनन, कचरे, डम्पिंग का आदिवासी समुदायों के संहार और पर्यावरण विनाश से जुड़ी है । अन्तिम और तीसरी लड़ाई परमाणु निरस्त्रीकरण को लेकर है जिससे शोवेनिज्म, निजाम और पूँजी ज्यादा गहराई से जुड़ी है । यह रचना इस तीसरे सवाल पर सायास चुप्प सी रहती है ।

झारखण्डी ऑर्गनाइजेशन अगेंस्ट रेडिएशन (जोआर, उपन्यास में मोआर) 24 फरवरी 2004 को टूट गया । जेवियर डायस (जॉन डायस) वापस बिरसा संस्था में लौट गये । इन्टरनेट पर जेवियर डायस बनाम घनश्याम बिरूली एवं श्रीप्रकाश के टकराव पर कई सामग्री, आरोप-प्रत्यारोप सप्रमाण उपलब्ध हैं । दरअसल इन्हीं मानवीय टकरावों-अन्तद्र्वन्द्वों में, ईष्र्या-द्वेष, लोभ-लालच के बीच जिन्दगानी धड़कती है । यहीं कथा के सच्चे सूत्रों से भेंट होती है । कथारस का सोता इन्हीं द्वन्द्वों-तनावों से फूट कर निकलता है । किन्तु लेखिका यहाँ भी दामन बचा कर निकल लेती हैं।

घनश्याम बिरूली (सगेन) और उनके साथियों के सक्रिय होने के दशकों पहले 1979 में नक्सली नेता सत्यनारायण सिंह ने इस इलाके में ‘इन्डियन फेडरेशन ऑफ ट्रेड यूनियन‘ को सक्रिय किया था । सबसे पहले इसी संगठन ने ‘राखा कॉपर माईन्स‘ में खनिकों के लिए ‘रेडिएशन भत्ता‘ की माँग की थी । किन्तु नक्सल सहानुभूति के ठप्पे से बचने के लिए इस घटना का उल्लेख तक इस रचना में कहीं नही है ।

कामरेड सत्यनारायण सिंह की तो छोडि़ए लेखिका को अरून्धति राय के नाम लेने से भी परहेज है । केवल संकेत से काम चलाया गया है । (पृ. 200)

वामपंथी फिल्मकार आनन्द पटवर्द्धन यहाँ अनूप पटवर्द्धन के रूप में प्रकट होते हैं (पृ. 201) । जबकि सेलीब्रिटी एक्टिविस्ट सुनीता नारायण, रमन मैग्ससे पुरस्कार विजेता संदीप पाण्डेय क्रमशः पृ. 364 एवं पृ. 201 पर अपने सही नाम-धाम-काम के साथ मौजूद हैं ।

मेघा पाटेकर को सुमेधा पाणिकर क्यों बनना पड़ा ? (पृष्ठ 181) राँची की प्रतिष्ठित- जझारू पत्रकार-लेखिका वासवी किड़ो क्यों पल्लवी में तब्दील हुई ? जबकि शैलेन्द्र महतो, स्व. देवेन्द्र माँझी, मचुआ गगराई, सुले पूर्ति, निरल इनेम होरो, स्व. विनोद बिहारी महतो, दिशम गुरू शिबू सोरेन जैसे ढेरों लोग अपने सही नाम-काम के साथ रचना में यत्र-तत्र उपस्थित हैं। इस कृति में ‘नाम‘ उल्लेख भी सुचिन्तित, योजनाबद्ध, राजनीति-रणनीति के तहत लगता है । जिनका भविष्य में अब उपयोग नहीं होना उनका नाम परिवर्तित कर दिया गया है । जिनसे भविष्य में लाभ होना है वे अपने पूरे नाम-धाम के साथ मौजूद हैं । जिनसे विवादास्पद होने का भय है उनके नाम लेने से भी परहेज किया गया है ।

प्रज्ञा की दुविधा या लेखिका की

लन्दन से माओवाद पर समाजशास्त्रीय शोध करने आई प्रज्ञा सारंडा का पर्यटकीय भ्रमण कर ही सब कुछ जानना चाहती हैं । सारंडा भ्रमण के क्रम में चारिबा, हत्या आदि कुछ घटनाओं का उल्लेख करती है और बातचीत में ग्रामीणों के शोषण उनकी नक्सलियों के प्रति सहानुभूति, नक्सली नेताओं की गिरफ्तारी आदि की सूचना भी सामने आती है । (पृ. 286)

उसके बाद एक अध्याय ‘फायर ऑफ द फॉरेस्ट‘ में सारंडा की अशान्ति पर चिन्ता जताते हुए अखबारी कतरनों की सूची-विवरण प्रस्तुत किया जाता है । अब तक शोधार्थी माओवाद से फिसलकर उग्रवाद पर पहुँच चुकी है । एक नक्सली नेता का इनकाउटंर, पुलिसकर्मियों का जीप उड़ाया जाना, कुछ सैद्धान्तिक-सूचनात्मक बातें बस। माओवाद, नहीं उग्रवाद पर शोध खत्म।

माओवाद पर प्रोजेक्ट करने की दुविधा बस यही है कि यहाँ कोई बीच का रास्ता नहीं हो सकता । दामन की नजाकत नहीं बचाई जा सकती । अगर आप जनपक्षधर होंगे, ‘पोलिटिकली करेक्ट‘ होना चाहेंगे तो निजाम की आँखों की किरकिरी हो जायेंगे । दूसरी ओर सत्ता-प्रतिष्ठान और कॉरपोरेट नियंत्रित मीडिया की सुनेंगे तो उग्रवाद और हिंसा के अलावा कुछ और दिखेगा ही नहीं । साथ ही जनपक्षधरता की छवि भंग होने का खतरा अलग । खतरे दोनों हालत में हैं। अतः बेहतर यही है कि माओवाद के बदले मरंगगोड़ा की महिलाओं की सामाजिक स्थिति पर प्रोजेक्ट किया जाए।

बदशक्ल और बदअक्ल लोग ब्रान्ड एम्बेस्डर नहीं हुआ करते

एशिया का सबसे सघन वनों में एक ‘सारंडा‘ वैसे सैलानियों के लिए जिन्हें थोड़ा सा ऐडवेंचर, थोड़ी सी खतरे से खेलने की चाह रही हो उनके लिए दुर्दम्य आकर्षण केन्द्र रहा है। प्रज्ञा, आदित्यश्री, चारिब और अभिषेक के साथ पाठक पृष्ठ 225 से 326 तक लगभग सौ पृष्ठ तक सारंडा की यात्रा करता रहता है । एक ही यात्रा में मयूर, हिरण, हाथी, जंगली भैंसे सबसे भेंट होती है । पलाश के नारंगी और सखुआ फूलों के श्वेताभ सौन्दर्य से मदमाता जंगल, झरने का अलौकिक संगीत और प्रकृति की लुका छिपी । बीच-बीच में ‘हो‘ लोक कथा, इतिहास, लको बोदरा की वारड्चिति लिपि से भेंट, यही तो है झारखण्ड पर्यटन विभाग का अतुल्य-अद्वितीय झारखण्ड, रूमानी निगाहों से फील गुड करवाता, आमंत्रण देता, लुभाता । 

उफ यह नशा: भाग डी के बोस

यह रचना कथारस को गति देने के लिए जापानी युवती मोमोका-आदित्यश्री और प्रज्ञा-आदित्यश्री के प्रेम-प्रसंगों को पतवार बनाती है । मोमोका-आदित्यश्री और जापान में उतरा हुआ वसंत, सकुरा फूल की खूबसूरती एक बेहतरीन रूमानी परिवेश रचते हैं । किन्तु प्रज्ञा की मुखर यौनिकता अखरती है ? यहाँ कहन में घुली-मिली नहीं अलग से रेखांकित होती हुई यौनिकता मौजूद है यथाः “बंजर कहाँ ? देखकर तो लगता है अभी अभी जागी है अलसाई नींद से ! ”प्रज्ञा सोचती है,“ जरूर किसी के इन्तजार में अपनी देह बिछाए तैयार पड़ी होगी ।” प्रज्ञा के होठों पर शरारती मुस्कुराहट उभरती है ।” कौन हो सकता है वह शख्स ? अच्छा, अच्छा समझी ! हल ! हल का स्पर्श पाने को ही बेचैन होगी इसकी कामुक देह ! ... और उसका कोमल स्पर्श पाते ही अथवा उसके द्वारा क्रूरता से रौंदे जाते ही पैदा करेगी फसल !” (पृष्ठ 262)

प्रज्ञा-आदित्य के सेन्सुअस संवाद के क्रम में हवा कुछ ज्यादा ही हल्की ज्यादा स्तरहीन हो गई लगती है:
“जी नहीं । फिलहाल मुझे न तो किसी पाइप लाइन से नीचे उतरना पसन्द है और न ही किसी पाइप लाइन के सहारे किसी के अन्दर !” वाक्य के अन्तिम शब्दों को कुछ ज्यादा ही चबा चबा कर बोला आदित्यश्री । (पृ. 387)

नाम में क्या रखा है 

मरंगगोड़ा (मरंग: बड़ा, गोड़ा: समतल मैदान) ‘हो - संताल‘ समुदायों के इलाके का नाम है। दोनों संस्कृतियाँ अत्यन्त समृद्ध एवं विशिष्ट धार्मिक, आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से सम्पन्न हैं। अतएव मंरगगोड़ा के साथ शीर्षक के लिए ‘हो‘ या ‘संताल‘ मिथकों से ही किसी शब्द का चयन किया जाना चाहिए था । वैसे ‘नीलकंठ‘ का मिथक समुद्र मंथन से निकले हलाहल का पान कर पूरी सृष्टि को उसके संहार से बचाने का है । किन्तु मरंगगोड़ा या जादूगोड़ा अपने यूरेनियम खनन, प्रसंस्करण, परिवहन और कचरेपन के हलाहल से मानवता के संहार में लगा है। इस रेडियोधर्मी तत्व की विनाशलीला यहीं तक नहीं रूकती । मई 1998, पोखरन विस्फोट के चार साल बाद मुख्य भूमिका निभाने वाले न्यूक्लियर वैज्ञानिक महामहिम हो गये, राष्ट्र के प्रथम नागरिक किन्तु पोखरन के आस-पास के उन गाँव वालों का क्या हुआ जिन्हें विस्फोट के मात्र तीन घंटे पहले घर खाली करने को कहा गया । विस्फोट के बाद उनके खेत-घर सब रेडियोधर्मी धूल से भर गए । उनके देह-प्राण के संकट, धीमी मौत पर सब मौन हैं । (इकोनॉमिक एण्ड पोलिटिकल वीकली, अगस्त 22, 2009 पृ. 47) यानी यूरेनियम जैसा रेडियाधर्मी तत्व अपने हर रूप में जनसंहारक है । यह चरित्र तो ‘भष्मासुर‘ का है नीलकंठ महादेव शिवशंकर का नहीं । तो ‘मरंगगोड़ा नीलकंठ कैसे हुआ ?‘

आवरण-चित्र: आदिवासी ऐसे ही होते हैं

आवरण पर बैसन नृत्य के लिए तैयार बस्तर का आदिवासी युवा, चिन्ता की मुद्रा में दिख रहा है । चिन्ता आँखों में बाद में झलकती है उसके मुरैठे में सजा हुआ सींग पहले दिखता है जबकि पूरी पुस्तक में न बस्तर का जिक्र हुआ है, न बैसन नृत्य का और न मुरिया आदिवासियों का । तो फिर यह सींग सजा चित्र क्यों ? क्या यह मुख्य धारा की रूढ़ अवधारणा को और मजबूत नहीं करेगा जिसमें आदिवासी ‘अन्य‘ हैं, कुछ अलग जैसे, उत्सुकता जगाने वाले, थोड़े दया के पात्र, थोड़े डरावने भी ।

और अन्त में 

वीर भारत तलवार से क्षमायाचना के साथ कि ट्रिप लगा कर ही रामशरण जोशी ने ‘आदमी, बैल और सपने‘ जैसी महत्वपूर्ण कृति रची थी वैसी ही महत्वपूर्ण-स्मरणीय कृति महुआ जी ने भी रची है । ‘मरंगगोड़ा नीलकंठ हुआ‘ ने साफ-सुथरी ऊर्जा और अतिराष्ट्रवाद के घने घटाटोप से ढंके ‘बलि दिए हुए क्षेत्रों‘ के आतंककारी यथार्थ और मौन संहार के हाहाकार को जिस प्रतिबद्धता और जुनून के साथ आवाज दी गई है उसके लिए महुआ माजी लाख-लाख बार बधाई की पात्र हैं । यह सघन वैचारिक कृति सविस्तार, बहुआयामी प्रमाणों के साथ दुनिया भर के सत्ता प्रतिष्ठानों का मुखौटा उतारती है । लेखिका की प्रतिभा, परिश्रम और प्रतिबद्धता के प्रति सम्मान हमारे मन में बढ़ा है । एक बार पुनः लेखिका के जुनून को सलाम । अपने अछूते-अनूठे विषय और बहुआयामी प्रस्तुति के लिए यह कृति संसार के बड़े से बड़े पुरस्कार की हकदार है । यही हमारी सात्विक कामना भी है ।

हाशिया से साभार

गुरुवार, 28 जून 2012

" उस लड़के का नाम रमेश था "

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आप इस आभामंडल में खोए रहते हैं कि हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में रहते हैं। मगर खुद को कल्याणकारी राज्य  के तौर विज्ञापित करने वाले भारत का स्याह चेहरा भी देखा जाना चाहिए। दंतेवाणा के आदिवासी युवक रमेश की कहानी हिमांशु कुमार के फेसबुक पेज से लिया गया है, जिसमें निर्मतता के साथ आम आदमी के साथ किया जाने वाला राज्य का अत्याचार साफ  झलकता है। इसे आपसे साझा कर रहे हैं। 




     ल रात कुछ पुरानी फाईलें पलट रहा था! मेरे हाथ में एक फाइल आयी और मेरी आँखों के सामने सारी घटनाएं फिर से घूमने लगी ! ये उसी समय की बात है जब 2009 मे लिंगा कोड़ोपी नाम के आदिवासी युवक को पुलिस ने जबरन पकड़ कर गैर कानूनी तौर पर कैद किया हुआ था और छत्तीसगढ़ पुलिस उसे थाने में एस पी ओ बनने के लिए लगातार यातनाये दे रही थी ! लिंगा कोडोपी को तो बाद में अदालत के मार्फ़त छुड़ा लिया गया लेकिन पुलिस ने एक और आदिवासी युवक की ज़िंदगी लगभग तबाह कर दी ! ये फाइल उसी युवक की थी ! 
    उस लड़के का नाम रमेश था ! एक आम आदिवासी युवक ! दंतेवाडा के पास एक गांव में पूरा परिवार रहता था ! पिता एक सरकारी शिक्षक ! माँ गाँव की सरपंच! रमेश ने बीए पास किया, किस्मत ने साथ दिया और पिता ने जीवन की कमाई बेटे के भविष्य के लिए लगा दी ! रमेश को सरकारी कंपनी एन एम् डी सी में नौकरी मिल गयी! पूरे गाँव में वो सबका दुलारा हमेशा सब से सर झुका कर बात करने वाला सीधा सादा युवक था ! कुछ समय बीतने पर परिवार ने रमेश का विवाह एक पढ़ी लिखी आदिवासी लडकी से करा दिया ! कुछ समय बाद रमेश ने एक मोटर साईकिल भी खरीद ली !
यहीं से रमेश की ज़िंदगी की बर्बादी का सिलसिला शुरू हो गया ! ये उस समय की बात है जब दंतेवाडा में डी आई जी कल्लूरी और एस पी अमरेश मिश्रा थे ! सरकार आदिवासियों के गावों को खाली कराने के लिए अपनी पूरी ताकत लगा रही थी ! हर गावों के पढ़े लिखे आदिवासी युवक को जबरन सरकार और पुलिस का मुखबिर बना कर गावों में ज़मीन छीनने का विरोध करने वालों के बारे में जानकारी ली जाती थी! बाद में उन सभावित विस्थापन विरोधी आदिवासी नेताओं को नक्सली कह कर जेलों में डाल दिया जाता था ! आज भी छत्तीसगढ़ की जेलें ऐसे ही निर्दोष आदिवासियों से भरी पडी हैं और सरकार आदिवासियों की ज़मीनों को विदेशी कंपनियों को बेच रहा है! 
      रमेश को पुलिस ने उसके घर से उठाया और थाने ले गए ! माता पिता और गांव के कुछ लोग थाने गए ! पूछा की हमारे बेटे ने क्या अपराध किया है ? थानेदार ने कहा अपराध तो मुझे नहीं मालूम हम तो ऊपर के साहब लोगों का हुकुम बजाते हैं! थानेदार ने सलाह दी कि आप लोग डी आई जी साहब से मिल लीजिये वो बोल देंगे तो हम तुरंत छोड़ देंगे ! परिवार वाले एस पी अमरेश मिश्रा और डी आई जी कल्लूरी से मिले वो बोले कुछ दिनों में छोड़ देंगे ! परिवार के लोग मदद मांगने हमारी संस्था में आये ! हमने वकील से बात की ! एक पत्र बनाया और एस पी अमरेश मिश्रा और डी आई जी कल्लूरी समेत राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को भी भेजा गया ! कहीं से कई सहायता मिलना तो दूर जवाब भी नहीं आया ! लेकिन एस पी अमरेश मिश्रा और डी आई जी कल्लूरी सतर्क हो गए और उन्होंने आनन् फानन में एक पत्रकार सम्मलेन बुलाया और कहा की कल पुलिस ने जंगल में नक्सलियों के साथ एक वीरतापूर्ण मुकाबले में एक नक्सली कमांडर को गिरफ्तार करने में सफलता पायी है जिसका नाम रमेश है ! और उसके बाद पुलिस ने रमेश को पत्रकारों के सामने पेश कर दिया और जेल में डाल दिया ! इसके कुछ समय के बाद मुझे भी दंतेवाडा छोड़ना पड़ा! 
   कल रमेश की फ़ाइल पढने के बाद मैंने लिंगा कोडोपी से पूछा की अब रमेश की क्या खबर है? उसने बताया की पुलिस ने उसे आपके दिल्ली आने के बाद छ महीने होने पर छोड़ दिया ! इस बीच उसकी पत्नी ने सदमे से आत्महत्या कर ली ! जेल जाने के कारण रमेश की नौकरी भी चली गयी ! परिवार के पास जो ज़मीन थी वो वकीलों की फीस चुकाने में बिक गयी! पूरा परिवार बर्बाद हो गया ! रमेश अब ज्यादातर घर में अन्दर पड़ा रहता है ! किसी से बात नहीं करता ! परिवार वाले भी इस सदमे से अभी तक उबर नहीं पाए हैं ! डर लगा रहता है की कहीं पुलिस फिर से ना पकड़ कर ले जाए ! मेरा दिल किया में जोर से चिल्लाऊं ! पर कौन सुनेगा?

सोमवार, 11 जून 2012

न्याय की बैसाखी पर मौत की इबारत



अंजनी कुमार
8 जून 2012... सेशन कोर्ट, इलाहाबाद। सुबह 11बजे से न्याय के इंतज़ार में हम लोग खड़े थे। सीमा आज़ाद और विश्वविजय कोर्ट में हाजि़र नहीं थे। वकील ने बताया कि जज साहब दोपहर बाद ही बैठेंगे, वह अभी भी 'न्याय' को अंतिम रूप देने में व्यस्त हैं। हम लोगों के लिए इस व्यस्तता को जान पाना व देख पाना संभव नहीं था। कमरा न. 23 के आसपास गहमागहमी बनी हुई थी। तेज धूप और उमस में छाया की तलाश में हम आसपास टहल रहे थे, बैठ रहे थे और बीच-बीच में कोर्ट रूम में झांक आ रहे थे कि जज साहब बैठे या नहीं। सीमा की मां, बहन, भाई, भांजा व भांजी और कई रिश्तेदार व पड़ोसी इस बोझिल इंतज़ार को एक उम्मीद के सहारे गुज़ारने में लगे थे। मैंने अपने दोस्त विश्वविजय के चचेरे भाई और वकील के साथ बातचीत और इलाहाबाद विश्वविद्यालय को देख आने में गुज़ार दिया। 

विश्‍वविजय और सीमा आज़ाद


इलाहाबाद विश्वविद्यालय के उस लॉन में जहां हम लोगों ने पहला स्टडी सर्किल शुरू किया था, वहां बैठना मानो एक शुरूआत करने जैसा था। 1993 में बीए की पढ़ाई करते हुए विकल्प छात्र मंच और बाद में इंकलाबी छात्र सभा को बनाने का सफ़र यहीं से हमने शुरू किया था। विश्वविजय रिश्ते में भवदीय था लेकिन छात्र जीवन और राजनीति में हमसफ़र। हम आपस में बहुत लड़ते थे। इस लड़ने में हम लोगों के कई हमसफ़र थे। हम जितना लड़ते, हमारे स्टडी सर्किल और संगठन का विस्तार और उद्देश्यों की एकजुटता उतनी ही बढ़ती गई। 1996 के अंत में मैं गोरखपुर चला गया। इलाहाबाद से प्रस्थान करने तक विश्वविजय शाकाहारी से मांसाहारी हो चुका था, खासकर मछली बनाने में माहिर हो चुका था। वह एक अच्छा कवि बन चुका था और प्रेम की धुन में वह रंग और कूची से प्रकृति को सादे कागज़ पर उतारने लगा था। उसके बात करने में व्यंग्‍य और विट का पुट तेजी से बढ़ रहा था। 1997 में गांव के और वहां के छात्र जीवन के अध्ययन व इंकलाबी छात्र सभा के सांगठनिक विस्तार के लिए मैं पूर्वांचल के विशाल जनपद देवरिया चला गया। बरहज, लार, सलेमपुर, गौरीबाजार, चौरीचौरा, खुखुन्दु आदि कस्बों व गांवों पर वैश्वीकरण, निजीकरण और उदारीकरण की गहरी पकड़ बढ़ती जा रही थी। दो बार लगभग 35 किमी का लंबा दायरा चुनकर रास्ते के गांवों का अध्ययन किया। इसमें न केवल गांव की जातीय व जमीन की संरचना एक हद तक साफ हुई, साथ ही अपने जातीय व वर्गीय पूर्वाग्रह भी खुल कर सामने आए। इस बीच विश्वविजय से मुलाकात कम ही हुई। इंकलाबी छात्र सभा के गोरखपुर सम्मेलन में विश्वविजय से मुलाकात के दौरान वह पहले से कहीं अधिक परिपक्व और मज़बूत लगा। वह छात्र मोर्चे में पड़ रही दरार से चिंतित था। 1999 में मैं बीमार पड़ा। महीने भर के लिए इलाहाबाद आया। उस समय तक इंकलाबी छात्र सभा की इलाहाबाद इकाई में दरार पड़ चुकी थी। आपसी विभाजन के चलते साथियों के बीच का रिश्ता काफी तंग हो चुका था। इन सात सालों में हम सभी दोस्तों के बीच जो बात मुख्य थी वह सामाजिक सरोकारों के प्रति उत्तरदायित्व की भावना थी और लोगों को पंगु बनाने की नीति के प्रति गहरी नफ़रत थी। सन 2000 में ऑपरेशन के लिए दिल्ली आना पड़ा और फिर यहीं का होकर रह गया। इस बीच विश्वविजय से बहुत कम मुलाकात हुई। दो बार गांव में और दो बार इलाहाबाद। मेरा इंकलाबी छात्र सभा से रिश्ता टूट चुका था। विश्वविजय इस मोर्चे पर डटा रहा। वह इस बीच गांवों के हालात के अध्ययन के लिए इलाहाबाद के आसपास गया। उसने मुलाकात के समय फूलपुर के किसानों और शंकरगढ़ के दलित व आदिवासी लोगों के जीवन के बारे में काफी कुछ बताया। बाद के दिनों में विश्वविजय से सबसे अधिक मुलाकात और बात नैनी जेल में हुई। हम दोनों के बीच लगभग बीस सालों के बातचीत के सिलसिले में परिवार का मुद्दा हालचाल जानने के उद्देश्य से आता था। लेकिन इसजून को यह सिलसिला भी टूट गया। 

शाम पांच बजे 'न्याय की इबारत' सुनने के बाद सारी बेचैनी को समेटे हुए कोर्ट से बाहर आने से पहले विश्वविजय से गले मिला और कहा- 'जल्दी ही जेल में मिलने आऊंगा।' वह काफी शांत था। व्यंग्‍य और विट की भाषा कभी न छोड़ने वाला विश्वविजय मेरा हाथ पकड़े हुए भवदीय रिश्ते की भाषा में लौट आया। मानो लगा कि हम 1992 की चौहद्दी पर लौट गए हों- गांव से आए हुए दो नवयुवकों और हम दोनों को गाइड करने, भोजन बनाकर खिलाने वाले मेरे अपने बड़े भाई के सान्निध्‍य में। मेरे बड़े भाई हम दोनों के इलाहाबाद आने के बाद एक साल में ही नौकरी लेकर इलाहाबाद से चले गए। और फिर भाईपने से मुक्त हम दोनों अलग-अलग इकाई थे। और इस तरह हम एक जुदा, स्वतंत्र और एक मक़सद की जि़ंदगी जीते हुए आगे बढ़ते गए। हमारा समापवर्तक जो बन गया था, उससे हमारा परिवार भी चिंतित था। पर, उस कोर्ट में हम 1992 की चौहद्दी पर लौट गए थे। विश्वविजय कोर्ट में जिम्मेदारी दे रहा था- ''अम्मा बाबूजी को संभालना...हां...ख्याल रखना...।' मैं कोर्ट से बाहर आ चुका था।

लौटते समय मेरा दोस्त संयोगवश मुझे उन्हीं गलियों से लेकर गया जहां मेरे गुरु और हम लोगों के प्रोफेसर रहते थे,जहां हमने इतिहास और इतिहास की जि़म्मेदारियों को पढ़ा और समझा था। यहीं मैंने लिखना सीखायहीं अनगढ़ कविता को विश्वविजय ने रूप देना सीखा। हम उन्हीं गलियों से गुज़र रहे थे- अल्लापुर लेबर चौराहे से- मज़दूरों और नौकरी का फॉर्म भरते व शाम गुज़ारते हज़ारों युवा छात्रों की विशाल मंडी से। इन रास्तों से गुज़रना खुद से जिरह करने जैसा था। सिर्फ सीमा और विश्वविजय के साथ कोर्ट में न्यायाधीश के द्वारा किए व्यवहार से, उसके 'न्याय' से जूझना नहीं था। हम जो पिछले बीस साल गुज़ार आए हैं,जिसमें हमारे लाखों संगी हैं और लाखों लोग जुड़ते जा रहे हैं, उनकी जि़ंदगी से जिरह करने जैसा।


लगभग छह महीने पहले गौतम नवलखा ने सीमा आज़ाद का एक प्रोफाइल बनाकर भेजने को कहा। मैंने लिखा और भेज दिया। उसे उस मित्र ने कहां छापा, पता नहीं। मैं इस उम्मीद में बना रहा कि आगे विश्वविजय और सीमा का प्रोफाइल लिखने की ज़रूरत नहीं होगी। कई मित्रों ने कहा कि लिखकर भेज दो, पर एक उम्मीद थी सो नहीं लिखा। लिखना जिरह करने जैसा है। इस जिरह की जरूरत लगने लगी है। यह जानना और बताना ज़रूरी लगने लगा है कि सीमा और विश्वविजय के जीवन का मसला सिर्फ मानवाधिकार और उसके संगठन से जुड़कर चलना नहीं रहा है। सीमा एक पत्रिका की संपादक थी और उससे सैकड़ों लोग जुड़े हुए थे। विश्वविजय छात्र व जनवाद के मुद्दों पर लगातार सक्रिय रहा। और कम से कम इलाहाबाद के लोगों के लिए कोई छुपी और रहस्यपूर्ण, षडयंत्रकारी बात नहीं थी यह। यह एक ऐसा खुला मामला था जिसे सारे लोग जानते थे और कार्यक्रमों के हिस्सेदार थे। सीमा आज़ाद का यह प्रोफाइल अपने दोस्तों के लिए एक रिमाइंडर की तरह है: 

फरवरी 2010 की सुबह इलाहाबाद रेलवे स्टेशन पर रीवांचल टेªन से उतरते ही सीमा व उनके पति विश्वविजय को माओवादी होने व राज्य के खिलाफ षडयंत्र रचने के आरोप में पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। दोनों के ऊपर यूएपीए- 2005 के तहत मुकदमा ठोक दिया गया। इसके बाद कोर्ट में एक के बाद एक ज़मानत की अर्जी पेश की गई, पर हर बार यह अर्जी खारिज कर दी गई। ज़ाहिरा तौर पर ज़मानत न देने के पीछे सीमा आज़ाद के खतरनाक होने का तमगा ही राज्य के सामने अधिक चमक रहा होगा। आज जब लोकतंत्र पूंजी, कब्ज़े व लूट की चेरी बन जाने के लिए आतुर है, तब खतरनाक होने के अर्थ भी बदलता गया है। मसलन, अपने प्रधानमंत्री महोदय को युवाओं का रेडिकलाइजेशन डराता है। इसके लिए राज्य मशीनरियों को सतर्क रहने के लिए वे हिदायत देते हैं। सीमा आज़ाद उस दौर में रेडिकल बनीं जब मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री नहीं हुआ करते थे। तब उन्होंने विश्व बैंक के तहखानों से निकल कर इस देश के वित्त मंत्री का पद संभाला था। साम्राज्यवादियों के इशारे पर उन्होंने खुद की बांह मरोड़ लेने की बात कही थी। इसके बाद तो पूरे देश के शरीर को ही मरोड़ने का सिलसिला चल उठा। उस समय सीमा आज़ाद का नाम सीमा श्रीवास्तव हुआ करता था। उसने इलाहाबाद से बीए की पढ़ाई की। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से मनोविज्ञान में एमए किया। 1995 तक ब्रह्मांड की गतिविधियों में ही उसकी ज्यादा रुचि बनी रही। बृहस्पति के चांद जो लड़ी की तरह दिखते हैं उसे वह टेलीस्कोप से घंटों देखती रहती थी। देर रात तक ग्रहों व तारों की तलाश में वह पिता से कितनी ही बार डांट खा चुकी थी। उस समय तक देश पर उदारीकरण की अर्थनीति का राजनीति व आम जीवन पर असर खुलकर दिखने लगा था। सीमा ने ब्रह्मांड की गतिकी को जेडी बरनाल की पुस्तक हिस्टरी ऑफ साइंस के माध्‍यम से समाज की गतिकी के साथ जोड़कर देखना शुरू किया। समसामयिक विज्ञान व दर्शन में आई हुई रुकावट में उसने अपने समाज की गति के सामने बांध दिए गए बंधों को समझना शुरू किया। 1995-96 में छात्र व महिला मोर्चे पर उसकी गतिविधियां बढ़ने लगीं। जूलियस फ्यूचिक की पुस्तक 'फांसी के तख्ते से' को पढ़कर वह सन्नाटे में आ गई थी। उसे पहली बार लगा कि समाज की गति पर बनाई गई भीषण रुकावटें वहीं तक सीमित नहीं हैं। ये रुकावटें तो मनुष्य के जीवन की गति पर लगा दी जाती हैं। सीमा श्रीवास्तव नारी मुक्ति संगठन के मोर्चे पर 2001 तक सक्रिय रहीं जबकि इंकलाबी छात्र मोर्चा के साथ बनी घनिष्ठता2004 तक चली। सीमा ने प्रेम विवाह किया और फिर घर छोड़ दिया। नाम के पीछे लगी जाति को हटाकर आज़ाद लिखना शुरू किया। यह एक नई सीमा का जन्म था- सीमा आज़ाद। उसने पैसे जुटाकर बाइक खरीदी। समाचार खोजने के लिए वह लोगों के बीच गई। लोगों की जिंदगी को खबर का हिस्सा बनाने की जद्दोजेहद में लग गई। उसकी खबरें इलाहाबाद से निकलने वाले अखबारों में प्रमुखता से छपती थीं। वह इलाहाबाद शहर के सबसे चर्चित व्यक्तित्वों में गिनी जाने लगी थी। वह मानवाधिकार, दमन-उत्पीड़न, राजनीतिक-सामाजिक जनांदोलनों, किसान-मजदूरों के प्रदर्शनों का अभिन्न हिस्सा होती गई। उसने जन मुद्दों पर जोर देने व समाज और विचार से लैस पत्रकारिता की ज़रूरत के मद्देनज़र 'दस्तक-नए समय की पत्रिका' निकालनी शुरू की। पत्रिका को आंदोलन का हिस्सा बनाया। उसने हज़ारों किसानों को उजाड़ देने वाली गंगा एक्सप्रेस वे परियोजना के खिलाफ पत्रिका की ओर से गहन सर्वेक्षण किया। इस परियोजना से होने वाले नुकसान को बताने के लिए इसी सर्वेक्षण को पुस्तिका के रूप में छाप कर लोगों के बीच वितरित किया। आज़मगढ़ में मुस्लिम युवाओं को मनमाना गिरफ्तार कर आतंक मचाने वाले एसटीएफ व पुलिस की बरजोरी के खिलाफ दस्तक में ही एक लंबी रिपोर्ट छापी। सीमा की सक्रियता मानवाधिकार के मुद्दों पर बढ़ती गई। वह पीयूसीएल- उत्तर प्रदेश के मोर्चे में शामिल हो गई। उसे यहां सचिव पद की जि़म्मेदारी दी गई। सीमा आज़ाद की गिरफ्तारी के समय तक उत्तर प्रदेश में युवाओं की एक ऐसी पीढ़ी सामने थी जो मुखर होकर मानवाधिकारों का मुद्दा उठा रही थी। पतित राजनीति, लूट करने वाली अर्थव्यवस्था, बढ़ती सामाजिक असुरक्षा, दंगा कराने की राजनीति और अल्पसंख्यकों व दलितों के वोट और उसी पर चोट करने की सरकारी नीति के खिलाफ बढ़ती सुगबुगाहट राज्य व केंद्र दोनों के लिए खतरा दिख रही थी। इस सुगबुगाहट में एक नाम सीमा आज़ाद का था। दिल्ली के विश्व पुस्तक मेले से किताब खरीद कर लौट रही सीमा को देश की सुरक्षा के लिए खतरा घोषित कर उनके पति के साथ गिरफ्तार कर लिया गया। जब देश प्रेम व देश द्रोह का अर्थ ही बदल दिया गया हो तब यह गिरफ्तारी एक प्रहसन के सिवा और क्या हो सकती है!
सीमा और विश्वविजय को देश के खिलाफ षडयंत्र के अभियोग में दस-दस साल का कठोर कारावास और दस-दस हज़ार रुपये का दंड और देशद्रोह के मामले में दोनों को आजीवन कारावास और बीस-बीस हज़ार रुपये का दंड दिया गया। प्रतिबंधित साहित्य रखने के जुर्म में अलग से सजा। यूएपीए की धाराओं 34ए, 18ए, 20ए, 38 और आईपीसी के तहत कुल 45 साल का कठोर कारावास और आजीवन कारावास की सज़ा दोनों को दी गई। दोनों को ही बराबर और एक ही सज़ा दी गई। इन धाराओं और प्रावधानों पर पिछले दसियों साल से बहस चल रही है। ऐसा लग रहा है कि न्याय की बैसाखी पर मौत की इबारत लिख दी गई है। जो बच जा रहा है उनके लिए मेरे पास कोई शब्द नहीं हैं, पर ईश्वर पर भरोसा करने वाले लोग इसे भगवान की महिमा कहते हैं।

8 जून को कोर्ट में सीमा के पिताजी नहीं आए। वे निराशा और उम्मीद के ज्वार-भाटे में खाली पेट डूब उतरा रहे थे। उस रात वह घर किस तकलीफ से गुज़रा होगा, इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं है। विश्वविजय के अम्मा और बाबूजी केदारनाथ और बद्रीनाथ की यात्रा पर थे। शायद कोई महिमा हो जाय। मैं खुद पिछली सुनवाइयों को सुनने और न्यायाधीश के रिस्‍पॉन्‍स से इस निष्कर्ष पर पहुंच गया था कि सेशन कोर्ट इतिहास रचने वाला है। मैं अपनी आकांक्षाओं में डूबा हुआ इतिहास रचना के चारित्रिक गुण को ही भूल गया। यह भूलना न तो सायास था और न ही अनायास। बस एक आकांक्षा थी, एक सहज तार्किक इच्छा थी, कि सीमा-विश्वविजय को अब बाहर आ जाना चाहिए और कि यह न्यायाधीश थोड़ा ढंग से सुन और गुन रहा है। हम जेलों में बंद उन लाखों लोगों को भूल ही गए जिन्हें देशद्रोह के आरोप में बेल पर भी नहीं छोड़ा गया है। हम भूल ही गए कि अब तक हज़ारों लोगों को इन्हीं आरोपों के तहत गोली मार दी गई और उसे जेनुइन इनकाउंटर बता दिया गया। हम मनोरमा देवी से लेकर सोनी सोरी तक इतिहास को भूल ही गए। हम भूल ही गए कि देश और देश का भी चारित्रिक गुण होता है। हम भूल ही गए कि शासकों का अपना चरित्र होता है। हम भूल ही गए संसद में बैठे चेहरों का राज़, हम भूल ही गए भूत बंगले की कहानी, हम भूल ही गए गुजरात और बिहार, हम भूल ही गए पाश और फैज़ की नज्‍़म... हम भवदीय आकांक्षाओं में डूबे हुए लोग न्याय की बैसाखी पर उम्मीद की एक किरण फूट पड़ने का इंतजार कर रहे थे...।

यह लिखते हुए इंकलाबी छात्र सभा के हमसफ़र साथी कृपाशंकर- जो कानपुर जेल में है और जिससे मिले हुए सालों गुज़र गए और अब तक मिल पाना संभव नहीं हो पाया- की याद ताज़ा हो आई। वह किस हालात में है, नहीं जानता पर सीमा और विश्वविजय के सामाजिक जीवन को मिला दिया जाय तो उसका प्रोफाइल बनकर तैयार हो जाएगा। गणित, विज्ञान, दर्शन और उतावलेपन का धनी यह मेरा दोस्त जेल की सींखचों में कैसे बंद जीवन जी रहा है,इसे याद कर मन तड़प उठता है। सन 2000 में ऑपरेशन कराने के बाद मैं देहरादून एक साल के लिए रहा। उस समय वह रेलवे की नौकरी में चला गया था। 2002 के आसपास वह मुझसे दिल्ली में मिला और बताया कि उसने नौकरी छोड़ दी है। उसने मुझे बधाई दी। उस समय मैं जनप्रतिरोध का संपादन कर रहा था और एआईपीआरएफ के लिए जनसंगठनों का मोर्चा बनाकर किसान व मज़दूर विरोधी नीतियों के खिलाफ धरना-प्रदर्शन में भागीदार हो रहा था। इराक पर हमले के लिए खिलाफ व्यापक संयुक्त मोर्चे में काम करते हुए मैं दिल्ली वाला बन रहा था। और उसने अपने बारे में बताया कि वह किसान मोर्चे पर काम करने का निर्णय ले रहा है और कि वह जल्दी ही नौकरी छोड़ देगा। इस साथी से मुलाकात कर इस बीच के गुज़रे समय के बारे में उससे ज़रूर पूछना है। हालांकि यह पूछना एक औपचारिकता ही होगी। आज के दौर में जनसरोकार और इतिहास की जि़म्मेवारियों में हिस्सेदार होने का एक ही अर्थ है: जनांदोलनों के साथ जुड़ाव और जन के साथ संघर्ष। जिस देश की अर्थव्यवस्था पर सूदखोरों और सट्टेबाजों की इस कदर पकड़ बन चुकी हो कि प्रधानमंत्री से लेकर वित्त मंत्री तक देश के भविष्य के बारे में सट्टेबाजों की तरह अनुमान लगाने लगे हों, वहां लोगों के सामने दो ही तरह का भविष्य बच रहा है- एक: जिस हद तक हो इस देश को लूट लिया जाय(जिसका परिदृश्य खुलेआम है)। दो: जन के साथ हिस्सेदार हो लूट और कत्लेआम से खुद को और देश को बचा लिया जाय (इस परिदृश्य पर देशद्रोह, नक्सलवाद, माओवाद,आतंकवाद की छाया है)।

यह विकल्प नहीं है। यह अस्तित्व का विभाजन है, जिसे मध्यवर्ग विकल्प के तौर पर देख रहा है और चुन रहा है। यह इसी रूप में हमारे सामने है। आइए, जनांदोलनों और जनसंघर्षों के हिस्सेदार लोगों के पक्ष में अपनी एकजुटता बनाएं और जेलों में बंद साथियों को न्याय की बैसाखियों पर लिखी मौत की इबारत से मुक्त कराने के लिए अपनी एकजुटता ज़ाहिर करें और उनकी रिहाई के लिए जनसमितियों का निर्माण करें।

 लेखक पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता हैं।

                                                                                                                                        जनपथ से